Monday, February 2, 2009

शैथिल्यता के मध्य सफल संदेश

रपट =========== मार्च - जून 06

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शैथिल्यता के मध्य सफल संदेश
अश्वनी कुमार मिश्र

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बीते दिनों बुन्देलखण्ड के उरई नगर में एक उल्लेखनीय आयोजन रंगमंच के क्षेत्र में हुआ जिसमें नवोदित रंगकर्मियों ने नाट्यविधा में नवीन सोपान जोड़े हैं। यूँ तो बुन्देली माटी की सोंधी-सोंधी गंध के साथ-साथ यहाँ की आवो-हवा में साहित्य, संगीत और लोककलाओं के भी विविध रंग-रूप दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ लोकनाट्य की समृद्ध परम्परा रही है। लोकनाट्य की विविध विधाओं में यहाँ की परम्परा, लोक संस्कृति, धर्म-दर्शन और इतिहास रचा-बसा है।
लोक प्रसिद्ध कथानक, चाहे वह साहित्यिक हों या ऐतिहासिक सदैव बुन्देलखण्डवासियों को लुभाते और गुदगुदाते रहे हैं। लोकरंजन की इसी परम्परा के अन्तर्गत यहाँ समय-समय पर कई ऐतिहासिक चरित्रों पर आधारित नाटकों का लेखन एवं मंचन भी हुआ है।
सन् 1857 की प्रथम क्रांति की राष्ट्रीय नायिका महारानी लक्ष्मीबाई के गौरवशाली चरित्र एवं कृतित्व पर अनेक नाटकों का लेखन व मंचन हुआ। इनमें डा0 वृन्दावन लाल वर्मा, रणधीर, पातीराम भट्ट न्यादर सिंह ‘बेचैन’, चतुर्भुज, हरिकृष्ण प्रेमी इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के महान चरित्र को रंगमंच पर उतारा।
ऐतिहासिक नाटकों की इसी शृंखला में रानी लक्ष्मीबाई की अनन्य दासी और महासमर में साथ रही ‘झलकारी बाई’ के जीवन-चरित्र पर आधारित ‘एक थी झलकारी दुलैया’ नाटक की लेखिका, सुप्रसिद्ध कथाकार डा0 (श्रीमती) ऊषा सक्सेना ने ‘एक थी सरस्वती रानी’ लिखकर एक और कड़ी जोड़ दी।
स्वतंत्रता की प्रथम क्रान्ति में यद्यपि अनेक वीरांगनाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया किन्तु सबसे अनूठा, विलक्षण बलिदान डा0 (श्रीमती) ऊषा सक्सेना ने मंडावरा की रानी सरस्वती का माना है। जिसके विलुप्त कथानक को उन्होंने नाट्यविधा में उकेरा है और उसे उसके गौरवमय बलिदान से अमर कर दिया।
स्वतंत्रतापूर्व की पृष्ठभूमि पर आधारित नाटक ‘एक थी सरस्वती रानी’ के कथानक का सम्बन्ध तत्कालीन झाँसी राज्य के ललितपुर क्षेत्र से है। इसका केन्द्र बिन्दु इतिहास के पन्नों से अलग-अलग सी पड़ चुकी लुप्तप्राय अतीत की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है, जिसमें मंडावरा की रानी (छोटी रानी) सरस्वती को अपने परिजनों समेत 1360 निर्दोष लोगों को अत्याचारी, निष्ठुर प्रशासक, अंग्रेज अफसर मि. थार्नटन से मुक्त कराकर फांसी से बचाने के कत्र्तव्य निर्वहन में उसके साथ विवाह की उसी शर्त को अनिच्छा व दबाव में मानना पड़ता है, जिसे वह पूर्व में (कौमार्यावस्था में) देशभक्ति और संस्कारों के कारण ठुकरा चुकी थी।
इस नाटक में भावनाओं पर कत्र्तव्य की और भारतीय पतिव्रता नारी की प्रत्येक विपरीत परिस्थिति पर विजय दर्शाई गई है। उसका अदम्य साहस, बलिदान व दृढ़ संकल्प भावना, देशभक्ति और त्याग प्रशंसनीय है।
लेखिका डा0 (श्रीमती) ऊषा सक्सेना ऐतिहासिक तथ्यात्मकता के दिग्भ्रम के रहते हुये भी इस नाटक के माध्यम से अपना संदेश देने में सफल रही हैं।
नगर में उत्कृष्ट प्रेक्षागार की कमी ऐसे में उन सभी नाट्य प्रेमियों को अखरी जिन्होंने ‘मण्डपम्’ सभागार की नाटकों के संदर्भ में-प्रतिकूल परिस्थिति के कारण उत्पन्न गतिरोध को धैर्यपूर्वक सहा।
यदाकदा अनुभवहीनताजन्य निर्देशन शैथिल्य भी झलका। पात्र लाइट-ब्लाकिंग के साथ पूर्ण सामंजस्य की असफल कोशिश करते दिखे। कुछेक पात्रों में रिहर्सल (पूर्वाभ्यास) की कमी झलकी। इनके रहते भी पात्रों की भाव-सम्प्रेषणीयता सार्थक रही। उन्होंने अपनी-अपनी भूमिका के साथ पूर्ण न्याय करने की सराहनीय चेष्टा की।
मुख्य पात्र सरस्वती रानी के रूप में नवोदित रंगकर्मी कु. दीपशिखा बुधौलिया ने तन्मयतापूर्वक जीवन्त अभिनय कर अपनी प्रतिभा उद्घाटित की है। यह सुखद संकेत है। अन्य मुख्य पात्र मि. थार्नटन के रूप में कृष्णमुरारी और सह पात्र सूबेदार अर्जुन सिंह की भूमिका में संतोष दीक्षित सशक्त व प्रभावशाली अभिनय करते दिखे। बड़ी रानी की भूमिका में कु. रश्मि सिंह ने भी नाट्य प्रेमियों का ध्यानाकर्षित किया। नन्हे राजकुमार के रूप में अंश ने अपनी बालसुलभ प्रस्तृति से सभी दर्शकों का मन मोह लिया। अन्य कलाकारों को अभी और निखरने की आवश्यकता है।
नाटक का कला-पक्ष सशक्त रहा। यद्यपि दृश्य योजना और अंक विधान भविष्य में गत्यात्मकता एवं सामंजस्य की अपेक्षा करते है। निर्देशकद्धय से भविष्य में इसकी उपेक्षा न करने की आशा की जा सकती है।
पात्रों की रूप-सज्जा चित्ताकर्षक और सम्मोहक रही है जो कुशल रूपाकारों द्वारा सीमित समय व संसाधनों में की गई। केश विन्यास के लिये भी रूपाकारों की सराहना की जानी चाहिये।
संगीत और संवाद श्रेष्ठ रहे। दर्शकों ने इनका भरपूर रंजन किया। ध्वनि व प्रकाश व्यवस्था यत्र-तत्र अवश्य खटकी। यद्यपि इसका मूल कारण मंच का अनुकूल न होना ही माना जायेगा।
सारांशतः यहा कहा जा सकता है कि अपनी सहज अनुभूतियों, जीवन की सफलताओं-असफलताओं, निराशा और कुंठाओं, दैनंदिन पीड़ा तथा अन्यान्य स्थितियों से जोड़कर जब कोई प्रस्तुति की जाती है तो वह नये-नये अर्थ देती है।
संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित एवं बुन्देलखण्ड की स्थापित सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था ‘वातायन’ उरई की यह रोचक और मनोरंजक नाट्य प्रस्तुति बुन्देलखण्ड की उस प्राचीन रंगपरंपरा का भान करा गई जिसके अन्तर्गत संस्कृत नाटककार भवभूति के नाटकों का मंचन कालपी के निकट कालप्रियनाथ मंदिर की विशाल रंगशाला में हुआ करता था।
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375, ‘शारदा सदन’ सुशील नगर, उरई

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