Monday, March 30, 2009

उल्लू कौन?


लघुकथा / जुलाई-अक्टूबर 08
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विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी



आओ बच्चों एक किस्सा सुनाएँ। भोले बाप बेटे का किस्सा बताएँ। बात थोड़ी सी पुरानी है। मगर इसमें न राजा है न रानी है। एक बाप और उसका बेटा साथ-साथ बाजार जा रहे थे। अपने विचारों में खोए-खोए कुछ बुदबुदा रहे थे। इतने में ही बेटा एक फल के ठेले से टकरा गया। ठेले का सामान बिखर सड़क पर आ गया।
अपना नुकसान देख फल वाले को गुस्सा आया। उसने बेटे को उल्लू का पट्ठा कह बुलाया। यह सुन बाप का सिर भन्नाया। उसको तनिक ताव भी आया। बोला ‘मेरे बेटे ने गलती की है। मगर तुमने गाली मुझे क्यों दी? तुमने मेरे बेटे को उल्लू का पट्ठा कह बुलाया है। सीधा सा अर्थ है कि मुझे उल्लू बताया है। इसे मैं बर्दाश्त नहीं करूँगा। तुम्हें पकड़ कर दो थाप धरूँगा।’ यह कह कर बाप आगे बढ़ा। पकड़कर ठेलेवाले का गिरहबान सर पर चढ़ा। ठेलेवाले ने भी तैश खाया। दोनों हाथों से बाप को धक्का लगाया। बाप संभल नहीं पाया। एक ही पल में सड़क पर आया।
मुफ्त में तमाशा होने लगा। बाजार में मजमा जमने लगा। ट्रेफिक रुकता देख पुलिस वाला आया। आते ही ठेलेवाले को धमकाया। ट्रेफिक जाम करने का चालान करूँगा। अशान्ति करने पर अन्दर धरूँगा।
पुलिस की डाँट सुनकर ठेलेवाला वाला घबराया। तुरन्त ही समझौते का मार्ग अपनाया। बाप के सामने हाथ जोड़कर दयानीय भाव बनाया। उसको ज्ञानी व स्वयं को उल्लू बताया। ठेलेवाले की बात सुनकर बाप का सिर चकराया। ठेलेवाले के उल्लू बनने की बात पर विरोध जताया। बोला, ऐसे कैसे हो सकता है? ऐसे तो मेरा बेटा खो सकता है। मेरे बेटे को उल्लू का पट्ठा बता रहे हो। अब उल्लू स्वयं बनने जा रहे हो। भरे बाजार में मुझे लूटने जा रहे हो। मेरे बेटे को अपना बेटा बता रहे हो। मैं तेरी बातों में नहीं आऊँगा। अब तो उल्लू मैं ही कहलाऊँगा।

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2 तिलक नगर,
पाली (राजस्थान)

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