कहानी ======= मार्च - जून 06
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बस अब और नहीं .....
डा0 अलका पुरवार
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‘‘चैप्टर मस्ट बी क्लोज्ड’’, कहने के साथ ही प्रणय ने बात खत्म करनी चाही। वाक्य छोटा था पर प्रिया की आशाओं और अरमानों पर तो जैसे तुषारापात ही कर गया, फिर भी उसने हिम्मत करके कहा, क्या आज की शाम तुम मेरे नाम कर सकते हो, बस आखिरी शाम .....’’ ? ‘‘ठीक है’’, प्रणय ने कुछ अनमने भाव से कहा।
शाम आने से पहले प्रिया सारे दिन सोचती रही लेकिन शायद स्त्री संकोच उसे प्रणय कर दबाव डालने से रोकता रहा। यूँ दिल तो बहुत चाह रहा था प्रणय से उस वाक्य को वापस लेने के आग्रह करने का फिर यह सोचकर कि प्रेम दबाव का नहीं बल्कि स्वाभाविकता और सहजता का नाम है, उसने अपनी भावनाओं के ज्वार को दबाना ही ठीक समझा। हालांकि उसके अन्तस से आवाज आ रही थी विद्रोह की; प्रणय को खरी-खोटी सुनाने की लेकिन अपनी इच्छाओं को परे धकेल कर वह शाम का इन्तजार करने लगी।
अन्ततः प्रिया ने अपनी सारी भावनाओं, इच्छाओं व आशाओं का गला घोंटते हुये प्रणय को दोस्त रूप में मिलने का निर्णय किया, जिसमें वह प्रेयसी के रूप में अपना अधिकार जमाने नहीं बल्कि एक सहपाठिनी के रूप में अधिकार जताने वाली थी। सुपर मार्केट की ‘बुक-वार्म’ दुकान में निगाहें दौड़ाते, उसने सामने से आते हुये प्रणय को देखकर हाथ हिलाया। प्रणय कितने दबाव में है बल्कि कुछ सहमा सा भी, इसका अंदाज उसके चेहरे से ही लगा लिया था प्रिया ने। लेकिन रेस्तरां में प्रिया को उसी पुराने उन्मुक्त व अल्हड़ मूड में देखकर प्रणय थोड़ी ही देर में काफी सहज हो चुका था। सुबह के तनाव का हल्का सा चिन्ह भी उसे प्रिया के चेहरे पर नहीं दिखाई दे रहा था और उधर प्रिया, वह अपनी जिन्दगी की इस सबसे ‘खास’ शाम को शायद पूरी तरह जी लेना चाहती थी इसलिये बिना वक्त बरबाद किये उसने पूछा, ‘‘क्या खिलाने जा रहे हो आज ?’’ प्रणय ने उत्साहित होकर कहा, ‘‘पूरी साल एक भी ट्रीट न देने के कारण बैच में तुमने मुझे कंजूस की जो उपाधि दी थी, आज मैं उस लेबिल को हटाना चाहता हूँ इसलिये तुम आज जी भरकर आर्डर करना।’’ ‘‘अच्छा’’ कहते हुये वह खिलखिला कर हँस पड़ी। ‘‘तो ठीक है, पनीर कटलेट, बेजीटेबिल बर्गर, मटन चाप और हाँ कसाटा मँगाना मत भूलना।’’
‘‘हाँ, वो सुबह तुम क्या कह रही थी ?’’ प्रणय ने जैसे अनिच्छा से पूछा। ‘‘मैं ...... कुछ खास नहीं ..............’’, प्रिया ने जानबूझकर बात अधूरी छोड़ी लेकिन प्रणय ने भी मानो बात टालने की गरज से प्रिया द्वारा खरीदे उपन्यास को उठाया और उपन्यास का शीर्षक नो रूम फार लोनलीनेस देखकर एक गहरी साँस छोड़ी। प्रिया ने कनखियों से उसे तनाव मुक्त होते देखकर अपने दिल पर बोझ सा महसूस किया। शायद उपन्यास के शीर्षक ने उसे प्रिया के अकेलेपन का अहसास न होने दिया या उसने जरूरत ही न समझी। आज भी उस शाम की याद जेहन में आते ही प्रिया बहुत अकेलापन महसूस करती है। ठगे जाने का एक अहसास जिसे वह कभी किसी को नहीं बता पाई लेकिन साथ में एक सुकून भी था कि प्रणय ने अगर प्रेम का रिश्ता नहीं निभा पाया तो क्या, उसने स्वयं दोस्ती का फर्ज बखूबी निभाया।
घर लौटते समय अँधेरा घिरने को था लेकिन बाहर के अंधेरे से गहरा था उसके मन का अंधेरा। कमरे में पहुँचकर निढाल होकर वह बिस्तर पर गिर पड़ी। सब कुछ खत्म हो चुका था, जिन्दगी बेमायने हो चुकी थी। उसकी दुनिया में प्यार की शमा जलने से पहले ही बुझ चुकी थी। आँखों से अविरल गिरते आँसुओं के बीच कब वह अतीत के ख्यालों में डूब गई उसे पता ही न चला।
अभी दो महीने पहले की ही तो बात थी जब पहली दफा उसने ‘प्यार’ शब्द को जाना था और आज यह शब्द अपना अर्थ खो चुका था। उसे अच्छी तरह याद है वह दिन जब पहली बार प्रणय ने उसका ‘प्यार’ शब्द से परिचय कराया था। उस दिन भी बहुत रोई थी वह, शायद खुशी की अधिकता से या अपनी विवशता के पूर्वाभास से। विश्वास नहीं हो रहा था उसे अपने ऊपर, बार-बार शीशे में निहारते हुये उसे अपने चेहरे पर गर्व-मिश्रित संतोष की रेखा चमकती दिख जाती थी क्योंकि यह प्रणय-निवेदन उसे मिला था उसके सबसे प्रिय दोस्त एवं पूरे बैच की जान, हँसमुख, वाचाल, स्मार्ट या यूँ कहें कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व की तरफ से। जिसकी वह कुछ हद तक प्रशंसक भी रही है। आज फिर वह रो रही है। क्या प्यार पाने और खोने दोनों ही स्थितियों में स्त्री को सिर्फ रोना ही है ? आखिर क्यों ? क्या प्यारे करने या न करने का एकाधिकार सिर्फ पुरुष के ही पास है ? क्यों इतना कमजोर एवं असहाय हो गई है वह ? अपनी सहेलियों के बीच ‘बोल्ड’ व उन्मुक्त रूप में प्रसिद्ध वह व्यक्तिगत जिन्दगी में इतनी कमजोर होगी, उसने कभी कल्पना भी न की थी।
यूँ प्रणय और उसके बीच सत्र के शुरूआत से ही छोटी-छोटी चिटों व ग्रीटिंग्स का आदान-प्रदान होता रहा था जिसमें एक दूसरे को ‘बेवकूफ’ साबित करना ही जैसे दोनों का एकमात्र उद्देश्य था। साथ ही सबके सामने परस्पर चिढ़ाना, मजाक बनाना तथा खिंचाई करना, रोज का आवश्यक कार्य था लेकिन प्रिया ने इस वाक्युद्ध को कभी भी दोस्ती से ज्यादा कुछ न समझा। इसी दौरान प्रणय का चयन बिजनेस मैनेजमेंट कोर्स के लिये हो गया। चयन की खुशी में आयोजित पार्टी वाली सुबह दिये एक ग्रीटिंग में जब प्रिया ने प्रणय का मित्रता से हटकर कुछ अलग संदेश देखा तो उसे सहसा विश्वास न हुआ। उसने इसे भी प्रणय के मजाक का एक हिस्सा समझा। सारे दिन असमंजस में रहने के बाद जब शाम को वह अपने धड़कते दिल को मुश्किल से सँभाले हुये पार्टी में पहुँची तो सहपाठियों द्वारा लगातार टोकने पर भी वह हमेशा की तरह सहज न हो पाई थी। प्यार का प्रथम अहसास इतना शक्तिशाली होगा कि वह इतनी भीड़ में भी जैसे एकदम अकेली हो जायेगी, उसने कभी सोचा भी न था। उसकी आँखे कुछ नहीं देख पा रही थी, सिवाये प्रणय के और वह ग्रीटिंग में लिखी पंक्तियों का अर्थ प्रणय की आँखों में ढूँढ़ रही थी। जबकि प्रणय था हमेशा की तरह चंचल, वाचाल व उन्मुक्त, कहीं कोई दबाव या तनाव का चिन्ह प्रिया को उसके चेहरे या व्यवहार में नही मिला और यही बात उसे अन्दर ही अन्दर सशंकित भी कर रही थी।
काउन्सलिंग के लिये शहर छोड़ने से पहले प्रणय ने उसे वह पत्र भी अन्ततः दे ही दिया जिसमें स्वभावानुसार उसने स्पष्ट रूप से मन की बातों का खुलासा करते हुये प्यार का इजहार भी किया था। उस लम्बे भावुक पत्र में पहली बार प्रणय ने गंभीरता से हर घटना व हर अनुभव का जिक्र विस्तार से किया था कि किस तरह प्रथम दिन के आकर्षण से शुरू हुआ यह सफर घनिष्ठ दोस्ती से होता हुआ आज प्यार के मुकाम तक आ पहुँचा था और अन्त में अधिकारपूर्वक उसने तीन-चार साल इन्तजार करने को कहा था। ‘इन्तजार’ यही तो वह कार्य था जो उसके लिये लगभग असंभव था कारण मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार की सबसे बड़ी संतान थी वह। यही क्या कम था कि कालेज की पढ़ाई के बाद उसे इस प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला लेने दिया गया वरना तो शायद उसे भी अब तक ससुराल पहुँचा दिया गया होता। शायद इसमें भी उसके दुर्भाग्य का साथ था, जो उसे आज प्यार के अहसास का अमूल्य तोहफा दे गया था। एक तो सामर्थ्य से ज्यादा दहेज की माँग, दूसरे साधारण रूप रंग की वजह से कितने ही परिवारों द्वारा उसे अस्वीकृत किया गया था। इसके अलावा पैरों के नीचे कोई आर्थिक या व्यवसायिक आधार न होने पर भी परिवार के निरन्तर प्रयासों के बीच किसी तरह से वह अपना कोर्स पूरा कर पा रही थी। इन जटिल परिस्थितियों में प्रणय के ‘इंतजार’ का आग्रह उसके लिये असंभव था हालांकि यह प्रणय-निवेदन उसके लिये रेगिस्तान की बारिश की तरह अमूल्य एवं अप्रत्याशित था। प्रणय ने लौटकर जबाव माँगा था और वह चला गया। इसी बीच प्रिया, वह तो जैसे बाबली हुई जा रही थी; उसकी तो जैसे दुनिया ही बदल गई थी। एक बार सिर्फ एक बार उसके कान प्रणय से प्रत्यक्ष प्यार का इजहार सुनना चाहते थे कि हाँ, वह भी किसी का प्यार है, वह भी किसी की जरूरत है, यह दुनिया उसके अरमानों की भी है, कोई उसे भी चाहता है। कितना खूबसूरत है यह अहसास उसे अब समझ आ रहा था। कई जगह उसके रिश्ते को ठुकराए जाने के बाद वह जिस अग्नि में जल रही थी आज जैसे उस तप्त हृदय को बर्फ सी शीतलता महसूस हो रही थी। आत्मसंतुष्टि का भाव वास्तव में उसे आत्ममुग्धता की ओर लिये जा रहा था जहाँ एक नई दुनियाँ बाँहें फैलाकर उसका इन्तजार कर रही थी। उसे लगा जैसे उसे भी बहुत कुछ कहना है प्रणय से। वे अनुभूतियाँ जिन्हें वह अब महसूस कर रही थी लेकिन कैसे कहे, उसका मीत तो उससे बहुत दूर था। कई दफा आशंका ग्रस्त उसका हृदय रोना ही शुरू कर देता था कि हे भगवान क्या होगा ? क्या यह सच है ? क्या यह संभव है मेरे साथ ? आखिरकार उसकी आशंका उसकी इच्छाओं पर भारी पड़ी और भगवान ने उसका साथ छोड़ दिया। जब प्रणय वापिस लौटा तो प्रिया के द्वारा उस पत्र का जिक्र होने पर उसने यह छोटा सा वाक्य कि, ‘प्रिया आई थिंक, चैप्टर मस्ट बी क्लोज्ड’, कहकर अपनी तरफ से शुरू हुये प्यार को अपनी तरफ से ही खत्म कर दिया। वाह री, पितृसत्तात्मक सत्ता! स्त्री की भावनाओं, प्रतिक्रियाओं, विचारों और राय की कोई आवश्यकता नहीं।
आज वह किस दोराहे पर खड़ी हो गई है। इससे तो अच्छा होता यह प्रेम का इजहार ही न हुआ होता कम से कम जिन्दगी के मायने यूँ तो न बदले होते। सहज जिन्दगी अब कितनी असहज हो गई थी, वही कालेज, वही मित्र-मंडली सब कुछ वही था लेकिन उसके लिये सब कुछ बेरौनक हो गया था। प्रणय के मुताबिक इस प्यार का अहसास उसे कालेज में प्रवेश के प्रथम दिन के साथ हुआ जिसे उसने हर रोज जिया था। बेचारी प्रिया, पहले तो उसे इसका आभास ही न हुआ और जब हुआ तो ‘चैप्टर’ बंद करने के फरमान के साथ। ‘क्या स्त्री की नियति सिर्फ पुरुष की मर्जी पर है ? प्यार करना या न करना इसके सर्वाधिकार सिर्फ पुरुषों के साथ ही सुरक्षित हैं ? क्या प्यार का ‘चैप्टर’ खोलना और बंद करना उन्हीं की इच्छा पर निर्भर है ?’ जितना विद्रोह था उसके मन में उतनी ही आहत भी थी वह। शायद ‘सहना’ ही नारी की नियति है। सहिष्णुता जो स्त्री का सबसे बड़ा गुण है आज उसे कमजोर बना रहा था। आखिर किसने दिया पुरुष को यह अधिकार कि जिन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण ‘चैप्टर’ उसकी मर्जी के मुताबिक खुले और बंद हो ? सोचते-सोचते कब उसकी आँख लग गई पता ही न चला। जब आँख खुली तो देखा रात खामोशी का आँचल ओढ़कर अपने पथ पर अडिगता से बढ़ती जा रही थी। सितारों के साथ चारों ओर सन्नाटा-खामोशी सी छा गयी थी। वह सोच रही थी यह खामोश, उदास समां कितना अपना सा लगता है ठीक उसकी जिन्दगी की तरह-दर्द, उदासी, खामोशी और वीरानियों से भरा। इंसान भावनाओं से क्यों हार जाता है ...... ? किसलिये टूट जाता है ?
‘नहीं यह मेरी नियति नहीं हो सकती, मैं इतनी कमजोर नहीं जो जिन्दगी के इस नाजुक क्षण में अपने को यूँ बिखरने दूँ’, अन्तर्मन से उठी इस हल्की प्रतिरोधात्मक आवाज को उसने सुनने का प्रयास किया। ‘आखिर कब तक पुरुष-प्रधान इस समाज में स्त्री खुद की बागडोर उनके हाथों में सौंपकर शोषित होती रहेगी ? कभी दहेज की माँग पूरी न होने पर रिश्ता ठुकराए जाने के रूप में और कभी मानसिक व भावनात्मक रूप से कमजोर बनाकर, कब तक .....? नहीं, कम से कम मुझे तो नहीं शिकार होना है इस व्यवस्था का।’ दृढ़-निश्चय के साथ उसने सिर को झटका दिया। ‘भावनाओं को परे ढकेलना ही होगा उसे आज, अभी, इस वक्त, वरना कल तो देर हो जायेगी।’ सोचते हुये उसने सुदूर आसमान में फिर से ताका तो वही अँधेरा अब निश्छल चाँदनी में तब्दील हो चुका था। रात की बोझिलता व नीरवता अब एक खास स्निग्धता व कोमलता में बदल चुकी थी। यह प्रकृति का व्यक्ति के साथ अद्भुत संयोजन था या उसके बदले विचारों का प्रभाव। कुछ तो था जो उसे अब महसूस हो रहा था। ठीक उसके सामने का चमचमाता हुआ धु्रव तारा-अटल, स्थिर। उसके चेहरे पर खुद-व-खुद हल्की मुस्कराहट तैर गयी और उसने अपने बोझिल दिल को बोझमुक्त, तनावमुक्त होते महसूस किया। एक विशिष्ट शान्ति के साथ वह सोने चली गई।
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विभागाध्यक्ष अंग्रेजी
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई (जालौन)
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