नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष ---------------------------------------------------------------- आलेख --------------- डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव |
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भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा विश्व के सबसे बड़े आन्दोलनों में होती है क्योंकि इस आन्दोलन ने अलग-अलग विचारधाराओं और विभिन्न वर्गों के लाखों-लाख लोगों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से सक्रिय किया। इस स्वतंत्रता आन्दोलन की सबसे बड़ी ऐतिहासिक विशेषता यह थी कि इसे बिना किसी क्रांति के नैतिक, राजनीतिक साथ ही विचारधारात्मक तीनों ही स्तरों पर लम्बे जनसंघर्ष के द्वारा चलाया गया। हालाँकि इतिहासकारों के बीच यह बहस का मुद्दा रहा कि यह विद्रोह एक सिपाही बगावत था, राष्ट्रीय आन्दोलन था या सामंती प्रतिक्रिया का प्रस्फुटन मात्र? क्या भारतीय असंतोष को कम करके आंकने के लिये यह अंग्रेज इतिहासकारों की एक साजिश थी?
कारण कुछ भी हों परन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि सन् 1857 ई. का विद्रोह उन विभिन्न असंतोषों का परिणाम था जिनसे भारतीय वर्षों से घुटन अनुभव कर रहे थे। सन् 1757 ई. से सन् 1857 ई. के सौ वर्षों में अंग्रेज कम्पनी भारत के विभिन्न क्षेत्रों को अपने राज्य में मिलाती जा रही थी। कम्पनी की भारत में इस गतिविधि से उसके राज्य का तेजी से विस्तार हुआ। फलतः शासन प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन हुये। इसके संचित प्रभाव से भारत में सभी वर्गों, रियासतों के राजाओं, सैनिकों, जमींदारों, कृषकों, व्यापारियों, ब्राह्मणों तथा मौलवियों (केवल शहरी पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त वर्ग जो अपनी जीविका के लिये कम्पनी पर निर्भर थे) सभी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों के इन तरीकों ने भारतीय जीवन की शांत धाराओं को आंदोलित होने को विवश कर दिया, जिससे देश के विभिन्न भागों में हलचल पैदा होने लगी। कुलीन और जन-साधारण दोनों ही वर्गों में बढ़ता असंतोष और आशंका ही छोटे-छोटे विद्रोह के रूप में (सन् 1857 ई. के विद्रोह से पहले) वैल्लोर में सन् 1806 ई. में, सन् 1816 ई. में बरेली, सन् 1824 ई. में बैरकपुर, सन् 1831-32 ई. में कोल विप्लव तथा छोटा नागपुर और पलामू में अन्य छोटे विद्रोह, मुस्लिम आन्दोलन जैसे फेराजी उपद्रव-सन् 1831 ई. में बरासत (बंगाल) में सैयद अहमद और उनके शिष्य मीर नासिर अली या टीटो मीर के नेतृत्व में, सन् 1842 ई. में 34वीं रेजिमेंट का विद्रोह, सन् 1849 ई. में फरीदपुर (बंगाल) में दीदू मीर के पथ प्रदर्शन में (सन् 1849 ई, सन् 1851ई., सन् 1852 ई. और सन् 1855 ई. में मोपला विप्लव तथा सन् 1855-1857 ई. का संथाल विद्रोह)। सन् 1849 ई. में सातवीं बंगाल कैवेलरी और 64वीं रेजीमेंट और 22वीं एन.आई. का विद्रोह, सन् 1850 ई. में 66वीं एन.आई. का विद्रोह और सन् 1852 ई. में 38वीं एन.आई. का विद्रोह इत्यादि। इन विद्रोहों के पीछे अनेक राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक, सैनिक कारण हो सकते हैं परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि ये सभी अंग्रेजी शासन की नीतियों के विरूद्ध जनता के दिलों में संचित असन्तोष एवं विदेशी सत्ता के प्रति घृणा का परिणाम था। इस सामान्य विक्षोभ की धीरे-धीरे सुलगती आग सन् 1857 ई. में धधक उठी जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की मजबूत बुनियाद की जड़ों को झकझोर (हिला) दिया। सन् 1857 ई. के इस विद्रोह को अंग्रेजी साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रभावित इतिहासकारों ने सामंती असंतोष की अभिव्यक्ति मात्र कहा है परन्तु वास्तव में प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अंग्रेजों की नीतियों ने जो अस्तव्यस्तता एवं असंतोष की भावना ला दी उसकी ही अभिव्यक्ति सामंत सेना और जनता के माध्यम से सन् 1857 ई. की क्रांति, विप्लव या महान विद्रोह या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में हुई।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की इस चिंगारी ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रगति को बढ़ावा दिया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की कहानी भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के संग्राम का इतिहास है। यह ब्रिटिश सत्ता की गुलामी से मुक्ति पाने के लिये भारतीयों द्वारा संचालित आन्दोलन था। सन् 1857 ई. में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतीयों द्वारा पहली बार संगठित एवं हथियार बंद लड़ाई ने राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में संघर्ष, समझ एवं एकता के बीज बोये। यद्यपि यह विप्लव असफल रहा, परन्तु इसने प्राचीन और सामंतवादी परम्पराओं को तोड़ने में पर्याप्त सहायता पहुँचायी तथा इसके बाद ही भारत आधुनिक स्वतंत्रता संघर्ष आन्दोलन के नये युग में प्रवेश कर सका।
देशव्यापी इस क्रांति का प्रभाव बुन्देलखण्ड की माटी पर भी पड़ा। बुन्देलों की इस वीर बसुन्धरा ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महती भूमिका अदा की है क्योंकि वर्तमान में बुन्देलखण्ड के नाम से प्रसिद्ध क्षेत्र का इतिहास अत्यन्त प्राचीन एवं गौरवशाली रहा है। यह भारत के हृदय प्रदेश के रूप में सुविख्यात अपनी स्वतंत्र चेतना के लिये महत्वपूर्ण माना जाता है। बुन्देलखण्ड को चेदि, मध्यप्रदेश, जैजाक-भुक्ति, आटविक, दशार्ण आदि प्राचीन नामों से भी संबोधित किया जाता है। इतिहासकार जयचंद विद्यालंकार ने विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी में विस्तृत क्षेत्र को बुन्देलखण्ड के नाम से सम्बोधित किया है। वहीं दूसरी ओर बुन्देलखण्ड की भौतिक शोधों के आधार पर निम्न सीमा निर्धारित की गई है-‘वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विन्ध्य, प्लैटों की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिण-पूर्व में पन्ना व अजयगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है।
बुन्देलखण्ड का यह भूखण्ड अपनी अदम्य प्रेरणाओं और स्वतंत्र प्रवृत्तियों के लिये प्राचीन काल से ही विशिष्ट है। मध्यकाल में महाराज छत्रसाल बुन्देला ने इस क्षेत्र के सुयश को आगे बढ़ाया। जिससे इसे बुन्देलखण्ड नाम दिया। चंदेलों और बुंदेलों की संतानों का शौर्य सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में पराक्रम एवं स्वतंत्रता की कामना ज्वलंत रूप से सामने आयी जब झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब और तात्या टोपे के सुयोग्य नेतृत्व में अंग्रेजों से युद्ध करते हुये भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ा था।
भारत में राष्ट्रीय चेतना पूर्णरूप से सन् 1857 ई. तथा सन् 1921 ई. की अवधि के दौरान पुष्पित हुई और परवर्ती कालीन स्वतंत्रता आन्दोलन जिसे हम राष्ट्रीय आन्दोलन की संज्ञा देते हैं जो सन् 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के साथ ही सुगठित रूप में सामने आया। जिसके नेतृत्व में भारतवासियों ने विदेशी शासन से स्वतंत्रता के लिये लम्बा और ऐतिहासिक संघर्ष किया। इस कालावधि के संघर्ष में बुन्देलखण्ड सक्रिय रूप से भाग ले रहा था। सन् 1905 ई. में बंग भंग के विरुद्ध आन्दोलन में बुन्देलखण्ड ने अपनी जुझारू प्रवृत्ति का परिचय दिया। सन् 1905 ई. से 1911-12 तक और सन् 1921 ई. से सन् 1930-31 ई. तक के आन्दोलनों में क्रान्तिकारी आन्दोलन के स्वर ही अधिक मुखर हुये। जिनमें से पहले में तो कम परन्तु द्वितीय चरण में चन्द्रशेखर आजाद और भगवानदास माहौर जैसे क्रांन्तिकारियों के नेतृत्व में बुन्देलखण्ड ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बुन्देलखण्ड की इस प्रकृति और प्रवृत्ति की धारा में सन् 1921 ई. के असहयोग आन्दोलन के आह्वान पर अनेक वीर युवक सामने आये। सन् 1928 ई. में साइमन कमीशन के विरोध में और सन् 1930 ई. के सत्याग्रह आन्दोलन में भारी संख्या में बुन्देलखण्ड के शिक्षित युवकों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ी। सन् 1931 ई. से सन् 1940 ई. के मध्य महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बुन्देलखण्ड ने आजादी की राजनीतिक लड़ाई में बड़े उत्साह से भाग लिया, जेल यात्रायें की और पुलिस का दमन सहा। सन् 1942 ई. में भारत छोड़ो आन्दोलन में बुन्देलखण्ड की साधारण जनता ने भी गाँधी जी के आह्वान पर शासन से अहसयोग किया।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के महान नेताओं को उनके त्याग एवं बलिदान के लिये आज भी हम याद करते हैं किन्तु वे स्थानीय और आंचलिक नेता, जो स्वतंत्रता आन्दोलन की भागीदारी में राष्ट्रीय नेताओं के सहयोगी रहे एवं उनसे किसी भी स्तर (अर्थ) पर पीछे नहीं रहे, उनके योगदान का आज तक कोई उचित मूल्यांकन करने का प्रयास नहीं किया गया है। जब हम बुन्देलखण्ड के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि अपने अनूठे शौर्य और स्वातन्त्रय प्रेम के कारण विदेशियों के विरुद्ध या राष्ट्रीय आन्दोलन में बुन्देलखण्ड सदैव से ही अग्रणी रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में बुन्देलखण्ड के योगदान का अद्यतन न तो उचित मूल्यांकन किया गया है और न ही देश की प्रगति में इस क्षेत्र को बराबरी का भागीदारी बनाने की दिशा में कोई प्रयास किया गया। इसके अतिरिक्त बहुत से महत्वपूर्ण तथ्य जिनके मौखिक और अभिलेखीय साक्ष्य अभी उपलब्ध हैं जो लेखबद्ध नहीं किये गये हैं? बुन्देलखण्ड के आन्दोलन एवं स्वतन्त्रता के इतिहास की उसकी प्रकृति, प्रवृत्ति और उसकी गौरवमयी परम्परा का आंकलन करते हुये इस क्षेत्र को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन तथा क्रांतिकारी संगठनों का सम्यक् लेखा-जोखा अभी शोध के क्षेत्र में नहीं हुआ है। स्वतंत्रता आन्दोलन के उन अगणित शूरवीरों को समय के अन्धकार के गर्त से निकालकर प्रकाश में लाना आज की महती आवश्यकता है।
सम्पादक कृतिका एवम वरिष्ठ प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, डी.वी.कालेज, उरई(जालौन) पिन-285001 उ0प्र0 |
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