Wednesday, February 18, 2009

अंक-1 मार्च-जून 2006



बात दिल की साहित्यकार हाशिए पर ?
धरोहर कहानी / चंद्रधर शर्मा गुलेरी / उसने कहा था
आलेख /
दुर्गाप्रसाद श्रीवास्तव / विद्यापति का आधुनिक युग को संदेश
डॉ० वीरेन्द्रसिंह यादव / महात्मा गाँधी और उनका दलितोत्थान
कहानी /
डॉ० विद्याबिंदु सिंह / सुरसती बुआ (लम्बी कहानी)
उषा सक्सेना / सत्य की जीत (बुन्देली लोककथा)
डॉ० अलका पुरवार / बस अब और नहीं
लघुकथा /
रश्मि दुबे / लघुकथा (२)
कोपल /
देविना सिंह गुर्जर / कठपुतली लड़की पूजा (कहानी)
कविता /
डॉ० हर्षिता कुमार/ जागो मानव ....!
डॉ० अनुज भदौरिया / क्यों भला ?
सुप्रिया दीक्षित / काश ! ऐसा होता
सुरेश चंद्र त्रिपाठी / बेल (बुन्देली कविता)
ग़ज़ल /
अमृताधीर / ग़ज़ल
ज्ञान /
नासिर अली नदीम / गज़ल शिल्प ज्ञान-1
परिक्रमा /
अश्वनी कुमार मिश्रा / शैथिल्यता के मध्य सफल संदेश (रपट)

Monday, February 2, 2009

महात्मा गाँधी और उनका दलितोत्थान

आलेख ====== मार्च - जून 06
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महात्मा गाँधी और उनका दलितोत्थान
डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव
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महात्मा गाँधी समस्त पूर्वी चिन्तन के प्रतिनिधि विचारक कहे जा सकते हैं। शायद वे विश्व के एकमात्र ऐसे विचारक हैं, जिन्होंने लक्ष्यों और साधनों की पवित्रता को समान-रूप से महत्वपूर्ण माना। गाँधी जी ने एक राष्ट्रनायक के रूप में भारत की आजादी के आन्दोलन का नेतृत्व ही नहीं किया वरन् वे मानवीय मूल्यों की रक्षा का सन्देश देने वाले विश्व के महानतम चिंतक हैं। चिंतक होने के साथ-साथ महात्मा गाँधी राजनीतिज्ञ एवं समाज सुधारक भी थे। यहाँ यह बताना पर्याप्त है कि गाँधी जी की निष्ठा सभी वर्गो के प्रति समान थी, परन्तु किसी को नाराज न करके वह सबको खुश करने की चेष्टा करते रहते थे जो सम्भव ही नहीं था और कभी-कभी सबको खुश करने के लिये व्यक्ति को विवादास्पद एवं इतिहास में संदेहास्पद स्थिति में रहना पड़ता है। महात्मा गाँधी समाज सुधारक के रूप में भारतीय समाज में जाने जाते हैं और राष्ट्रीय आन्दोलन के अग्रदूत भी, क्योंकि हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन में दो ऐसी बाधायें उपस्थित थीं जिनको हल करना तत्कालीन समय में अति कठिन कार्य था। साम्प्रदायिकता और अस्पृश्यता के अन्त का कार्य करते करते हालाँकि आपका जीवन बलिदान हो गया परन्तु उन्होंने इसे एक सीमा अवश्य प्रदान कर दी। गाँधी जी अस्पृश्यता को हिन्दू समाज का कलंक मानते थे और इस बात को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे कि दलित वर्गों को समाज के अन्य वर्गों से पृथक रखते हुये हीन समझा जाये। गाँधी जी के अनुसार-‘‘सामाजिक व्यवस्था, व्यक्ति तथा व्यक्ति के मध्य तथा पुरुष एवं नारी के मध्य समानता पर आधारित होगी। इस प्रकार की व्यवस्था में किसी प्रकार का भेदभाव नही होगा। यह नैतिक राष्ट्रवादी तथा आत्मज्ञानी व्यक्तियों का समाज होगा। यह बाह्य आडम्बरपूर्ण धर्मों के द्वारा अज्ञानी एवं सीधे लोगों पर आरोपित की गयी साम्प्रदायिक कठोरता, धार्मिक दोषारोपण तथा विवेक शून्यता से मुक्त सामाजिक व्यवस्था होगी। इस व्यवस्था में व्यक्ति की सुख सुविधा की भावना तथा सामाजिक विकास की क्षमता को प्रभावित किये बिना, व्यक्तित्व के विकास के लिये पूर्ण अवसर प्रदान किये जायेंगे।’’ स्पष्ट है आने वाले समय में गाँधी जी ने समाज कल्याण के लिये अनेक कार्य किये, इन्हीं कार्यों में एक महान कार्य था हरिजन (दलित) उत्थान। समाज का विकास तभी हो सकता है जब उसके सभी वर्गों का विकास हो। गाँधी ने देखा कि समाज के एक वर्ग (दलित) के साथ अन्य वर्गों (उच्च जातियों) का व्यवहार सही नहीं है। उन्हें अस्पृश्य माना जाता है और उनके साथ अत्याचार होता है। गाँधी ने अस्पृश्यता को मानव समाज का एक कलंक माना और अपने इस लक्ष्य की सिद्धि के लिये रचनात्मक कार्यक्रमों की एक अठारहसूत्री तालिका बनाई जिसमें अस्पृश्यता निवारण को महत्वपूर्ण स्थान देकर उस पर प्रयास भी किये। गाँधी जी ने अस्पृश्यता सम्बन्धी अपने विचारों को हरिजन सेवक तथा यंग इंडिया के माध्यम से व्यक्त किये हैं। पहले उनके विचारों से हम आपका परिचय कराते है-‘हरिजन सेवक’ में एक स्थान पर अस्पृश्यता के बारे में गाँधी जी लिखते हैं-‘अस्पृश्यता का घाव इतना गहरा चला गया है कि इसका जहर हमारी रग-रग में फैल गया है। ब्राह्मण-अब्राह्मण के भेदभाव की ओर अलग-अलग धर्मों के बीच के भेदभाव की जड़ अस्पृश्यता में ही है। अस्पृश्यता का यह जहर क्यों रहना चाहिये ?’ (हरिजन सेवक-23-2-1934)। गाँधी ने यह सार्वजनिक रूप से कहा भी कि हम अछूतों को अपने गले से जब तक नही लगाएंगे-तब तक हम मनुष्य नहीं कहला सकते। आपका मत था कि यदि हिन्दुओं के मन से अस्पृश्यता के विष को निकाल दिया जाये तो इसका भारत की सभी जातियों के आपसी सम्बन्धों पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ेगा। ‘हरिजन सेवक’ के 17 नवम्बर 1933 के अंक में आपने लिखा है-‘‘हिन्दुओं का अपने आपको ऊँच और नीच के भेद भाव से मुक्त कर लेना मात्र ही अन्य जातियों के बीच पारस्परिक वैमनस्यता एवं अविश्वास को दूर कर देता है।’’ गान्धी जी मानते थे कि हम सम्पूर्ण भारत एक परिवार की तरह है और सारी मनुष्य जाति एक वृक्ष की शाखायें है। यह सच है कि गाँधी ने सनातनी हिन्दुओं को अस्पृश्यता निवारण की आवश्यकता हेतु हिन्दू धर्म का सहारा लिया। हिन्दू धर्म को मानने वाले के प्रति गाँधी ने कहा कि ‘अस्पृश्यता का मौलिक उद्भव धर्म में नहीं है। अस्पृश्यता दैवी नहीं मानवकृत है। अछूतपन जैसा हम आज मानते हैं, न पूर्व कर्म का फल है, न ईश्वरकृत है, आज का अछूतपन मनुष्यकृत है, सर्व हिन्दूकृत है। यह सच है कि तत्कालीन समय में अस्पृश्यता हिन्दू धर्म में घुसी सड़ांध की तरह थी, जो महान पाप की तरह थी और यह मानसिक रूप से हिन्दू मानस पटल पर अमिट प्रभाव छोड़ रही थी। इसका प्रभाव यह हुआ कि इसने समाज की जड़ों को खोखला कर दिया। स्वाभाविक है कि यदि हमें उचित सम्मान, उचित देखभाल एवं उचित साधन उपलब्ध नहीं है तो ऐसी आजादी मिलने का औचित्य ही क्या है ? गाँधी के मतानुसार ‘अस्पृश्यता के साथ संग्राम एक धार्मिक संग्राम है, यह सम्मान मानव सम्मान की रक्षा तथा हिन्दू धर्म के बहुत ही शक्तिशाली सुधार के लिये आवश्यक है।’ धर्म और सुधार का रिश्ता विवादास्पद होता है किन्तु गाँधी इनमें धर्म को सुधार के आगे गौण मानते हैं और आस्था को तिलांजलि देते हुये कहते है कि यदि लोगों ने (सवर्ण समाज) उनके अस्पृश्यता एवं दलितोत्थान सम्बन्धी कार्यों को नही माना तो वे ऐसे धर्म का परित्याग कर सकते हैं - ‘अगर मुझे पता चला कि हिन्दू धर्म सचमुच अस्पृश्यता का समर्थन करता है, तो हिन्दू धर्म का त्याग करने में मुझे किसी प्रकार की हिचकिचाहट नही होगी, क्योंकि मैं मानता हूँ कि कोई सच्चा धर्म सदाचार और नीतिशास्त्र के बुनियादी सत्यों के विरूद्ध नहीं होता।’’ (हिन्दी नवजीवन-3-11-1927 पृ।-85)
यहाँ तक सब ठीक है कि गाँधी ने अपने पत्रों/भाषणों के माध्यम से अस्पृश्यता निवारण हेतु साथ ही दलितों के उत्थान हेतु महान प्रयास/कार्य किये, परन्तु कुछ कार्य उनकी निष्ठा पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं और उनका व्यक्तित्व इतिहास में दोयम दर्जे की विचारधारा वाला सिद्ध होने लगता है ? कुछ प्रमुख (बिन्दुओं की ओर) मुद्दों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा-जैसे पूना पैक्ट (1932), गाँधी की धर्म सम्बन्धी आस्था, अस्पृश्यों के मन्दिर में प्रवेश सम्बन्धी उनके विचार, सहभोजन और विजातीय विवाह, इन सब में गाँधी कही न कहीं अपने कहे हुये विचारों से मुकरते नजर आते हैं। गाँधी ने दलितों पर किये गये अत्याचार को गलत बताया और इसे सनातनी हिन्दुओं की एक चाल बताया जबकि वास्तव में अपने व्यक्तिगत जीवन में गाँधी सच्चे सनातनी थे। एक भाषण में वे स्वीकार भी करते है कि ‘‘मैं अपने आपको हिन्दू धर्म की भावना से ओतप्रोत एक सच्चा हिन्दू मानता हूँ।’’ इसलिये गाँधी के अस्पृश्यता निवारण को सफलता नही मिल पायी क्योंकि वे भगवान और धर्म को एक साथ लेकर चलना चाहते थे और स्वाभाविक है अस्पृश्यता निवारण के इस कार्य में उनका सामाजिक सुधार धर्म के चंगुल में फँस गया। एक स्थान पर उनके अस्पृश्यता सम्बन्धी विचार भी बनावटी (संदेहास्पद) लगते हैं आप लिखते हैं-‘‘छूआछूत, दूर करना एक ऐसा प्रायश्चित है, जो सवर्ण हिन्दुओं को, हिन्दुओं को हिन्दू धर्म के लिये करना चाहिये। शुद्धि अछूतों की नही बल्कि ऊँची कहलाने वाली जातियों की जरूरी है। कोई ऐब ऐसा नहीं है जो खास तौर पर अछूतों के ही अंदर हो। अपने को ऊँचा समझने वाले हम हिन्दुओं का अभियान ही हमें अपने दोषों के प्रति अंधा बना देता है तथा हमारे दलित और पीड़ित भाइयों के दोषों को राई का पहाड़ बनाकर दिखाता है, जिन्हें हम सदियों से दबाये चले आये हैं और आज जिनकी गर्दन पर हम सवार रहते हैं। भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की तरह भिन्न-भिन्न धर्म भी इस वक्त कसौटी पर चढ़ाये जा रहे हैं। ईश्वरीय अनुग्रह और प्रकाश का ठेका किसी एक जाति या राष्ट्र का नहीं है। वे बिना किसी भेदभाव के उन सब शब्दों को प्राप्त होते हैं जो ईश्वर की भक्ति और आराधना करते हैं। उस जाति और उस धर्म का नामोनिशान इस दुनिया से मिटे बिना नहीं रहेगा, जो अन्याय, असत्य और हिंसा पर श्रद्धा रखता है। ईश्वर प्रकाश है, अन्धकार नहीं। ईश्वर प्रेम है घृणा नहीं, ईश्वर सत्य है असत्य नहीं। एक ईश्वर महान है। हम उसके बन्दे, उसकी चरण रज हैं। आओ, हम सब नम्र बनें और ईश्वर के छोटे से छोटे प्राणी के भी इस दुनिया में जीने के हक को मान लें। श्री कृष्ण ने फटे-पुराने चिथड़े पहने हुये सुदामा का स्वागत सत्कार किया, जैसे उन्होंने और किसी का नही किया। प्रेम धर्म का मूल है। गोस्वामी तुलसीदास का कथन है - ‘‘दया धर्म का मूल है। पाप मूल अभिमान।’’ (हिन्दी नवजीवन-26-12-1924, पृ. 157)। धर्म और ईश्वर के इस पहरे के कारण गाँधी के अस्पृश्यता निवारण कार्य पर ग्रहण लगना स्वाभाविक था और यह सत्य है कि वे सनातन पोंगापंथियों को असंतुष्ट नहीं करना चाहते थे।
अगस्त 1932 के मैकडोनल्ड अथवा साम्प्रदायिक पंचाट में जिन वर्गों और हितों को अल्पमत में स्वीकार किया गया उनमें दलित वर्ग और पिछड़ी जातियाँ थी। यह महान कार्य अस्पृश्यों के नेता डा0 बाबा साहब अम्बेडकर के सतत प्रयास का भली फूल था, जिसके तहत दलित वर्गों को पृथक निर्वाचन और निर्वाचित स्थान देने के अतिरिक्त साधारण निर्वाचन में भी उन्हें एक अतिरिक्त मत देने का अधिकार दिया गया था। गाँधी जी ने इसका विरोध किया और तर्क दिया कि इससे हिन्दुओं में स्थाई फूट और हिन्दू समाज में विघटन को प्रोत्साहन मिलेगा तथा अस्पृश्यता की बीमारी सदा के लिये भारत में जड़ें जमा लेंगी। गाँधी ने अनशन किया और अस्पृश्यों के लिये पृथक निर्वाचन क्षेत्र नहीं होने दिया। यहाँ हमारा कहना सिर्फ इतना है कि केवल कोई कार्य करने और भाषण वीर बनने से सम्पन्न नहीं हो जाता उसको अमल में लाने के लिये हमें कानूनी ताकत चाहिये और शक्ति ही (कानून) सफलता का अन्तिम निष्कर्ष होती है।
इसी तरह गाँधी ने अस्पृश्यों को धार्मिक स्थानों, मन्दिरों में प्रवेश के लिये कभी सार्वजनिक रूप से माँग नहीं रखी क्योंकि उन्हें भय शायद यह था कि यदि वह ऐसी माँग करते हैं तो वे सवर्ण हिन्दुओं के द्वारा प्रतिबन्धित कर दिये जायेंगे। इसलिये उन्होंने बीच का मार्ग अपनाकर यह कहा कि मन्दिर प्रवेश के लिये अस्पृश्यों द्वारा आन्दोलन करने के बदले स्पृश्यों को ही अपना एक कत्र्तव्य समझकर यह कार्य करना चाहिये अर्थात् गाँधी अस्पृश्यों के लिये दरवाजा तो खोलते है परन्तु अन्दर आने की बात नही करते हैं। सामाजिक समानता एवं राष्ट्रीय एकात्मकता को बरकरार रखने के लिये कभी भी, किसी भी समाज में विजातीय रोटी-बेटी का व्यवहार उसको आगे ले जाता है। पश्चिम का समाज आज इसलिये हमसे आगे हैं कि वह अपने समाज में सबको समान रूप से समाहित कर लेता है। गाँधी ने इस महत्वपूर्ण यक्ष प्रश्न को गहराई से नहीं लिया, उन्हीं के शब्दों में-‘‘मुझे लगता है कि सहभोजन और अन्तरजातीय विवाह की अस्पृश्यता निवारण के लिये जरूरी नही है। मेरी वर्णाश्रम पर श्रद्धा है फिर भी मैं मेहतर के साथ खाना खाता हूँ। इतना ही हूँ कि मेरी योजना में अन्तरजातीय विवाह के लिये स्थान नहीं है।’’ (हरिजन (सा.) 23-9-1929, पृ. 11)। इसी तरह धर्म परिवर्तन सम्बन्धी अपनी आस्था में गान्धी कटघरे (सनातन हिन्दुत्व) में खड़े नजर आते हैं। डा0 बाबा साहब के अनुसार-‘‘यदि धर्म हमें समाज में समानता एवं सम्मान नहीं दे सकता है तो दलितों को उस (हिन्दू) धर्म को बदल ही क्यों नही देना चाहिये।’’ यह बात बाबा साहब ने सन् 1935 ई. में कही परन्तु गाँधी जी ने इसका भी विरोध किया, क्योंकि गाँधी जी की धर्म विषयक मान्यता पारलौकिक थी। आपके अनुसार-‘धर्म कोई घर या कोट नहीं है कि जो अपनी इच्छा से बदल दिया जाये। अपनी देह से भी बढ़कर धर्म अपना अविभाज्य हिस्सा है, मानव और उसका स्रष्टा इनका सम्बन्ध जोड़ने वाला धागा धर्म है।’’ (हरिजन, (सा.) 23-9-1929, पृ. 113)।
यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि गाँधी चिंतन और आदर्श नैसर्गिक नियमों और शाश्वत मूल्यों पर आधारित हैं और हम कही भी कतई उनकी नियति पर प्रश्न चिन्ह नही लगा रहे हैं। अपने वास्तविक जीवन में उन्होंने हरिजनोत्थान (दलितोत्थान) एवं अस्पृश्यों के लिये बहुत महत्वपूर्ण कार्य किये परन्तु सामाजिक ढाँचा को बदलने के लिये अकेले गाँधी पर्याप्त नहीं थे क्योंकि गान्धी किसी को नाराज नहीं करना चाहते थे उन्हें सब वर्गों को खुश करके (राजनीतिज्ञता झलकती है) स्वराज्य प्राप्त करने की अपनी इच्छा को प्रदर्शित भी नहीं करना था। हमारी यहाँ व्यक्तिगत सोच यह है कि शायद सनातन हिन्दुओं को धर्म और ईश्वर का झुनझुना देकर एवं दलितों को अस्पृश्यता का शिगूफा देकर वे दोनों लोगों (वर्गों) को खुश करने का प्रयत्न कर रहे थे यानी बीच-बीच में अपने विचारों को मोड़कर मध्य वर्ग अपनाते रहे। दो नावों के बीच पैर रखना अति दुर्लभ कार्य है। खतरे की घण्टी है। हमें सिंगल विचारक चाहिये जिसकी नीति एवं नियत स्पष्ट हो हालांकि ऐसे विचारक को तत्कालीन समाज स्वीकार नही करता (डा0 भीमराव अम्बेडकर) पर देर सबेर सत्य को पहचानने में समाज कोताही नही करता है।
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प्रवक्ता - हिन्दी विभाग
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई-जालौन

सत्य की जीत

कहानी ====== मार्च - जून 06
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सत्य की जीत
उषा सक्सेना
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बुन्देलखण्ड में एक राजा अपने राज्य में तालाब के किनारे हर वर्ष मेला लगवाते थे। उससे जो भी धन आता था उसे प्रजा के कल्याण के लिये खर्च कर देते थे। उनका एक नियम था यदि रात तक किसी दुकानदार का माल नहीं बिकता था तो उसे स्वयं खरीद लेते थे जिससे उसकी हानि न हो। उस मेले में दूर-दूर से लोग आया करते थे और सुंदर-सुंदर वस्तुयें खरीद कर ले जाते थे।
एक बार एक शिल्पकार मेले में आया। वह बहुत ही सुंदर मूर्ति बनाकर लाया था। संगमरमर की बनी हुई यह मूर्ति इतनी सुंदर थी कि दर्शकों का बरबस ही मन उस ओर आकृष्ट हो जाता था। कलाकार ने एक-एक अंग तराश-तराश कर बनाया था। मूर्ति इतनी सजीव लगती थी जैसे अभी ही बोल उठेगी। सभी उसे खरीदने की लालसा से आते, किन्तु मूल्य सुनकर हट जाते। उसका मूल्य था सोने के एक लाख टके। एक तो मूर्ति मंहगी थी दूसरे मूर्तिकार ने उस मूर्ति का नाम रखा था-‘‘दलिद्दर देवता।’’ कुछ लोग नाम से ही भड़क उठते थे। यह समाचार राजा तक पहुँचा कि मेले में एक मूर्ति बहुत सुन्दर आई है, किन्तु उसका कोई ग्राहक नहीं है। मूर्तिकार उदास बैठा है। राजा बहुत ही संवेदनशील था। उसके राज्य से कोई निराश होकर लौट जाए इस बात की वह कल्पना भी नहीं कर सकता था। वह तुरन्त ही घोड़े पर बैठकर मेले में जा पहुँचा। राजा ने ठीक ही सुना था। मेला उठ चुका था। वहाँ बस वही एक मूर्तिकार न जाने किस आशा में अभी बैठा हुआ था। राजा ने मूर्तिकार से प्रश्न किया।
सुनो क्या नाम है तुम्हारा ? कहाँ से आए हो ? तुम्हारी मूर्ति में ऐसी कौन-सी विशेषता है जो उसका दाम सोने के एक लाख टके हैं और तुमने अपनी मूर्ति का क्या नाम रखा है ? किसकी मूर्ति है यह ?
मूर्तिकार ने कहा-‘‘महाराज हमें कमंगर कहते हैं। आपका नाम सुनकर ही हम मेले में आये हैं। मेरी मूर्ति देखने में जितनी सुन्दर है उतनी अशुभ भी है। मैंने इसका नाम दलिद्दर देवता रखा है। यदि कोई इसे ले लेगा तो उसका सुख, सम्पत्ति, वैभव यश ऐश्वर्य सभी कुछ नष्ट हो जायेगा।’’
राजा को मूर्तिकार की सभी बातें विचित्र-सी लग रही थीं। उसने मूर्ति का आवरण हटा कर देखा तो दंग रह गया। वास्तव में कलाकार ने बड़ी ही मेहनत से तराश कर मूर्ति गढ़ी थी। एक-एक अंग साँचे में ढला हुआ था। बिल्कुल सजीव सी लगती थी। कलाप्रेमी राजा मूर्ति देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। उसके शब्द मौन हो गये। थोड़ी देर बाद वह बोला -
मूर्ति बड़ी ही सुंदर है। कितने दिनों की मेहनत है।
महाराज बहुत वर्षों में यह मूर्ति बना पाया हूँ। बड़ा परिश्रम किया है मैंने। इसीलिये इसका मूल्य इतना अधिक रखा है। मैं जानता था आप कला प्रेमी और दयालु हैं। ये मूर्ति आप ही खरीदेंगे, इसी विश्वास के साथ मैं यहाँ आया था।
ठीक है-कोषाध्यक्ष जी इसे मूर्ति का मूल्य दे दीजिये और मूर्ति को राजमहल में पहुँचवा दीजिये। राजा के आदेश का पालन हुआ और मूर्तिकार अत्याधिक प्रसन्न होकर अपने गाँव लौट गया। राजमहल पहुँचते ही मूर्ति ने अपना रंग दिखाना शुरू किया। सबसे पहले तो राजा के दरबारी, सेवक और प्रियजन राज्य छोड़कर चले गये। उसके उपरान्त न्याय ने अपनी राह ली और धर्म पाताल लोक में चला गया। ऐसी स्थिति में लक्ष्मी जी भी घबरा गई। जिस राज्य में न्याय, धर्म, स्नेह, आदर, सत्कार, आस्था, विश्वास सभी कुछ समाप्त हो गया हो वहाँ लक्ष्मी का वास कैसे हो सकता था। लक्ष्मी तो स्वभावतः ही चंचल होती है, उसने राजा से विनम्रता से कहा-
महाराज आपने इस मूर्ति को खरीद कर राज्य में रखा जिसके कारण राज्य में सब कुछ विनष्ट हो गया है। इसे महल से निकाल दीजिये महाराज अन्यथा मैं भी आपके राज्य से चली जाऊँगी।
लक्ष्मी की बात सुनकर महाराज चिन्ता से भर उठे। वे सोचने लगे-‘‘इस मूर्ति के कारण प्रजा मुझसे रूठ गई-न्याय और धर्म ने अपनी राह ली और अब राजलक्ष्मी भी रूठकर जाना चाहती हैं। क्या यह मूर्ति वास्तव में अशुभ है ? मैंने तो अपने धर्म का निर्वाह किया है कि जो वस्तु मेले में बच जाए तो मैं खरीद लूँ जिससे किसी व्यक्ति का हृदय न दुखी हो। क्या करूँ मैं ? राजा बड़ी उलझन में पड़ गया। फिर वह अन्तःपुर में गया यह सोचकर कि महारानी कोई-न-कोई हल अवश्य निकालेंगी क्योंकि वे बड़ी ही समझदार हैं। महाराज को असमय ही महल में आया देखकर रानी व्याकुल हो उठीं। उन्होंने महाराज को इतना उदास कभी नहीं देखा था। उन्होंने पूछा -
‘‘क्या बात है राजन ? आपके मुख पर उदासी के बादल कैसे ? मुझे बताइये शायद मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।’’
राजा ने सारी बातें विस्तार से महारानी को बताई। महारानी स्वयं सती-साध्वी, पतिव्रता स्त्री थीं। उन्होंने कहा -
महाराज आप सत्यनिष्ठ हैं। सत्य पथ पर आजीवन चलते आये हैं। आप एकनिष्ठ होकर उसी पथ पर चलते रहें। लक्ष्मी तो सत्य की दासी के सदृश हैं। वे स्वयं ही आपके पास आ जायेंगी। रानी की बातें सुनकर राजा के मन में आशा की किरण फूटी, किन्तु उसी समय सत्य ने आकर कहा -
हे राजन ! इस राज्य में अब कुछ नहीं बचा। अब तो लक्ष्मी भी चली गईं। मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगा-मैं भी आपसे आज्ञा लेने आया हूँ।’’
सत्य की बात सुनकर राजा को बहुत दुख हुआ। सत्य के मार्ग पर चलने के लिये ही उन्होंने सब कुछ खो दिया था। वे किसी भी मूल्य पर अपने वचन से नहीं हट सके थे। इसी कारण सबने उन्हें छोड़ दिया था। उन्हें लगा कि जैसे उनके धैर्य का बाँध अब टूट जायेगा। उन्होंने दुखी होकर कहा -
हे सत्य ! तुम्हारे पथ पर चलने के लिये ही मैंने अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह किया जिसके कारण सभी ने मुझे और राज्य को छोड़ दिया। अब तुम भी मुझसे नाता तोड़ना चाहते हो-फिर मैं ही जी कर क्या करूँगा। भविष्य में कोई सत्य के मार्ग को नहीं अपनायेगा यही दुख है।
राजा की बातें सुनकर सत्य का हृदय पसीज गया। सोचने लगा-सत्य के कारण सत्यवादी हरिश्चन्द्र को न जाने कितनी यातनाएँ सहनी पड़ी थीं और अब यह सत्यवादी राजा ? इसने भी मेरे कारण सबको त्याग दिया और मैं ही इसे छोड़कर जाने का मन बना बैठा। यह तो इस राजा के साथ घोर अन्याय होगा। मैं इसे छोड़कर नहीं जाऊँगा। यदि मुझसे न्याय, लक्ष्मी और धर्म को स्नेह होगा तो वे भी राज्य में फिर लौट आयेंगे।
सत्य ने राजा से कहा -
‘‘धन्य हैं राजन ! आपने जो प्रण ठाना उसका मन, वचन, कर्म से निर्वाह किया। आप कभी सदपथ से नहीं डिगे। मैं आपको छोड़कर कभी नहीं जाऊँगा। अन्यथा पृथ्वी पर असत्य का ही बोलबाला हो जायेगा। सत्य की बात जब लक्ष्मी, न्याय और धर्म को ज्ञात हुई तो वे सब भी पश्चाताप से भर उठे और वे राज्य में वापस लौट आये कभी न जाने के लिये। सत्य की विजय हुई और इस प्रकार सत्यवादी राजा के दरबार में एक बार फिर राज्य सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य से भर उठा। राजा प्रजा में और लोकप्रिय हो गया और सब उसे देवता की तरह पूजने लगे।
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6 इच्छा भवन, पानदरीबा चैराहा चारबाग, लखनऊ-226004

बस अब और नहीं

कहानी ======= मार्च - जून 06
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बस अब और नहीं .....
डा0 अलका पुरवार
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‘‘चैप्टर मस्ट बी क्लोज्ड’’, कहने के साथ ही प्रणय ने बात खत्म करनी चाही। वाक्य छोटा था पर प्रिया की आशाओं और अरमानों पर तो जैसे तुषारापात ही कर गया, फिर भी उसने हिम्मत करके कहा, क्या आज की शाम तुम मेरे नाम कर सकते हो, बस आखिरी शाम .....’’ ? ‘‘ठीक है’’, प्रणय ने कुछ अनमने भाव से कहा।
शाम आने से पहले प्रिया सारे दिन सोचती रही लेकिन शायद स्त्री संकोच उसे प्रणय कर दबाव डालने से रोकता रहा। यूँ दिल तो बहुत चाह रहा था प्रणय से उस वाक्य को वापस लेने के आग्रह करने का फिर यह सोचकर कि प्रेम दबाव का नहीं बल्कि स्वाभाविकता और सहजता का नाम है, उसने अपनी भावनाओं के ज्वार को दबाना ही ठीक समझा। हालांकि उसके अन्तस से आवाज आ रही थी विद्रोह की; प्रणय को खरी-खोटी सुनाने की लेकिन अपनी इच्छाओं को परे धकेल कर वह शाम का इन्तजार करने लगी।
अन्ततः प्रिया ने अपनी सारी भावनाओं, इच्छाओं व आशाओं का गला घोंटते हुये प्रणय को दोस्त रूप में मिलने का निर्णय किया, जिसमें वह प्रेयसी के रूप में अपना अधिकार जमाने नहीं बल्कि एक सहपाठिनी के रूप में अधिकार जताने वाली थी। सुपर मार्केट की ‘बुक-वार्म’ दुकान में निगाहें दौड़ाते, उसने सामने से आते हुये प्रणय को देखकर हाथ हिलाया। प्रणय कितने दबाव में है बल्कि कुछ सहमा सा भी, इसका अंदाज उसके चेहरे से ही लगा लिया था प्रिया ने। लेकिन रेस्तरां में प्रिया को उसी पुराने उन्मुक्त व अल्हड़ मूड में देखकर प्रणय थोड़ी ही देर में काफी सहज हो चुका था। सुबह के तनाव का हल्का सा चिन्ह भी उसे प्रिया के चेहरे पर नहीं दिखाई दे रहा था और उधर प्रिया, वह अपनी जिन्दगी की इस सबसे ‘खास’ शाम को शायद पूरी तरह जी लेना चाहती थी इसलिये बिना वक्त बरबाद किये उसने पूछा, ‘‘क्या खिलाने जा रहे हो आज ?’’ प्रणय ने उत्साहित होकर कहा, ‘‘पूरी साल एक भी ट्रीट न देने के कारण बैच में तुमने मुझे कंजूस की जो उपाधि दी थी, आज मैं उस लेबिल को हटाना चाहता हूँ इसलिये तुम आज जी भरकर आर्डर करना।’’ ‘‘अच्छा’’ कहते हुये वह खिलखिला कर हँस पड़ी। ‘‘तो ठीक है, पनीर कटलेट, बेजीटेबिल बर्गर, मटन चाप और हाँ कसाटा मँगाना मत भूलना।’’
‘‘हाँ, वो सुबह तुम क्या कह रही थी ?’’ प्रणय ने जैसे अनिच्छा से पूछा। ‘‘मैं ...... कुछ खास नहीं ..............’’, प्रिया ने जानबूझकर बात अधूरी छोड़ी लेकिन प्रणय ने भी मानो बात टालने की गरज से प्रिया द्वारा खरीदे उपन्यास को उठाया और उपन्यास का शीर्षक नो रूम फार लोनलीनेस देखकर एक गहरी साँस छोड़ी। प्रिया ने कनखियों से उसे तनाव मुक्त होते देखकर अपने दिल पर बोझ सा महसूस किया। शायद उपन्यास के शीर्षक ने उसे प्रिया के अकेलेपन का अहसास न होने दिया या उसने जरूरत ही न समझी। आज भी उस शाम की याद जेहन में आते ही प्रिया बहुत अकेलापन महसूस करती है। ठगे जाने का एक अहसास जिसे वह कभी किसी को नहीं बता पाई लेकिन साथ में एक सुकून भी था कि प्रणय ने अगर प्रेम का रिश्ता नहीं निभा पाया तो क्या, उसने स्वयं दोस्ती का फर्ज बखूबी निभाया।
घर लौटते समय अँधेरा घिरने को था लेकिन बाहर के अंधेरे से गहरा था उसके मन का अंधेरा। कमरे में पहुँचकर निढाल होकर वह बिस्तर पर गिर पड़ी। सब कुछ खत्म हो चुका था, जिन्दगी बेमायने हो चुकी थी। उसकी दुनिया में प्यार की शमा जलने से पहले ही बुझ चुकी थी। आँखों से अविरल गिरते आँसुओं के बीच कब वह अतीत के ख्यालों में डूब गई उसे पता ही न चला।
अभी दो महीने पहले की ही तो बात थी जब पहली दफा उसने ‘प्यार’ शब्द को जाना था और आज यह शब्द अपना अर्थ खो चुका था। उसे अच्छी तरह याद है वह दिन जब पहली बार प्रणय ने उसका ‘प्यार’ शब्द से परिचय कराया था। उस दिन भी बहुत रोई थी वह, शायद खुशी की अधिकता से या अपनी विवशता के पूर्वाभास से। विश्वास नहीं हो रहा था उसे अपने ऊपर, बार-बार शीशे में निहारते हुये उसे अपने चेहरे पर गर्व-मिश्रित संतोष की रेखा चमकती दिख जाती थी क्योंकि यह प्रणय-निवेदन उसे मिला था उसके सबसे प्रिय दोस्त एवं पूरे बैच की जान, हँसमुख, वाचाल, स्मार्ट या यूँ कहें कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व की तरफ से। जिसकी वह कुछ हद तक प्रशंसक भी रही है। आज फिर वह रो रही है। क्या प्यार पाने और खोने दोनों ही स्थितियों में स्त्री को सिर्फ रोना ही है ? आखिर क्यों ? क्या प्यारे करने या न करने का एकाधिकार सिर्फ पुरुष के ही पास है ? क्यों इतना कमजोर एवं असहाय हो गई है वह ? अपनी सहेलियों के बीच ‘बोल्ड’ व उन्मुक्त रूप में प्रसिद्ध वह व्यक्तिगत जिन्दगी में इतनी कमजोर होगी, उसने कभी कल्पना भी न की थी।
यूँ प्रणय और उसके बीच सत्र के शुरूआत से ही छोटी-छोटी चिटों व ग्रीटिंग्स का आदान-प्रदान होता रहा था जिसमें एक दूसरे को ‘बेवकूफ’ साबित करना ही जैसे दोनों का एकमात्र उद्देश्य था। साथ ही सबके सामने परस्पर चिढ़ाना, मजाक बनाना तथा खिंचाई करना, रोज का आवश्यक कार्य था लेकिन प्रिया ने इस वाक्युद्ध को कभी भी दोस्ती से ज्यादा कुछ न समझा। इसी दौरान प्रणय का चयन बिजनेस मैनेजमेंट कोर्स के लिये हो गया। चयन की खुशी में आयोजित पार्टी वाली सुबह दिये एक ग्रीटिंग में जब प्रिया ने प्रणय का मित्रता से हटकर कुछ अलग संदेश देखा तो उसे सहसा विश्वास न हुआ। उसने इसे भी प्रणय के मजाक का एक हिस्सा समझा। सारे दिन असमंजस में रहने के बाद जब शाम को वह अपने धड़कते दिल को मुश्किल से सँभाले हुये पार्टी में पहुँची तो सहपाठियों द्वारा लगातार टोकने पर भी वह हमेशा की तरह सहज न हो पाई थी। प्यार का प्रथम अहसास इतना शक्तिशाली होगा कि वह इतनी भीड़ में भी जैसे एकदम अकेली हो जायेगी, उसने कभी सोचा भी न था। उसकी आँखे कुछ नहीं देख पा रही थी, सिवाये प्रणय के और वह ग्रीटिंग में लिखी पंक्तियों का अर्थ प्रणय की आँखों में ढूँढ़ रही थी। जबकि प्रणय था हमेशा की तरह चंचल, वाचाल व उन्मुक्त, कहीं कोई दबाव या तनाव का चिन्ह प्रिया को उसके चेहरे या व्यवहार में नही मिला और यही बात उसे अन्दर ही अन्दर सशंकित भी कर रही थी।
काउन्सलिंग के लिये शहर छोड़ने से पहले प्रणय ने उसे वह पत्र भी अन्ततः दे ही दिया जिसमें स्वभावानुसार उसने स्पष्ट रूप से मन की बातों का खुलासा करते हुये प्यार का इजहार भी किया था। उस लम्बे भावुक पत्र में पहली बार प्रणय ने गंभीरता से हर घटना व हर अनुभव का जिक्र विस्तार से किया था कि किस तरह प्रथम दिन के आकर्षण से शुरू हुआ यह सफर घनिष्ठ दोस्ती से होता हुआ आज प्यार के मुकाम तक आ पहुँचा था और अन्त में अधिकारपूर्वक उसने तीन-चार साल इन्तजार करने को कहा था। ‘इन्तजार’ यही तो वह कार्य था जो उसके लिये लगभग असंभव था कारण मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी संतान थी वह। यही क्या कम था कि कालेज की पढ़ाई के बाद उसे इस प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला लेने दिया गया वरना तो शायद उसे भी अब तक ससुराल पहुँचा दिया गया होता। शायद इसमें भी उसके दुर्भाग्य का साथ था, जो उसे आज प्यार के अहसास का अमूल्य तोहफा दे गया था। एक तो सामर्थ्य से ज्यादा दहेज की माँग, दूसरे साधारण रूप रंग की वजह से कितने ही परिवारों द्वारा उसे अस्वीकृत किया गया था। इसके अलावा पैरों के नीचे कोई आर्थिक या व्यवसायिक आधार न होने पर भी परिवार के निरन्तर प्रयासों के बीच किसी तरह से वह अपना कोर्स पूरा कर पा रही थी। इन जटिल परिस्थितियों में प्रणय के ‘इंतजार’ का आग्रह उसके लिये असंभव था हालांकि यह प्रणय-निवेदन उसके लिये रेगिस्तान की बारिश की तरह अमूल्य एवं अप्रत्याशित था। प्रणय ने लौटकर जबाव माँगा था और वह चला गया। इसी बीच प्रिया, वह तो जैसे बाबली हुई जा रही थी; उसकी तो जैसे दुनिया ही बदल गई थी। एक बार सिर्फ एक बार उसके कान प्रणय से प्रत्यक्ष प्यार का इजहार सुनना चाहते थे कि हाँ, वह भी किसी का प्यार है, वह भी किसी की जरूरत है, यह दुनिया उसके अरमानों की भी है, कोई उसे भी चाहता है। कितना खूबसूरत है यह अहसास उसे अब समझ आ रहा था। कई जगह उसके रिश्ते को ठुकराए जाने के बाद वह जिस अग्नि में जल रही थी आज जैसे उस तप्त हृदय को बर्फ सी शीतलता महसूस हो रही थी। आत्मसंतुष्टि का भाव वास्तव में उसे आत्ममुग्धता की ओर लिये जा रहा था जहाँ एक नई दुनियाँ बाँहें फैलाकर उसका इन्तजार कर रही थी। उसे लगा जैसे उसे भी बहुत कुछ कहना है प्रणय से। वे अनुभूतियाँ जिन्हें वह अब महसूस कर रही थी लेकिन कैसे कहे, उसका मीत तो उससे बहुत दूर था। कई दफा आशंका ग्रस्त उसका हृदय रोना ही शुरू कर देता था कि हे भगवान क्या होगा ? क्या यह सच है ? क्या यह संभव है मेरे साथ ? आखिरकार उसकी आशंका उसकी इच्छाओं पर भारी पड़ी और भगवान ने उसका साथ छोड़ दिया। जब प्रणय वापिस लौटा तो प्रिया के द्वारा उस पत्र का जिक्र होने पर उसने यह छोटा सा वाक्य कि, ‘प्रिया आई थिंक, चैप्टर मस्ट बी क्लोज्ड’, कहकर अपनी तरफ से शुरू हुये प्यार को अपनी तरफ से ही खत्म कर दिया। वाह री, पितृसत्तात्मक सत्ता! स्त्री की भावनाओं, प्रतिक्रियाओं, विचारों और राय की कोई आवश्यकता नहीं।
आज वह किस दोराहे पर खड़ी हो गई है। इससे तो अच्छा होता यह प्रेम का इजहार ही न हुआ होता कम से कम जिन्दगी के मायने यूँ तो न बदले होते। सहज जिन्दगी अब कितनी असहज हो गई थी, वही कालेज, वही मित्र-मंडली सब कुछ वही था लेकिन उसके लिये सब कुछ बेरौनक हो गया था। प्रणय के मुताबिक इस प्यार का अहसास उसे कालेज में प्रवेश के प्रथम दिन के साथ हुआ जिसे उसने हर रोज जिया था। बेचारी प्रिया, पहले तो उसे इसका आभास ही न हुआ और जब हुआ तो ‘चैप्टर’ बंद करने के फरमान के साथ। ‘क्या स्त्री की नियति सिर्फ पुरुष की मर्जी पर है ? प्यार करना या न करना इसके सर्वाधिकार सिर्फ पुरुषों के साथ ही सुरक्षित हैं ? क्या प्यार का ‘चैप्टर’ खोलना और बंद करना उन्हीं की इच्छा पर निर्भर है ?’ जितना विद्रोह था उसके मन में उतनी ही आहत भी थी वह। शायद ‘सहना’ ही नारी की नियति है। सहिष्णुता जो स्त्री का सबसे बड़ा गुण है आज उसे कमजोर बना रहा था। आखिर किसने दिया पुरुष को यह अधिकार कि जिन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण ‘चैप्टर’ उसकी मर्जी के मुताबिक खुले और बंद हो ? सोचते-सोचते कब उसकी आँख लग गई पता ही न चला। जब आँख खुली तो देखा रात खामोशी का आँचल ओढ़कर अपने पथ पर अडिगता से बढ़ती जा रही थी। सितारों के साथ चारों ओर सन्नाटा-खामोशी सी छा गयी थी। वह सोच रही थी यह खामोश, उदास समां कितना अपना सा लगता है ठीक उसकी जिन्दगी की तरह-दर्द, उदासी, खामोशी और वीरानियों से भरा। इंसान भावनाओं से क्यों हार जाता है ...... ? किसलिये टूट जाता है ?
‘नहीं यह मेरी नियति नहीं हो सकती, मैं इतनी कमजोर नहीं जो जिन्दगी के इस नाजुक क्षण में अपने को यूँ बिखरने दूँ’, अन्तर्मन से उठी इस हल्की प्रतिरोधात्मक आवाज को उसने सुनने का प्रयास किया। ‘आखिर कब तक पुरुष-प्रधान इस समाज में स्त्री खुद की बागडोर उनके हाथों में सौंपकर शोषित होती रहेगी ? कभी दहेज की माँग पूरी न होने पर रिश्ता ठुकराए जाने के रूप में और कभी मानसिक व भावनात्मक रूप से कमजोर बनाकर, कब तक .....? नहीं, कम से कम मुझे तो नहीं शिकार होना है इस व्यवस्था का।’ दृढ़-निश्चय के साथ उसने सिर को झटका दिया। ‘भावनाओं को परे ढकेलना ही होगा उसे आज, अभी, इस वक्त, वरना कल तो देर हो जायेगी।’ सोचते हुये उसने सुदूर आसमान में फिर से ताका तो वही अँधेरा अब निश्छल चाँदनी में तब्दील हो चुका था। रात की बोझिलता व नीरवता अब एक खास स्निग्धता व कोमलता में बदल चुकी थी। यह प्रकृति का व्यक्ति के साथ अद्भुत संयोजन था या उसके बदले विचारों का प्रभाव। कुछ तो था जो उसे अब महसूस हो रहा था। ठीक उसके सामने का चमचमाता हुआ धु्रव तारा-अटल, स्थिर। उसके चेहरे पर खुद-व-खुद हल्की मुस्कराहट तैर गयी और उसने अपने बोझिल दिल को बोझमुक्त, तनावमुक्त होते महसूस किया। एक विशिष्ट शान्ति के साथ वह सोने चली गई।

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विभागाध्यक्ष अंग्रेजी
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई (जालौन)

सुरसती बुआ

कहानी मार्च - जून 06
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सुरसती बुआ
डा0 विद्या विन्दु सिंह
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सुरसती बुआ देखने में सामान्य स्त्री जैसी थीं। दाँत थोड़े बड़े, रंग साँवला, आँखें छोटी। पर उनके चेहरे पर कुछ ऐसा था कि उन्हें असंदर नहीं कहा जा सकता था। कद काठी लंबी थी।
वह चबूतरे पर बैठी थीं। गाँव में कई औरतें उनके सामने हाथ जोड़े बैठी थीं। वे रह-रहकर काँप रही थीं। जालपा माई उनके सिर आ गयी थीं। लल्लन बहू उनके पैर पर गिर कर घिघिया उठीं - माई ! हमरे छोटकी क एक बेटवा दैद्या। माता ! तुहार चैरा लीपब। तुहैं हरदी क धार, पियरी, कराही चढ़ाइब।
सुरसती बुआ जोर-जोर से झूमने लगी थीं। झूमते-झूमते हुंकार कर उठी-नइहरे क बरम आय बा, उहै रोके है रास्ता।
लल्लन बहू अँचरा पसार कर बोली - ‘‘उपाय बतावा महतारी ! जौन कहा तौन करी। उनका काँपना और बढ़ गया। अब वे कमर से लेकर सिर तक का हिस्सा वृत्ताकार घुमा रही थीं। उनकी आँखों में खून उतर आया था। वे किसी को डांट रही थीं - छोड़ दे इसे, छोड़ दे इसे। नहीं तो मैं तेरा खून पी जाऊँगी। जा ! जहाँ से आया है वहीं लौट जा। यहाँ मेरा चैरा है। इस सिवान में आगे कदम मत रखना। फिर जोर-जोर से हँसने लगी - खून चाहिये तुझे खून, अच्छा ले, चख ले। पर फिर इधर घूमकर मत देखना। कहकर उन्हाने सरपत से अपनी उँगली चीर ली और खून की बूँद वहीं धरती पर गिरा दी।
छोटकी की ओर करूणा की दृष्टि से देखकर बोलीं - जा अब गोद भरेगी। वह तुझे छोड़ गया। सभी स्त्रियाँ फिर से सुरसती बुआ के चरण छूने लगी थी। अब वे सँभल रही थीं। कुछ स्त्रियाँ निराश हो रही थीं। आज तो हम अपने बारे में कुछ पूछ-कह ही नहीं पाये। अब जाने कब माई फिर उनके सिर आये ?
मैं अपने बचपन से सुरसती बुआ को देखती आ रही थी। तब से जब वे पुष्ट देहयष्टि वाली युवती थीं। अब तो वे वृद्धा हो गयी थीं।

मैंने अपनी दादी से सुना था कि सुरसती बुआ ब्याह कर ससुराल गयीं तो कुछ ही सालों बाद लौटकर मायके आ गयीं। माँ-बाप साल भर के अंतर में ही मर गये। छोटा भाई अनाथ हो गया। उसे साथ ले गयीं। खेती-बारी, गाय-भैंस गाँव वालों के भरोसे छोड़ गयीं थीं। साल भर तो जल्दी-जल्दी आकर देखती रहीं।
एक बार आयीं तो देखा कि गाय-भैसें दुबरा (दुबली) गयीं हैं, और जिन्हें उनको सौंपकर आयीं थीं, उनका परिवार चिकना गया है। बरदौरी में माछी भिनक रही है। गाय भैसें उन्हें देखकर ऐसे रम्भाने लगीं जैसे ससुराल से लौटी बेटी माँ को देखकर विह्वल होकर रो पड़े।
वे गाय भैसों से गले लगकर रोती रहीं। बरदौरी में गोबर साफ किया। गाय भैसों को ले जाकर तालाब में नहलाया। सानी भूसा किया।
फिर अपने पिता के हाथ के लगाये बाग में गयीं। लगा जैसे पेड़ उदास हों। वह उनसे लिपट-लिपटकर रोती रहीं।
भाई को वापस साथ ले आयीं थीं। बाग में जब उन्हें ध्यान आया कि भाई भूखा होगा और थका भी, तब वह जल्दी-जल्दी घर लौटीं।
रसोई में गयीं तो देखा कि सभी हँडिया (घड़े) खाली हैं। दाल, चावल, आटा घर में कुछ नहीं। तेल, घी की मटकियाँ भी खाली हैं। उन्हें आश्चर्य हुआ कि वह तो सब कुछ भरा छोड़कर गयीं थीं। घर की चाभी वह इसलिये दे गयीं थीं कि घर में दिया-बत्ती, घर की सफाई होती रहेगी। गाय-भैंसे जो दूध देंगी, उसे जमाकर, मथकर, मक्खन खर (गरम) करके वे रख देंगे। मट्ठा दूध वे लोग खा लेंगे।
पर यहाँ तो देख रही थीं कि सारा सामान ही साफ हो गया है। घर में लग रहा था कि महीनों से झाडू नहीं लगी है।
उन लोगों ने छोटी सी बच्ची के हाथ चाभी भेज दी। उन्होंने जब उसकी माँ के बारे में पूछा तो वह बोली - उन्होंने कहा है कि बता देना माई बीमार है। सुरसती की समझ में आ गया, बीमारी का कारण। कैसे मुँह दिखाने का साहस करें। अबकी सुरसती बुआ अचानक आ गयी थीं।

‘अवधू’ यही नाम था छोटे भाई का, मुँह लटकाये गाँव से लौट रहा था। वह पुरवा भर में घूम कर आया था। किसी ने भी उसे कुछ खाने को नहीं पूछा था। सुरसती बुआ उसे बिठाकर डलिया लेकर खेत में गयीं। जाड़े के दिन थे। सोचा - मटर तोड़ लाऊँ और घुघरी बना दूँ। पर मटर का डाँठ जानवर खा गये थे। थोड़ा डाँठ जो बचा था उसकी फलियाँ तोड़ी जा चुकी थीं।
वे किसी तरह गुस्से पर काबू करके उनके घर गयीं। उनको देखते ही जैसे सबको साँप सूँघ गया।
वह कुछ बोलतीं उसके पहले ही उनकी काकी बोली उठीं - हमरे घरे तौ एक ओर से सब बोखार मा परा रहा, आजै सब उठा है। सुरसती बुआ ने दबी जुबान में कहा - न घर में आटा, दाल, तेल है और न खेत में मटरफली, अवधू भुखान है, का बनाई ? थोड़ा दूध दै द्या तौ उहै पिलाइ देई।
काकी कहरती हुई बोली - तोहार गैया भैंसी तो दूधौ देब बंद कइ दिही हैं। हमरी गइया क दूध लरिकनों क ना पूर परत है। थोड़ा आटा, दाल, चाउर देवाय देइत है, लिहे जा बनाय ल्या। उन्होंने अपनी बहू को आवाज लगाई।
सुरसती बुआ के सिर से पैर तक आग लग गयी। खून का घूँट पीकर रह गयीं। काकी की बहू रानी आवाज सुनकर भी नहीं आयीं थीं। वह उल्टे पाँव लौट पड़ीं।
बाहर निकलते ही पतरकी नटिनियाँ मिली - बुआ पाँय लागी। कहकर चरण छुआ और हाल-चाल पूछने को हुई तो उनका तमतमाया चेहरा देखकर सहम गयी। क्या बात है बुआ, कब आयीं ? उसकी संवेदना से वे विह्वल हो उठीं। उनकी आँखों में आँसू आ गये।
कुछ नाय भौजी ! अवधू भुखान है, घर मा कुछ नाय है, वही के लिये दूध लैवे आय रहे मुला .....
पतरकी सब समझ गयी। बोली - बुआ ! हम तो ठहरे नट बहुँचरिया। हमरे घर क त तू पानी न पीबू। मुला अवधू बबुआ तौ हमरी छेरी क दूध पी सकत हैं। चला आपन बरतन द्या हम वही मे दुहि के भेजित है।
उसने अपने लड़के को आवाज दी। अरे मिठुआ ! डलिया में छीमी (मटर फली) धारी है उठाइ कै बुआ के हियाँ पहुँचाइ दे। बुआ हमरे तो खेत-बारी नाय है, मुला कौनो चीज खाये क कमी नाय है। आज ठाकुर बाबा किहाँ से छीमी पायो है। आजु तू खाय ला, हम काल्हि लाय के खाय लेबै।
सुरसती बुआ के लाख मना करने पर भी वह उनके बरतन में दूध दुहकर दे आयी। मटरफली लाकर छील दिया। आलू भी अपने घर से लाकर छीलकर धोकर रख दिया। बुआ ने घुघरी बनाकर अवधू को खिलाया। पतरकी को दिया और खुद भी खाकर तृप्त होकर बोलीं - भौजी आज मालूम परा कि जाति, गोत, सगा सब कहै के हैं जो आपन दुःख-सुख समझै उहै आपन है।
पतरकी से उन्हाने गाँव का हाल-चाल पूछा। सब बताने के बाद पतरकी दबी जबान से बोली बुआ तोहार काका एक दिन कहत रहे कि हमैं अधिया पै दै देयँ तबै हम कराउब उनकै खेती बारी। हमरे यतना जाँगर फालतू नाय है कि अपनौ सम्भारी और मुफत माँ दुसरेव के। बुआ कुछ नहीं बोलीं। उनके माता पिता थे तो गाँव में ही एक जून का दूध चार पाँच घरों में बेच देते थे। और एक जून का घर वाले दूध-दही-मट्ठा खाते, घी बनाते, काम भर का रखकर, घी बेच भी लेते थे।

खेती भी बहुत ज्यादा नहीं तो इतनी तो थी ही कि साल भर आराम से खाकर बचा हुआ बेंच लेते। कपड़ा लत्ता, नमक-मसाला खरीदने से जो बच जाता उसे गाढ़े समय के लिये एक हँड़िया में रखकर जमीन के अंदर गाड़ देते थे। उसके ऊपर ऐसा लीप देते थे कि कोई पता नहीं लगा सकता था। खुद भी जगह पहचानने में भूल न हो इसलिये उसी के ऊपर छोटी चकिया रख दी जाती थी।
सुरसती बुआ की शादी में वह हँड़िया खोदकर उसमें से कुछ धन निकाल लिया गया था। और अबधू के लिये रखकर उसी तरह बंद करके लाल कपड़े से उसका मुँह बाँध दिया गया था और उसे गाड़ दिया गया था।
उसी दिन सुरसती बुआ की माँ ने बेटी को वह जगह दिखा दी थी। और कहा था बेटी अवधू अभी छोटा है। हमारे बुढ़ापे की औलाद है। हमें कुछ हो जाय तो उसका हिस्सा उसे सौंप देना। माँ ने यह भी कहा था कि किसी को यह बात बताना नहीं। अवधू को भी नहीं, अभी बच्चा है, किसी को बता देगा।
सुरसती बुआ, माता पिता दोनों के अंतिम क्षणों में आ नहीं सकी थीं। दोनो बार ही मृत्यु के बाद पहुँची।
अवधू अकेला बिलख रहा था उसने दीदी की गोद में सिर रखकर रोते हुये कहा था - माई कहतीं रहीं, दीदी से कह दिह्या चकिया देखि लेइहैं। कहते-कहते उनकी बोली बंद होइ गयी। जब अवधू बता रहा था उस समय काकी वहीं बैठी थीं। सुरसती पिता और फिर माँ के अकस्मात् चले जाने से इतनी विह्वल थीं कि उसे तुरन्त जाकर चकिया देखने की सुधि नहीं रही थी।
माँ का दाह करने लोग दिलासीगंज (सरयू नदी के तट पर एक स्थान) से लौटे तो रात हो गयी थी। दुःख से बेहाल भाई-बहन की रोते-रोते आँख लग गयी थी।
अचानक कुछ खटका हुआ तो सुरसती बुआ उठकर चारो ओर देखने लगीं। कोठरी में ताला लगा था। वे फिर आकर लेट गयीं। पूरा बदन यात्रा की थकान और दुःख से पोर-पोर दुख रहा था। सवेरे हल्ला सुनकर और अपने दरवाजे पर खटपट सुनकर उठीं। कोई उनका और अवधू का नाम लेकर बुलाते हुये दरवाजा खटखटा रहा था।
उन्होने बदहवास घबराती हुई उठकर किवाड़ खोले तो देखा दरवाजे पर भीड़ लगी है। उनकी चकिया वाली कोठरी की दीवार में सेंध कटी है। चकिया अलग पड़ी है। हँडिया का पता नहीं है।
सुरसती बुआ सिर थामकर बैठ गयीं। भाई का दुर्भाग्य उन्हें झकझोर गया था। मन पश्चाताप से भर गया था। वह माँ के विश्वास की रक्षा नहीं कर सकीं थीं।
भाई की संपत्ति जो बची है मैं उसे अधिया पर नहीं दूँगी। जमाना कितना खराब है। किसी के मन में पाप का डर रह नहीं गया है। अधिया पर दे दें तो धीरे-धीरे लोग पूरा हड़पने की कोशिश करेंगे।
पतरकी से अधिया पर देने की बात सुनकर और आज काका के परिवार का व्यवहार तथा अपना घर खाली देखकर उनके मन में अचानक सेंध की घटना कौंध गयी। काकी ही तो थीं उस समय जब अवधू उससे माँ की कही बात बता रहा था। अचानक उनके मन में जैसे रहस्य का पर्दा उठ गया। मैं भी कैसी मूर्ख हूँ। उन्हीं लोगों पर विश्वास करके उनके हाथ में घर-द्वार खेती-बारी गाय-गोरू सौंप गयी थी। हे भगवान ! मेरी मति मारी गयी थी। अच्छा हुआ आज उन्हीं लोगों ने चेता दिया। वरना बार-बार वह छली जाती रहतीं, अपनों के सम्बन्धों के नाम पर।

उसने पतरकी भौजी के जाते ही घर, खेत-पात और जानवरों की व्यवस्था शुरू की। चार दिन में घर चमक गया। गौशाला और गाय-भैंसे साफ सुथरी हो गयीं। लगा कि उनमें जीवन का संचार हो गया है। खेती-बारी का काम हरवाहे को बुलाकर साथ में लगकर पूरा किया। राशन पानी ठीक किया। अभी कुछ और काम बाकी था। और तभी ससुराल से देवर आ गया उन्हें ले जाने के लिये।
वह अवधू को छोड़कर जाना नहीं चाह रही थी। और उसे लेकर जाने पर यहाँ की व्यवस्था फिर पूर्ववत् बिगड़ जायेगी। वह रहेगा तो गाय भैंसों को चारा लाकर देगा। घर में दिया बत्ती कर लेगा। पर अभी वह अपना खाना बना नहीं पाता था। खायेगा कहाँ?
काकी के यहाँ अब सौंपने का उनका मन नहीं था। देवर को उन्होंने समझा बुझाकर विदा कर दिया था कि मैं पाँच छः दिन बाद अवधू को लेकर आ जाऊँगी। देवर मुँह लटकाये लौट गया।
वहाँ भी अभी वह अकेली बहू थीं। सास जी बहू के आने के बाद से चूल्हा चैकी से एकदम फुरसत पा गयीं थीं। बहू जाकर अपना मायका सम्भाले और वे घर बाहर खटें यह उन्हें नागवार गुजर रहा था।
छोटे बेटे को अकेले लौटा देखा और बहू का संदेश सुना तो एकदम आग-बबूला हो गयीं। हम बेटवा क बियाह किये हैं आपन घर सम्भारे बदे कि उनके नैहर सम्भारै कि खातिर। और आटी-पाटी लेकर पड़ गयीं।
बड़ा बेटा घर आया तो माँ को लेटा देखकर चिंतित हो गया। हाल-चाल पूछा तो छोटे भाई और माँ ने नमक मिर्च लगाकर बहू के न आने की बात कह डाली और कहा कि बहू ने कहा है कि मायके की गृहस्थी सम्भाल लूँगी तभी आऊँगी।
माँ ने बेटे को उकसाना शुरू किया। जाने का देखे तोहार बाप जवन ई रिश्ता मंजूर कर लिहिन। न सूरत न सीरत, कंगाले की बिटिया दान दहेज ना मिला त सोचेन की चला कामकाजी होई। मुला अब वै नैहर सम्भरिहैं त हमरे बूता नाय बा इहाँ खटै कै। चार पाँच दिन माँ न आवैं त हम दूसर वियाह करि लेब तुहार। हमार मामा अपनी पोती क रिश्ता करै के खातिर इहाँ गोड़ घिसि डारिन, मुला तोहरे बाप के आगे हमार एकौ ना चली। ऊ बिटिया कै रूप देखा तौ तोहार आँख चैधियाय जाय। हमारा मामा धन-दौलत से घर पाट दिहे होतिन। ओकर बियाह ना भय बा। आठ दिन तक उनके राहि देखब न आयीं तौ हम बियाह कै लेब। इस समय सुरसती के सुसर सिंगापुर चले गये थे। सास के वही मामा वहाँ रहते थे। आये थे तौ पैसों का लालच दिलाया। ससुर नहीं जाना चाह रहे थे। पर सास ने उन्हें जबरन भेज दिया। वे अभी एक साल तक तो आने से रहे इसी बीच सास यह गुल खिला देना चाहती थी। उसे अकस्मात् एक मौका ऐसा मिल गया था जिससे वह चूकना नहीं चाहती थीं।

सुरसती बुआ को देखते ही उसे अपने मामा की पोती याद आ जाती। साथ ही मामा की सिंगापुर की कमाई हुई भारी-भरकम दहेज की रकम भी। मामा से गुपचुप उसने बात भी कर ली हो तो कोई ताज्जुब नहीं है।
शायद सुरसती बुआ के माँ-बाप के मरने के बाद ही उसके मन में यह योजना कुलबुलाने लगी थीं। सुरसती बुआ के पिता उनके ससुर के रिश्ते में भी थे और दोनों गहरे मित्र भी थे। इसीलिये लाख विरोध के बाद भी ससुर जी ने यह सम्बन्ध मान लिया था। वे सुरसती को अपनी बेटी की तरह मानते थे। और उनका यह दुलार ही सुरसती की सास की आँखों में काँटा बनकर कसकता था।
सुरसती बुआ के पति कुछ नहीं बोल सके। माता-पिता का दबदबा उस समय इतना था कि अपनी पत्नी और विवाह के बारे में मुँह खोलना बेशरमी मानी जाती थी।
उनके देवर को लौटकर गये आठ दिन बीत गये और बुआ वापस नहीं लौट सकीं। रात-दिन की मेहनत और मानसिक चिन्ताओं के कारण उन्हें बुखार आ गया। अपनी परवाह उन्हें उतनी नहीं थी।
पर अवधू को भी दूसरे दिन बुखार ने आ घेरा। उसे शीतला माई निकल आयीं। अपना बुखार झटककर वे उठ खड़ी हुई और भाई की सेवा में जुट गयीं। वे शीतला माई के लिये सवेरे नीम का चैरा लीपैं, हल्दी, लवंग, गुड़ का ढरकावन चढावैं। शीतलहा (चेचक का रोगी) के खटिया तरे लीपैं। नीम की टहनी से बयार करैं। रोज बिछौना, कपड़ा की सफाई करैं, घर में छौंक बघार दाल में हल्दी तलना-भूजना सब बंद हो गया।
अवधू कुछ खा ही नहीं पाता था। अपने लिये बनाने का न उन्हें समय था न इच्छा। वह रात दिन देवी माई का सुमिरन करती थीं - हे माई ! दया करा, जान बख्शा। वे जैसे भक्ति के उन्माद में खोई रहने लगीं। करुण स्वर में देवी गीत (पचरा) गाने लगीं।
माँ ने उनकी पुकार सुन ली। आठवें दिन अवधू ने आँखें खोलीं। देवी ढार पर थीं। सुरसती बुआ की तपस्या सफल हुई। देवी को पानी छुवाया, पूजा की और उसी दिन उनको भी देवी निकल आयीं। उन्हें कौन देखता ? अवधू इतना कमजोर था कि स्वयं को संभाल नहीं सकता था।
पतरकी भौजी के लड़के को अपनी ससुराल भेजा कि जाकर यहाँ का हाल पता दे आओ।
वह गया। दरवाजे पर ही उसकी सास मिलीं। सुनते ही कि चेचक निकली हैं और वहाँ से सन्देश लेकर आदमी आया है, वह विफर पड़ीं - हाय राम ! घर माँ देवी निसरी है और उहाँ से सनेसा लैके मनई पठवा है। देवी ! हमरे पशु-परानी कै रक्षा किहू। जो हमार अनभल चेतै, ओकरे साथ तू विचार किह्या मइया।

उन्होंने कलुवा को दाना-पानी को कौन कहै, बैठने को भी नहीं कहा। कलुवा सूखा मुँह लिये भूखा-प्यासा लौट आया और आकर जब सारी बात बताया तो सुरसती बुआ का मन एकदम खट्टा हो गया। वह चारपायी पर पड़ी थीं। पतरकी भौजी ही उनकी सेवा कर रही थीं।
अवधू को भी अपने घर से तो नहीं, यहीं पकाकर इनके घर खिला देती।
अपने पट्टीदारों ने झाँककर देखा भी नहीं था। जबकि सब जानते थे कि सुरसती अपनी बिरादरी के बाहर के हाथ का छुआ नहीं खाती-पीती। वे बचपन से ही देवी की भक्त थीं।
‘मड़हा’ नदी के उस पर जालपा देवी का टीला था। वहाँ जाकर वे जो मनौती मान देती थीं, वह पूरी हो जाती थी। वहाँ हर सोमवार को वे दर्शन करने और लवंग-जल चढ़ाने जरूर जाती थीं। गर्मियों, जाड़ों में आसान था जाना, क्योंकि एक जगह से नदी सँकरी और उथली थी। वहाँ से घुटने-घुटने तो कभी-कभी कमर तक और कभी-कभी कन्धो तक पानी में चलकर वे जाती थीं।
माँ डाटती थी कि बीमार हो जायेगी या किसी दिन फिसलकर गिरेगी तो क्या होगा। भगवान न करें कभी पैर ऊँचे-नीचे गड्ढे में पड़ जाय तो तैरना भी नहीं जानती है। पर सुरसती बुआ हँस देती थीं। बड़े विश्वास के साथ - अरे माई जेकर दर्शन करै जाइत है, ऊ बचाये न, तू काहें फिकिर करत है।
लेकिन बरसात में जब मड़हा नदी बढ़ती हैं तो लगता है कि सरजू का चैड़ा पाट हो गया है और बाढ़ आने पर तो जालपा माई का चैरा या टीला भी डूब जाता था।
सुरसती इस पार खड़ी होकर अनुमान करती कि कहाँ माई का चैरा होगा और मन ही मन आतंकित होतीं कि कहीं नदी उस टीले को बहा न ले जाय। है तो माटी का ही न, पर वह तुरन्त कान पर हाथ रखकर जालपा माई से माफी माँगती-अरे
मइया ! माफी द्या, रामराम, ऊ कौनों ऐसन-वैसन चैरा थोड़े ही है, माई का चैरा है ऊ कैसे गलि-बहि सकत है भला ?
ऐसे दिनों में जब वह चैरे तक नहीं जा सकती थीं, तो बेचैन रहती थीं।
उनकी माँ ने एक दिन कहा - बिटिया इतना काहे परेशान रहत हौ। अरे माई कहाँ नाहीं है ? नीमी क पेड़ में देवी क वास है। तू वहीं के चैरा बनाय ल्या। जालपा माई यहीं में समाय जैहें।
सुरसती बुआ ने ऐसा ही कर लिया। दरवाजे की नीम के नीचे नदी से मिट्टी लाकर चैरा बना लिया।
दूसरे दिन वहाँ भी लवंग, फूल, ढरकावन चढ़ने लगा और नदी तीरे के चैरे पर भी। जाने लायक रास्ता न रह जाय तो इस पार से ही उसी ओर मुँह करके वह पूजा चढ़ाने लगीं। (अगले अंक में समाप्य)
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पूर्व उप निदेशक-हिन्दी संस्थान, लखनऊ
45, गोखले बिहार मार्ग, लखनऊ 01

ग़ज़ल

ग़ज़ल ======= मार्च -जून 06

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अमृताधीर

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(1)


हम थे नादान बहुत और तुम भी लापरवा।
शाख वो जिसपे नशेमन था लोग तोड़ गये।।
जिनकी आँखों में तलाशा था सहारा हमने।
पहले ही मोड़ पे वो हाथ मेरा छोड़ गये।।
ऐसे कातिल को भला कौन सजा दे यारो।
एक मुस्कान से जो दिल हमारा तोड़ गये।।
दिल है ग़मगीन मेरा लब पे तबस्सुम है मगर।
दर्द कुछ इतना बढ़ा अश्क साथ छोड़ गये।।



(2)


बीमारे मोहब्बत को इलजाम न दीजिए।
तूफान का साहिल से अंदाज न लीजिए।
बोतल का, मय का, आँखों का सुरुर जानिए।
पीने से पहले शेख जी तौबा न कीजिए।।
दिल और दिमाग, रूह का सुकूं जो चाहिए।
तो मेरा मशविरा है मोहब्बत न कीजिए।।
इक दौर था, इक उम्र थी और इक जुनून।
गुजरे हुये लमहों को आवाज न दीजिए।।
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शोध छात्रा (हिन्दी) विनोबाभावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग, बिहार

जागो मानव ....!

कविता ====== मार्च -जून 06

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जागो मानव ....!
डा0 हर्षिता कुमार
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हे चिर अविनाशी घट-घट व्यापी,
तेरे पूजन को तत्पर हैं सारे दानव,
दिखते नहीं एक भी मानव।
होती जो इनमें थोड़ी सी मानवता,
हृदय इनका भी द्रवित होता, पसीजता।
नहीं हैं ये चिन्तित या शर्मसार,
होता न कभी इनको दुःख अपार।
करते नहीं ये क्षमा याचना भी,
अपने उस अक्षम्य कर्मों की
जो वे करते हैं प्रतिपल।
बहाने में रक्त स्वजनों का,
लगता नहीं उन्हें एक भी पल।
दिखता है उन्हें केवल अपना स्वार्थ,
जानते नहीं वो यह यथार्थ।
कर्म उन्होंने किये जो अब तक,
घटित हों जो उनके संग कल तब;
करेंगे किससे वे फरियाद
कौन सुनेगा इनकी पुकार।
अब भी है वक्त सुधरने का,
दानव से मानव बनने का।
सुन वाणी अपने अन्तर्मन की,
जो है भयभीत, सहमी और डरी।
करो जागृत कि मानवता की
हुई प्रशंसा सदैव से ही।
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403, कोयला बिहार (बसुंधरा) वी0आई0पी0 रोड, कोलकाता

क्यों भला ?

कविता ======= मार्च - जून 06

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क्यों भला ?
डा0 अनुज भदौरिया ‘जालौनवी’
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जो रूप है स्वयं सृजन का,
उसको मिटाते क्यों भला ?
किलकारियों की गूँज को,
बिन सुने दफनाते क्यों भला ?
क्या हम प्रगतिवादी हुये,
या भोगवादी हो गये।
अपराधमय जीवन बना,
आतंकवादी हो गये।।
अपने घरोंदे तोड़कर,
सीने फुलाते क्यों भला ? जो रूप है स्वयं.....
हम बीज बोयें, पेड़ सींचे,
और कलियाँ नष्ट कर दें।
फूल, फल अप्राप्य होगें,
हम इसे स्पष्ट कर दें।।
मासूम की मासूमियत पर,
जुल्म ढाते क्यों भला ? जो रूप है स्वयं.......
आइये मिलकर शपथ लें,
अब न कोई भू्रण बिखरे।
जन्म दें उस लाड़ली को,
ताकि घर-परिवार निखरे।।
कुल-दीप की बाती ‘अनुज’,
ये सब बुझाते क्यों भला ?
जो रूप है स्वयं सृजन का,
उसको मिटाते क्यों भला ?
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1270, नया रामनगर, उरई (जालौन)

काश ! ऐसा होता

कविता ======= मार्च - जून 06

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काश ! ऐसा होता
सुप्रिया दीक्षित
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काश ! ऐसा होता
एक सपना ये सभी सच होता।
एक कली जिसमें आशा भी खिलने की,
एक चाहत थी औरों से मिलने की,
उसे कोई माली छूता।
काश ! ऐसा होता,
एक सपना ये भी सच होता।
एक बूँद बनकर आती वो किसी की हथेली पर,
छिपती किसी की पलकों पर
या सजती किसी के मस्तक पर,
किसी के नर्म होठों ने उसे भी छुआ होता।
काश ! ऐसा होता,
एक सपना ये भी सच होता।
क्या हुआ गर ‘वो’ लड़की है,
हाथों में लकीरें उसके भी हैं,
चमका सकती हैं ‘वो’ भी किस्मत तुम्हारी,
कोई और नहीं आखिर संतान है ‘वो’ तुम्हारी,
उसे आने का एक मौका तो दो,
थोड़ा ही सही पर अपना भरोसा तो दो,
छूने दो ‘इन्हें’ भी अपने सपनों का आसमान,
इतिहास गवाह है लड़कों से ज्यादा
मिला है ‘इनसे’ हमें सम्मान,
फिर तुम कहोगे एक दिन
काश ! ऐसा होता,
मेरी हर संतान इस लड़की का रूप होता।।
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189, गोपाल गंज, उरई (जालौन) उ0 प्र0

बेल

कविता ====== मार्च -जून 06

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बेल
सुरेश चन्द्र त्रिपाठी
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पतरी पतरी लम्बी लम्बी भागत जात छनहनी,
मानौ कौनउँ खेल खेल रइ कदुआ बेल सयानी।

पीरे पीरे फूलन बाली ओढ़े हरी चुनरिया,
बखरी के कोने से चढ़के पहुँची जाय अटरिया,
लोट गई धरती माटी पै, लगरओ, लली रिसानी।

खपरैलन पै दौर लगाई, तार पकर के झूली,
छपरा के ऊपर छहरानी, घूरन रस्ता भूली,
बरषा की वुँदियन मैं रुच रुच भींजी और नहानी।

खेल चढ़ी है धाय बिठन पै, झकरन से झगरी है,
मानौ मित्र गरे लिपटानी बिरिया पै लहरी है,
लौकी, खीरा सँग कचरी से लै गइ दाँव न मानी।

फूले फूलन पास जाय भौंरा, तितली, मधुमाखी,
बेलन की तारीफ करन मैं कसर न कौनउँ राखी,
तभईं लँगड़ी दई हवा नें बेसुध डरी उतानी।

फर गये कदुआ ऐसो लगरओ, ढोलक गावैं सोहरे,
कहूँ तुरइयाँ झूमैं लटकीं, बन्दरवारे फहरे,
जो कोउ छुओ संग गलबहियँन सी रेशन लिपटानी।
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911/1, राजेन्द्र नगर, उरई

लघुकथा

लघुकथा ======= मार्च - जून 06

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बदलाव
रश्मि दुबे
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मेरे आगे की सीट पर बैठा वह मेरी चेन और अंगूठी को ललचाई नजरों से देख रहा था। खुद को उस इलाके का ‘डान’ बताते हुये गालियों के द्वारा वह गाड़ी के लोगों को और शायद मुझे डराने का प्रयास कर रहा था। पन्द्रह दिन पहले ही जेल से छूटा हूँ ‘मर्डर के केस में’ कह कर स्वयं को ‘पक्का’ और भयंकर जताने की कोशिश में लगा हुआ था। ‘‘एक में अंदर हुआ तो एक और सही, कोई माई का लाल आंख उठाने की हिम्मत तो करे। .......पर सुधरना चाहिये आखिर घर-बार, बीवी-बच्चे हैं उनका भी तो ख्याल रखना है ......‘‘खुद ही बड़बड़ाता और बीच-बीच में अपनी हैवानियत की भी याद दिलाता जाता। मैंने उसकी आँखों में देखा और पढ़ने का प्रयास किया उसकी बैचेन आवाज को, जिसमें इस बात का स्पष्ट संकेत था कि बिना किसी जुर्म के हत्यारा बना देने पर आज स्वयं को हत्यारा महसूस कर रहा था वह !
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दोस्ती
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मैं अस्पताल में बैठी अपने पापा का इंतजार कर रही थी जो मेरी एक्सरे रिपोर्ट लेने गये थे। पास की कुर्सी पर मेरी हर उम्र लड़की शून्य में निहारती, आँखों में दिल का गुबार लिये बैठी हुयी थी। बहुत कोशिश की उससे बात करने की पर एक अजनबी से बात करने की हिम्मत न हुयी। फिर भी औपचारिकता के नाते मैंने उसके आने का कारण पूछा। जैसे वह इसी प्रतीक्षा में थी। उसकी आँखों की रक्तिम रेखायें और भी लाल हो गयीं। आँखों के रास्ते दिल का तूफान बह ही गया ‘‘मेरे पापा ........... आई. सी. यू. में भर्ती में है। एक्सीडेंट हो गया है। बैलेंस बिगड़ जाने से गाड़ी पुल पर लटक गयी। पापा ने गाड़ी को संभालते हुये एक-एक सवारी को नीचे उतारा और खुद फंस गये। उनके जरा भी हिलने पर गाड़ी नदी में गिरने लगती। जिनकी जान बचाई वे भी तमाशबीन बने रहे और अपने रक्षक की रक्षा न कर सके। जिंदगी और मौत के बीच झूलते पापा जैसे ही पीछे आये गाड़ी 25 फुट नीचे गहरी नदी में गिर गयी ....’’ कहते-कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी .... ‘‘सुनते ही मम्मी को अटैक पड़ गया। मेरे मम्मी और पापा दोनों इसी अस्पताल में है। छोटे भाई-बहन हैं, उन्हें संभालने के लिये मैं हिम्मत बाँधे हुये थी, तुमसे दिल की बात कह दी, दिल हल्का हो गया। सब ठीक तो हो जायेगा न ?’’ कहते हुये उसने मेरे हाथों पर हाथ रखा। उसकी आँखों के सागर की अथाह लहरें अब थमती नजर आ रही थीं। मैंने उसकी हथेलियों को अपनी हथेलियों में थाम कर उसे साँत्वना दी। मैं कुछ कह पाती कि ‘‘दीदी ........पापा ......’’ सुनकर वह अंदर की ओर दौड़ी। एक पल को उसने पीछे मुड़कर देखा और जैसे मुझे धन्यवाद किया कि मैंने एक अच्छे दोस्त की भाँति उसके मन का बोझ उतारने में उसकी सहायता की। मैं मन ही मन उसके माता पिता के स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना कर दोस्ती की नई परिभाषा गढ़ने लगी।

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49/144, डी. डी. ए. फ्लैट्स दक्षिणपुरी, नई दिल्ली

कठपुतली लड़की पूजा

कोपल ======= मार्च -जून 06

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कठपुतली लड़की पूजा
देविना सिंह गुर्जर
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रामपुर गाँव में यतेन्द्र नाम का एक कठपुतली बनाने वाला रहता था। वह लकड़ियाँ काटता और उनसे कठपुतलियाँ बनाकर उनमें तरह-तरह के रंग भर कर बाजार में बेचता था। उसके जीविकोपार्जन का वही साधन था। उसके परिवार में केवल वह और उसकी पत्नी थी। उनके एक भी सन्तान न थी। लेकिन उसे बच्चे विशेष रूप से लड़कियों से बहुत लगाव था। उसके पड़ोस में जितने भी परिवार थे उन परिवारों में एक तो लड़कियाँ न थी और जिनके लड़कियाँ थी भी तो उन्हें लड़कों की अपेक्षा अपने माता पिता का उतना प्यार नहीं मिलता था। उनके माता पिता न ही उन्हें स्कूल भेजते और न उन्हें कहीं घूमने फिरने की इजाजत देते थे। यह सब देखकर यतेन्द्र बहुत दुःखी रहता था क्योंकि उसका मानना था कि यही लड़कियाँ माँ बनकर हमे इस संसार में जन्म देती है।
एक दिन जब यतेन्द्र रोज की तरह जंगल में लड़कियाँ काटने गया। अपनी कुल्हाड़ी से एक पेड़ काटकर जैसे ही पेड़ की लकड़ी को छीलने लगा तो अचानक उसे एक आवाज सुनाई पड़ी जैसे कोई कह रहा हो ‘कृपया मुझ पर रहम करो’। इस पर यतेन्द्र ने चारों ओर मुड़कर देखा पर वहाँ पर कोई ना था। पुनः वह अपना काम करने लगा थोड़ी देर बाद फिर एक दर्द भरी आवाज सुनाई पड़ी जैसे कोई रोते हुये कह रहा हो ‘मुझ पर दया करो’। इस बार यतेन्द्र ने महसूस किया शायद ये लकड़ी ही बोल रही है। यतेन्द्र उस लकड़ी को अपने घर ले गया और घर आकर उसने यह सारी बात अपनी पत्नी को बताई। तब दोनों ने उस लकड़ी से एक लड़की बनाने का निर्णय लिया। यतेन्द्र ने बहुत सावधानी से एक सुन्दर लड़की कठपुतली तैयार की। उन दोनों ने उस कठपुतली का नाम पूजा रखा। जब यतेन्द्र उसमें रंग भर रहा था तो वह लड़की आम लड़कियों की तरह कभी अपनी पलकें झपकाती तो कभी मुस्कराती क्योंकि वह जादुई लड़की थी जिससे पूजा बनी थी। थोड़ी ही देर में पूजा बच्चों की तरह यतेन्द्र के घर में इधर से उधर दौड़ने लगी तथा अपनी शैतानियों से उन दोनों को तंग करने लगी। पूजा ने उनके जीवन में बच्चे की कमी पूरी कर दी थी। इस कारण यतेन्द्र और उसकी पत्नी उस कठपुतली लड़की से बहुत प्यार करने लगे थे। पूजा की वजह से उनके जीवन में खुशियाँ आ गयी थी।
यतेन्द्र के पड़ोसी उस लड़की को बहुत सताते और चिढ़ाते थे कि तुम सचमुच की लड़की नही हो, तुम एक कठपुतली लड़की हो। यह रोज सुन-सुनकर वह एक दिन बहुत रोने लगी और घर छोड़ कर चली गई। अपने घर से बहुत दूर एक पेड़ के नीचे वह बैठकर रोते हुये सोचने लगती है कि भगवान ने मुझे इतने अच्छे लड़कियों से प्यार करने वाले माता पिता दिये लेकिन मुझे सचमुच की लड़की नहीं बनाया। तभी वहाँ एक बहुत सुन्दर परी आती है और उसे सचमुच की लड़की बना देती है साथ ही उसे आशीर्वाद देती है कि ‘वह पढ़कर कुछ बन के दिखाये। वह अपने माता पिता का नाम रोशन करे क्योंकि उन्होंने ही पूजा को कठपुतली लड़की बनाया था अगर वह चाहते तो वे कठपुतली लड़का भी बना सकते थे। और कुछ बन कर दिखा के लड़का और लड़की के बीच के भेदभाव को दूर करे।’ इतना कहकर परी गायब हो जाती है और फिर पूजा घर लौट जाती है। यतेन्द्र और उसकी पत्नी पूजा को सचमुच की लड़की देखकर बहुत खुश होते है तथा उसे और भी अच्छे से पालने पोसने लगते है।
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महर्षि विद्या मंदिर, उरई

गज़ल शिल्प ज्ञान-1

ज्ञान ======= मार्च - जून 06

गज़ल शिल्प ज्ञान-1
नासिर अली ‘नदीम’
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माननीय नदीम साहब ‘ग़ज़ल सृजन कला प्रसार केन्द्र, जालौन’ के माध्यम से नवोदित एवं उदीयमान हिन्दी ग़ज़लकारों के लिये ‘निःशुल्क ग़ज़ल-शिल्प ज्ञान कार्यक्रम’ का संचालन कर रहे हैं। उनके इस सद् प्रयास को श्रृँखलाबद्ध रूप से यथायोग्य रचनाकारों/व्यक्तियों तक पहुँचाने का ‘स्पंदन’ का एक छोटा सा प्रयास - - संपादक
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वैसे तो ‘शाइरी’ या ‘कविताई’ एक कठिन और दुस्साध्य कला है, परन्तु प्रकृति ने जिनके अंदर इस कला के बीज स्वयं ही रोप दिये हों, उनके लिये उन्हें अंकुरित और विकसित करना कोई कठिन कार्य नहीं है। शाइरी-कला अर्थात् ‘अरूज़’ अपने आप में एक पूर्ण विज्ञान है। यह विज्ञान, भाषा-विज्ञान एवं स्वर-विज्ञान (गायन कला) को मिलाकर बना है। अतः शाइरी-कला के नियमों को भी पूर्ण मनोयोग और धैर्य के साथ पढ़ने और समझने की आवश्यकता होती है। वैसे शाइरी के नियम समझना बहुत कठिन भी नहीं है, बस कुछ परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता होती है। जिन्हें अपने अंदर कवित्व का अंश पर्याप्त मात्रा में विद्यमान प्रतीत होता हो और उचित प्रयास के बाद शाइरी कला के नियम समझना जिन्हें रुचिकर लगे, यह प्रस्तुति उन्हीं के लिये है। शेरगोई और ग़ज़ल-सृजन के नियमों पर चर्चा करने से पूर्व यह आवश्यक है कि पहले शाइरी से सम्बन्धित कुछ आवश्यक (प्राथमिक) बातों की जानकारी कर ली जाये।
‘शेर’ - शाइरी के नियमों में बँधी हुई दो पंक्तियों की ऐसी काव्य-रचना को शेर कहते हैं, जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो। ‘शेर’ का शाब्दिक अर्थ है - ‘जानना’ अथवा ‘किसी तथ्य से अवगत होना।’ उदाहरण -
‘हो गई है पीर-पर्वत सी, पिघलनी चाहिये,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।’ (दुष्यन्त कुमार)
‘मिसरा’ - जिन दो पंक्तियों से मिलकर ‘शेर’ बनता है, उसमें से प्रत्येक पंक्ति को ‘मिसरा’ कहते हैं। ‘शेर’ की प्रथम पंक्ति को ‘मिसरा-ए-ऊला (प्रथम मिसरा) तथा द्वितीय पंक्ति को ‘मिसरा-ए-सानी’ (द्वितीय मिसरा) कहते हैं।
‘क़ाफ़िया’ - अन्त्यानुप्रास अथवा तुक को ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। इसके प्रयोग से ‘शेर’ में अत्यधिक लालित्य उत्पन्न हो जाता है। ‘क़ाफ़िया’ का स्वर परिवर्तनशील नहीं होता (उच्चारण समान रहता है) शब्द परिवर्तन अवश्य होता है।
उदाहरण -‘हो सकी किससे यहाँ मेरे लिये तदवीर कुछ,
सोचता था बदले शायद मेरी तकदीर कुछ।
वो खुदा से कम न थे मेरे लिये पहले कभी,
अजनबी से देखते हैं अब मेरी तस्वीर कुछ।
अब तो लगते हैं फसाने मेरे कदमों के निशां,
रास्तों से बात करते हैं मेरे राहगीर कुछ।’ (चीखते सन्नाटे-पृथ्वी नाथ पाण्डेय)
यहाँ ‘तदवीर, तकदीर, तस्वीर, राहगीर’ शब्द क़ाफ़िया कहे जायेंगे।
‘रद़ीफ़’ - ‘शेर’ में क़ाफ़िया के बाद आने वाले शब्द अथवा शब्दावली को ‘रदीफ़’ कहते हैं। ‘रदीफ़’ का शाब्दिक अर्थ होता है - ‘पीछे चलने वाली’। ‘क़ाफ़िया’ के बाद ‘रदीफ़’ के प्रयोग से ‘शेर’ का सौन्दर्य और अधिक बढ़ जाता है, अन्यथा शेर में ‘रदीफ़’ का होना भी आवश्यक नहीं है। रदीफ़ रहित ग़ज़ल या शेरों को ‘गैर मुरद्दफ’ कहते हैं। (काफिया के उदाहरणार्थ शेरों में ‘कुछ’ शब्द रदीफ़ कहा जायेगा)
‘मतला’ - ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मतला’ कहते हैं, जिसके दोनों मिसरों में क़ाफ़िया होता है। यदि दोनों मिसरों में क़ाफ़िया न हो तो प्रथम शेर होने के बाद भी ‘शेर’ को मतला नहीं कहा जा सकता। एक ग़ज़ल में एक से अधिक मतले भी हो सकते हैं, जिन्हें ‘हुस्ने-मतला’ कहा जाता है। (काफिया में उदाहरणार्थ शेरों में प्रथम शेर मतला कहलायेगा, इसके दोनों मिसरों में क़ाफ़िया क्रमशः तदबीर, तकदीर है)
‘मक्ता’ - ग़ज़ल के अन्तिम ‘शेर’ को ‘मक्ता’ कहते हैं, इसमें शाइर अपना उपनाम सम्मिलित करता है (उपनाम को उर्दू भाषा में ‘तखल्लुस’ कहते हैं) यदि ग़ज़ल के अन्तिम शेर में शाइर का उपनाम सम्मिलित न हो तो उसे भी सामान्य ‘शेर’ ही माना जायेगा।
उदाहरण - ‘कितना बदनसीब है ‘ज़फर’ दफ़न के लिये,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।’
(यहाँ ‘जफर’ तख़ल्लुस है)
‘बह्र’ - लय और संगीतात्मकता की दृष्टि से जिस सूत्र (छन्द) के आधार पर शेर की रचना की जाती है, उस सूत्र को ‘बह्र’ कहते हैं। ‘बह्रें’ अनेक प्रकार की होती हैं।
(अभी इतना ही, अगले अंक में कुछ और जानकारी)
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41/1, नारोभास्कर, जालौन (उ. प्र.) 285123

शैथिल्यता के मध्य सफल संदेश

रपट =========== मार्च - जून 06

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शैथिल्यता के मध्य सफल संदेश
अश्वनी कुमार मिश्र

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बीते दिनों बुन्देलखण्ड के उरई नगर में एक उल्लेखनीय आयोजन रंगमंच के क्षेत्र में हुआ जिसमें नवोदित रंगकर्मियों ने नाट्यविधा में नवीन सोपान जोड़े हैं। यूँ तो बुन्देली माटी की सोंधी-सोंधी गंध के साथ-साथ यहाँ की आवो-हवा में साहित्य, संगीत और लोककलाओं के भी विविध रंग-रूप दृष्टिगोचर होते हैं। यहाँ लोकनाट्य की समृद्ध परम्परा रही है। लोकनाट्य की विविध विधाओं में यहाँ की परम्परा, लोक संस्कृति, धर्म-दर्शन और इतिहास रचा-बसा है।
लोक प्रसिद्ध कथानक, चाहे वह साहित्यिक हों या ऐतिहासिक सदैव बुन्देलखण्डवासियों को लुभाते और गुदगुदाते रहे हैं। लोकरंजन की इसी परम्परा के अन्तर्गत यहाँ समय-समय पर कई ऐतिहासिक चरित्रों पर आधारित नाटकों का लेखन एवं मंचन भी हुआ है।
सन् 1857 की प्रथम क्रांति की राष्ट्रीय नायिका महारानी लक्ष्मीबाई के गौरवशाली चरित्र एवं कृतित्व पर अनेक नाटकों का लेखन व मंचन हुआ। इनमें डा0 वृन्दावन लाल वर्मा, रणधीर, पातीराम भट्ट न्यादर सिंह ‘बेचैन’, चतुर्भुज, हरिकृष्ण प्रेमी इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने रानी लक्ष्मीबाई के महान चरित्र को रंगमंच पर उतारा।
ऐतिहासिक नाटकों की इसी शृंखला में रानी लक्ष्मीबाई की अनन्य दासी और महासमर में साथ रही ‘झलकारी बाई’ के जीवन-चरित्र पर आधारित ‘एक थी झलकारी दुलैया’ नाटक की लेखिका, सुप्रसिद्ध कथाकार डा0 (श्रीमती) ऊषा सक्सेना ने ‘एक थी सरस्वती रानी’ लिखकर एक और कड़ी जोड़ दी।
स्वतंत्रता की प्रथम क्रान्ति में यद्यपि अनेक वीरांगनाओं ने अपने प्राणों का उत्सर्ग किया किन्तु सबसे अनूठा, विलक्षण बलिदान डा0 (श्रीमती) ऊषा सक्सेना ने मंडावरा की रानी सरस्वती का माना है। जिसके विलुप्त कथानक को उन्होंने नाट्यविधा में उकेरा है और उसे उसके गौरवमय बलिदान से अमर कर दिया।
स्वतंत्रतापूर्व की पृष्ठभूमि पर आधारित नाटक ‘एक थी सरस्वती रानी’ के कथानक का सम्बन्ध तत्कालीन झाँसी राज्य के ललितपुर क्षेत्र से है। इसका केन्द्र बिन्दु इतिहास के पन्नों से अलग-अलग सी पड़ चुकी लुप्तप्राय अतीत की एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है, जिसमें मंडावरा की रानी (छोटी रानी) सरस्वती को अपने परिजनों समेत 1360 निर्दोष लोगों को अत्याचारी, निष्ठुर प्रशासक, अंग्रेज अफसर मि. थार्नटन से मुक्त कराकर फांसी से बचाने के कत्र्तव्य निर्वहन में उसके साथ विवाह की उसी शर्त को अनिच्छा व दबाव में मानना पड़ता है, जिसे वह पूर्व में (कौमार्यावस्था में) देशभक्ति और संस्कारों के कारण ठुकरा चुकी थी।
इस नाटक में भावनाओं पर कत्र्तव्य की और भारतीय पतिव्रता नारी की प्रत्येक विपरीत परिस्थिति पर विजय दर्शाई गई है। उसका अदम्य साहस, बलिदान व दृढ़ संकल्प भावना, देशभक्ति और त्याग प्रशंसनीय है।
लेखिका डा0 (श्रीमती) ऊषा सक्सेना ऐतिहासिक तथ्यात्मकता के दिग्भ्रम के रहते हुये भी इस नाटक के माध्यम से अपना संदेश देने में सफल रही हैं।
नगर में उत्कृष्ट प्रेक्षागार की कमी ऐसे में उन सभी नाट्य प्रेमियों को अखरी जिन्होंने ‘मण्डपम्’ सभागार की नाटकों के संदर्भ में-प्रतिकूल परिस्थिति के कारण उत्पन्न गतिरोध को धैर्यपूर्वक सहा।
यदाकदा अनुभवहीनताजन्य निर्देशन शैथिल्य भी झलका। पात्र लाइट-ब्लाकिंग के साथ पूर्ण सामंजस्य की असफल कोशिश करते दिखे। कुछेक पात्रों में रिहर्सल (पूर्वाभ्यास) की कमी झलकी। इनके रहते भी पात्रों की भाव-सम्प्रेषणीयता सार्थक रही। उन्होंने अपनी-अपनी भूमिका के साथ पूर्ण न्याय करने की सराहनीय चेष्टा की।
मुख्य पात्र सरस्वती रानी के रूप में नवोदित रंगकर्मी कु. दीपशिखा बुधौलिया ने तन्मयतापूर्वक जीवन्त अभिनय कर अपनी प्रतिभा उद्घाटित की है। यह सुखद संकेत है। अन्य मुख्य पात्र मि. थार्नटन के रूप में कृष्णमुरारी और सह पात्र सूबेदार अर्जुन सिंह की भूमिका में संतोष दीक्षित सशक्त व प्रभावशाली अभिनय करते दिखे। बड़ी रानी की भूमिका में कु. रश्मि सिंह ने भी नाट्य प्रेमियों का ध्यानाकर्षित किया। नन्हे राजकुमार के रूप में अंश ने अपनी बालसुलभ प्रस्तृति से सभी दर्शकों का मन मोह लिया। अन्य कलाकारों को अभी और निखरने की आवश्यकता है।
नाटक का कला-पक्ष सशक्त रहा। यद्यपि दृश्य योजना और अंक विधान भविष्य में गत्यात्मकता एवं सामंजस्य की अपेक्षा करते है। निर्देशकद्धय से भविष्य में इसकी उपेक्षा न करने की आशा की जा सकती है।
पात्रों की रूप-सज्जा चित्ताकर्षक और सम्मोहक रही है जो कुशल रूपाकारों द्वारा सीमित समय व संसाधनों में की गई। केश विन्यास के लिये भी रूपाकारों की सराहना की जानी चाहिये।
संगीत और संवाद श्रेष्ठ रहे। दर्शकों ने इनका भरपूर रंजन किया। ध्वनि व प्रकाश व्यवस्था यत्र-तत्र अवश्य खटकी। यद्यपि इसका मूल कारण मंच का अनुकूल न होना ही माना जायेगा।
सारांशतः यहा कहा जा सकता है कि अपनी सहज अनुभूतियों, जीवन की सफलताओं-असफलताओं, निराशा और कुंठाओं, दैनंदिन पीड़ा तथा अन्यान्य स्थितियों से जोड़कर जब कोई प्रस्तुति की जाती है तो वह नये-नये अर्थ देती है।
संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित एवं बुन्देलखण्ड की स्थापित सुप्रसिद्ध सांस्कृतिक संस्था ‘वातायन’ उरई की यह रोचक और मनोरंजक नाट्य प्रस्तुति बुन्देलखण्ड की उस प्राचीन रंगपरंपरा का भान करा गई जिसके अन्तर्गत संस्कृत नाटककार भवभूति के नाटकों का मंचन कालपी के निकट कालप्रियनाथ मंदिर की विशाल रंगशाला में हुआ करता था।
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375, ‘शारदा सदन’ सुशील नगर, उरई