Thursday, September 17, 2009

अंक-9 नवम्बर 08-फरवरी 09 -- बुन्देलखण्ड विशेष


अंक-9 नवम्बर 08-फरवरी 09 -- बुन्देलखण्ड विशेष
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बात दिल की
भाषाई विकास का भी सोचिए!!

स्वतंत्रता आन्दोलन में बुन्देलखण्ड का योगदान


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख
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डा0 वीरेन्द्र सिंह यादव


भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा विश्व के सबसे बड़े आन्दोलनों में होती है क्योंकि इस आन्दोलन ने अलग-अलग विचारधाराओं और विभिन्न वर्गों के लाखों-लाख लोगों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से सक्रिय किया। इस स्वतंत्रता आन्दोलन की सबसे बड़ी ऐतिहासिक विशेषता यह थी कि इसे बिना किसी क्रांति के नैतिक, राजनीतिक साथ ही विचारधारात्मक तीनों ही स्तरों पर लम्बे जनसंघर्ष के द्वारा चलाया गया। हालाँकि इतिहासकारों के बीच यह बहस का मुद्दा रहा कि यह विद्रोह एक सिपाही बगावत था, राष्ट्रीय आन्दोलन था या सामंती प्रतिक्रिया का प्रस्फुटन मात्र? क्या भारतीय असंतोष को कम करके आंकने के लिये यह अंग्रेज इतिहासकारों की एक साजिश थी?
कारण कुछ भी हों परन्तु इतना तो कहा जा सकता है कि सन् 1857 ई. का विद्रोह उन विभिन्न असंतोषों का परिणाम था जिनसे भारतीय वर्षों से घुटन अनुभव कर रहे थे। सन् 1757 ई. से सन् 1857 ई. के सौ वर्षों में अंग्रेज कम्पनी भारत के विभिन्न क्षेत्रों को अपने राज्य में मिलाती जा रही थी। कम्पनी की भारत में इस गतिविधि से उसके राज्य का तेजी से विस्तार हुआ। फलतः शासन प्रणाली में मूलभूत परिवर्तन हुये। इसके संचित प्रभाव से भारत में सभी वर्गों, रियासतों के राजाओं, सैनिकों, जमींदारों, कृषकों, व्यापारियों, ब्राह्मणों तथा मौलवियों (केवल शहरी पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त वर्ग जो अपनी जीविका के लिये कम्पनी पर निर्भर थे) सभी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों के इन तरीकों ने भारतीय जीवन की शांत धाराओं को आंदोलित होने को विवश कर दिया, जिससे देश के विभिन्न भागों में हलचल पैदा होने लगी। कुलीन और जन-साधारण दोनों ही वर्गों में बढ़ता असंतोष और आशंका ही छोटे-छोटे विद्रोह के रूप में (सन् 1857 ई. के विद्रोह से पहले) वैल्लोर में सन् 1806 ई. में, सन् 1816 ई. में बरेली, सन् 1824 ई. में बैरकपुर, सन् 1831-32 ई. में कोल विप्लव तथा छोटा नागपुर और पलामू में अन्य छोटे विद्रोह, मुस्लिम आन्दोलन जैसे फेराजी उपद्रव-सन् 1831 ई. में बरासत (बंगाल) में सैयद अहमद और उनके शिष्य मीर नासिर अली या टीटो मीर के नेतृत्व में, सन् 1842 ई. में 34वीं रेजिमेंट का विद्रोह, सन् 1849 ई. में फरीदपुर (बंगाल) में दीदू मीर के पथ प्रदर्शन में (सन् 1849 ई, सन् 1851ई., सन् 1852 ई. और सन् 1855 ई. में मोपला विप्लव तथा सन् 1855-1857 ई. का संथाल विद्रोह)। सन् 1849 ई. में सातवीं बंगाल कैवेलरी और 64वीं रेजीमेंट और 22वीं एन.आई. का विद्रोह, सन् 1850 ई. में 66वीं एन.आई. का विद्रोह और सन् 1852 ई. में 38वीं एन.आई. का विद्रोह इत्यादि। इन विद्रोहों के पीछे अनेक राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक, सैनिक कारण हो सकते हैं परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि ये सभी अंग्रेजी शासन की नीतियों के विरूद्ध जनता के दिलों में संचित असन्तोष एवं विदेशी सत्ता के प्रति घृणा का परिणाम था। इस सामान्य विक्षोभ की धीरे-धीरे सुलगती आग सन् 1857 ई. में धधक उठी जिसने अंग्रेजी साम्राज्य की मजबूत बुनियाद की जड़ों को झकझोर (हिला) दिया। सन् 1857 ई. के इस विद्रोह को अंग्रेजी साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रभावित इतिहासकारों ने सामंती असंतोष की अभिव्यक्ति मात्र कहा है परन्तु वास्तव में प्रशासनिक, आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अंग्रेजों की नीतियों ने जो अस्तव्यस्तता एवं असंतोष की भावना ला दी उसकी ही अभिव्यक्ति सामंत सेना और जनता के माध्यम से सन् 1857 ई. की क्रांति, विप्लव या महान विद्रोह या प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में हुई।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की इस चिंगारी ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रगति को बढ़ावा दिया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की कहानी भारतीयों द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के संग्राम का इतिहास है। यह ब्रिटिश सत्ता की गुलामी से मुक्ति पाने के लिये भारतीयों द्वारा संचालित आन्दोलन था। सन् 1857 ई. में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतीयों द्वारा पहली बार संगठित एवं हथियार बंद लड़ाई ने राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में संघर्ष, समझ एवं एकता के बीज बोये। यद्यपि यह विप्लव असफल रहा, परन्तु इसने प्राचीन और सामंतवादी परम्पराओं को तोड़ने में पर्याप्त सहायता पहुँचायी तथा इसके बाद ही भारत आधुनिक स्वतंत्रता संघर्ष आन्दोलन के नये युग में प्रवेश कर सका।
देशव्यापी इस क्रांति का प्रभाव बुन्देलखण्ड की माटी पर भी पड़ा। बुन्देलों की इस वीर बसुन्धरा ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महती भूमिका अदा की है क्योंकि वर्तमान में बुन्देलखण्ड के नाम से प्रसिद्ध क्षेत्र का इतिहास अत्यन्त प्राचीन एवं गौरवशाली रहा है। यह भारत के हृदय प्रदेश के रूप में सुविख्यात अपनी स्वतंत्र चेतना के लिये महत्वपूर्ण माना जाता है। बुन्देलखण्ड को चेदि, मध्यप्रदेश, जैजाक-भुक्ति, आटविक, दशार्ण आदि प्राचीन नामों से भी संबोधित किया जाता है। इतिहासकार जयचंद विद्यालंकार ने विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी में विस्तृत क्षेत्र को बुन्देलखण्ड के नाम से सम्बोधित किया है। वहीं दूसरी ओर बुन्देलखण्ड की भौतिक शोधों के आधार पर निम्न सीमा निर्धारित की गई है-‘वह क्षेत्र जो उत्तर में यमुना, दक्षिण में विन्ध्य, प्लैटों की श्रेणियों, उत्तर-पश्चिम में चम्बल और दक्षिण-पूर्व में पन्ना व अजयगढ़ श्रेणियों से घिरा हुआ है, बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाता है।
बुन्देलखण्ड का यह भूखण्ड अपनी अदम्य प्रेरणाओं और स्वतंत्र प्रवृत्तियों के लिये प्राचीन काल से ही विशिष्ट है। मध्यकाल में महाराज छत्रसाल बुन्देला ने इस क्षेत्र के सुयश को आगे बढ़ाया। जिससे इसे बुन्देलखण्ड नाम दिया। चंदेलों और बुंदेलों की संतानों का शौर्य सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संग्राम आन्दोलन में पराक्रम एवं स्वतंत्रता की कामना ज्वलंत रूप से सामने आयी जब झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब और तात्या टोपे के सुयोग्य नेतृत्व में अंग्रेजों से युद्ध करते हुये भारतीय इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ा था।
भारत में राष्ट्रीय चेतना पूर्णरूप से सन् 1857 ई. तथा सन् 1921 ई. की अवधि के दौरान पुष्पित हुई और परवर्ती कालीन स्वतंत्रता आन्दोलन जिसे हम राष्ट्रीय आन्दोलन की संज्ञा देते हैं जो सन् 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के जन्म के साथ ही सुगठित रूप में सामने आया। जिसके नेतृत्व में भारतवासियों ने विदेशी शासन से स्वतंत्रता के लिये लम्बा और ऐतिहासिक संघर्ष किया। इस कालावधि के संघर्ष में बुन्देलखण्ड सक्रिय रूप से भाग ले रहा था। सन् 1905 ई. में बंग भंग के विरुद्ध आन्दोलन में बुन्देलखण्ड ने अपनी जुझारू प्रवृत्ति का परिचय दिया। सन् 1905 ई. से 1911-12 तक और सन् 1921 ई. से सन् 1930-31 ई. तक के आन्दोलनों में क्रान्तिकारी आन्दोलन के स्वर ही अधिक मुखर हुये। जिनमें से पहले में तो कम परन्तु द्वितीय चरण में चन्द्रशेखर आजाद और भगवानदास माहौर जैसे क्रांन्तिकारियों के नेतृत्व में बुन्देलखण्ड ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। बुन्देलखण्ड की इस प्रकृति और प्रवृत्ति की धारा में सन् 1921 ई. के असहयोग आन्दोलन के आह्वान पर अनेक वीर युवक सामने आये। सन् 1928 ई. में साइमन कमीशन के विरोध में और सन् 1930 ई. के सत्याग्रह आन्दोलन में भारी संख्या में बुन्देलखण्ड के शिक्षित युवकों ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ी। सन् 1931 ई. से सन् 1940 ई. के मध्य महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में बुन्देलखण्ड ने आजादी की राजनीतिक लड़ाई में बड़े उत्साह से भाग लिया, जेल यात्रायें की और पुलिस का दमन सहा। सन् 1942 ई. में भारत छोड़ो आन्दोलन में बुन्देलखण्ड की साधारण जनता ने भी गाँधी जी के आह्वान पर शासन से अहसयोग किया।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के महान नेताओं को उनके त्याग एवं बलिदान के लिये आज भी हम याद करते हैं किन्तु वे स्थानीय और आंचलिक नेता, जो स्वतंत्रता आन्दोलन की भागीदारी में राष्ट्रीय नेताओं के सहयोगी रहे एवं उनसे किसी भी स्तर (अर्थ) पर पीछे नहीं रहे, उनके योगदान का आज तक कोई उचित मूल्यांकन करने का प्रयास नहीं किया गया है। जब हम बुन्देलखण्ड के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं तो यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि अपने अनूठे शौर्य और स्वातन्त्रय प्रेम के कारण विदेशियों के विरुद्ध या राष्ट्रीय आन्दोलन में बुन्देलखण्ड सदैव से ही अग्रणी रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन में बुन्देलखण्ड के योगदान का अद्यतन न तो उचित मूल्यांकन किया गया है और न ही देश की प्रगति में इस क्षेत्र को बराबरी का भागीदारी बनाने की दिशा में कोई प्रयास किया गया। इसके अतिरिक्त बहुत से महत्वपूर्ण तथ्य जिनके मौखिक और अभिलेखीय साक्ष्य अभी उपलब्ध हैं जो लेखबद्ध नहीं किये गये हैं? बुन्देलखण्ड के आन्दोलन एवं स्वतन्त्रता के इतिहास की उसकी प्रकृति, प्रवृत्ति और उसकी गौरवमयी परम्परा का आंकलन करते हुये इस क्षेत्र को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन तथा क्रांतिकारी संगठनों का सम्यक् लेखा-जोखा अभी शोध के क्षेत्र में नहीं हुआ है। स्वतंत्रता आन्दोलन के उन अगणित शूरवीरों को समय के अन्धकार के गर्त से निकालकर प्रकाश में लाना आज की महती आवश्यकता है।

सम्पादक कृतिका एवम वरिष्ठ प्रवक्ता,
हिन्दी विभाग, डी.वी.कालेज, उरई(जालौन)
पिन-285001 उ0प्र0

बुन्देली हाइकु - राजीव नामदेव


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली हायकू
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राजीव नामदेव ’राना लिधौरी’


बुन्देली बानी,
सुनतन लगे हैं।
एनई नौनी।।
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नेता पैला तो,
हाथ पाँव जोरत।
फिर तोरत।।
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पुरा परोस,
हिलमिल रइयो।
गम्म खइयों।।
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रोजइ लगै,
न खटपट नोनी।
सास-बहू की।।
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गुटका खाकै,
बिगरी जा मुइयां।
बनी टुइयां।।

शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (म0प्र0)

बुन्देली कविता - डालचंद्र अनुरागी


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली कविता
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डालचन्द्र अनुरागी

(1) धरती को भगवान
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गांवन के रहवइया-भइया-मेहनत सील किसान।
धरती कौ भगवान कयें हम धरती कौ भगवान।।
ऊसर बंजर धरती तुमनै, खेती जोग बनायी।
कउं बांध हैं डारे तुमनै, कउं पै नहर बहायी।।
न देखी भोरइयां संजा, न देखी दुपहैरी।
अपने हांतन की मेहनत सौं है सुगन्ध फैलायी।।
डटे रहैं, खेतन में ऐसैं, सीमा डटे जवान।
धरती कौ भगवान कयें हम धरती कौ भगवान।।
मेड़न पै मखमल सी दूबा, खेतन में हरयाली।
लहलाती कोमल फसलन कौ है तूं नीकौ माली।।
तोहे गरे कौ हार बनातीं अरसी, मटरी राई।
तेरौ नित अभिनन्दन करती खड़ी खेत की बाली।।
झूम-झूम खेतन में गावैं, फसलैं स्वागत गान।
धरती कौ भगवान कयें, हम धरती कौ भगवान।।
घासफूस की बनी झोपड़ी, कुंआ पास में तेरौ।
जुनई बाजरा की रोटी संग, खारओ मठा महेरौ।।
तोरी शीतलता के आंगू शरमा गई जुन्हइया।
परमानन्द खेतन डीलन में, संजा होय भुरेरौ।।
फटो-पुरानौ, पटका पहरै, दैरओ सबकौ दान।
धरती कौ भगवान कयें, हम धरती कौ भगवान।।
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(2) श्रम की कहानी
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कौन जानै विदेशी असल बुन्देली बानी।
गाँव और खेतन की सुनियो कहानी।।
उग आयी खेतन में, जुनरी-समारी।
खुरपी सैं गोड़ रई गाँवन की नारी।।
लिख दई अंगुरियन सैं, श्रम की कहानी।
गाँव और खेतन की सुनियो कहानी।।
चँहक र्रइं मैंड़न पै गलगलियाँ कारीं।
सखियाँ मिल गाय र्रइं, गाँवन की गारीं।।
लँहगा गुलाबी ओढ़ लुंगरा रंग धानी।
गाँव और खेतन की सुनियो कहानी।।
सरसौं नै बाँध लई, दुल्हा की पगिया।
राई नै ओढ़ लई, पीरी चुनरिया।।
नाच उठी खेतन कै राजा की रानी।
गाँव और खेतन की सुनियो कहानी।।
पुरवा के झूला पै नन्हीं फुहारैं।
उठ र्रइं हिमालय सैं ठण्डी बहारैं।।
चुनरिया भीगी रें अंगिया जुरानी।
गाँव और खेतन की सुनियो कहानी।।
मुंय में वे हरिहर, हांतन में हँसिया।
मूंड़ी पै घैला है, काँधे गूंदरिया।
मेट दई आलस की नाम और निशानी।
गाँव और खेतन की सुनियो कहानी।।
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उरई जिला-जालौन

बुन्देली कविता - सुरेशचंद्र त्रिपाठी


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली कविता
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सुरेश चन्द्र त्रिपाठी


(1) हम जानत हैं
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समरथ का नइँ दोष गुसइयाँ, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
घलीं तुम्हाए कभउँ पन्हइयाँ, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
करने हते हाथ मोड़ी के पीरे, सो कढ़ुआ काढ़ो तो,
स्यानी बिटिया जैसें काढ़ी, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
रुक्का पै लगवाय अँगूठा, शुन्न बढ़ाय हजार लिख लये,
जमींदार है जौन आदमी, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
तब से ओखे बँजरा मैं, हर जोतत, दिहिया भई पुरानी,
अभउँ ब्याज कहाँ चुक पाओ, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
ब्याज सहित पैसा दै जा, लै जइये तब, कह छोर लै गओ,
कित्ती सूधी धौरी गइया, तुम का जानौ, हम जानत हैं।
ना मेवा, ना भोग मिठाई, दूध, दही, घी, नेनू, रवड़ी,
नोन -मिर्च के संग पनपथू, तुम का जानौ हम जानत हैं।
सर्जी, स्वेटर, कोट, रजाई, ऊनी कम्बल, गद्दा तकिया,
आये ओखे पास कहाँ से, तुम का जानौ हम जानत हैं।
बदरा, बुँदियाँ, हवा बरफ सी, कोहरा, माव-पूस को जाड़ो,
चदरा भर से रात काटबो, तुम का जानौ हम जानत हैं।
अतरे चैथे ठाड़ो द्वारे करत रहत है गारी-गुल्ला,
रामलली के आँखन अँसुआ, तुम का जानौ हम जानत हैं।
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(2) तरसा तरसो
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पानी उगलै नलकूप, नहाबे का बूढ़ो तरसा तरसो।
गोली गुटकै बन्दूक, धुरै फरसा के मन मन माहुर सो।।
करन माहौट चलो जब धाय, इन्द्र राजा की आज्ञा पाय।
देख हदरानो बदरा, खेत चिरइन नें सरसर पानी बरसो।।
सोच रइ घूरे वाली खाद, जमानों कर कर अपनो याद।
यूरिया, डी0ए0पी0 ने हरो कर दओ, खेत लगत्तो बंजर सो।।
मूड़ कटवाबैं निज बरसीम, हुय रहो चारो खुशी असीम।
चलै ना अब हमपै खुर्पी हँसिया, फूली जरिया को मन हरसो।।
बंधत्ते हीरा-मोती जितै, ढिले हैं ट्रिलर ट्रैक्टर उतै।
परे कोने मैं, बातैं कर कर रातै, गये दुखी हर बक्खर सो।।
ददा ने दवा दई छिरकाय, चना अब फूलो नईं समाय।
इली के लगीं ततइयाँ सीं, चोला उनको निज प्रानन का तरसो।।
बचत्ते जाड़े मैं न जांज जितै, हैं खस्सा लग रये आज।
डेक, टी0वी0, सुजुकी ने घरै भरदओ है गागर में सागर सो।।

911/1 राजेन्द्र नगर उरई उ0प्र0
मो0 9450880390

बुन्देली कविता - रामेश्वर प्रसाद गुप्ता 'इंदु'


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली कविता
रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ’इंदु’


(1) जी सें जो बुन्देलखण्ड, विश्व में ललाम जू
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रामजू रमाये जहाँ रज-रज, कण-कण,
जी सें जो बुन्देखण्ड विश्व में ललामजू।
ललामजू विराजते हैं विश्व वीर हरदौल,
छत्रसाल आल्हा और ऊदल के धामजू।।
धामजू है रानी झाँ, झलकारी औ अवन्ति,
नारी शक्ति भी प्रचण्ड इंदु आठों यामजू।
यामजू अवध रानी ने तो दिये वनवास,
ओरछा की रानी ने बनाये राजा रामजू। ।
रामजू की आरती उतारतीं हैं बार-बार,
हीरन की वीरन की भूमि कला कामजू।
कामजू है खजुराहो, कालिन्जर, देवगढ़
पन्ना के तो जुगल किसोर अभिरामजू।।
अभिरामजू हैं गिद्धवाहिनी, रतनगढ़,
मैइहर, पीताम्बरा, शीतला के धामजू।
धामजू को भेज दी खड़ाऊँ गये नहीं आप,
अवध लिवाने आया ‘इंदु’ यहाँ रामजू।।
रामजू की रामायण, चित्रकूट के चरित्र,
तुलसी की जन्मभूमि, कर्मभूमि नामजू।
नामजू हैं केशव, बिहारी, ब्रन्दाव्यास, गुप्त,
ईशुरी की फाग ‘इंदु’ लेखनी ललामजू।।
ललामजू है नर्मदा, बेतवा, पहूज, टौंस,
यमुना, धसान, केन, सिन्धु अभिरामजू।
अभिरामजू प्रकृति, कृति कला, ग्राम-ग्राम,
भारत के खंड में, बुन्देलखण्ड रामजू।।
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(2) मिट गईं राम मड़इंयाँ
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पता नहीं आसों के बदरा, का हैं राम करइंयाँ।
आफत के मारे किसान की, भर-भर जात तरइंयाँ।।
जैसे तैसे फसल बोई थी,
सूखी बऊ बिन पानी।
भई फसल पै बदरा ढाड़ें,
अब कैसे करें किसानी।।
जीको तको आसरो अबनों, नेंक काम को नइयाँ।
आफत के मारे किसान की, भर-भर जात तरइंयाँ।।
असवासन दे-दे कें झूठो,
ऊको कर्ज बढ़ा दओ।
माफ करावे के भाषन दे,
राशन और छुड़ा लओ।।
कयँ को सबइ भ्रष्ट भये भारत, अपनी भरें पुटइंयाँ।
आफत के मारे किसान की, भर-भर जात तरइंयाँ।।
मानुष की का, अब तो भूखे,
ढोर बछेरू मर रये।
बैरी बन रये सब किसान के,
अपनो बंडा भर रये।।
साउकार के बँगला बन गये, मिट गईं राम मड़इंयाँ।
आफत के मारे किसान की, भर-भर जात तरइंयाँ।।
सावन सूने, भादों सूने,
जल के लाने तरसे।
चढ़े चैत पै निष्ठुर बदरा,
लगत अबईं हैं बरसे।
‘इंदु’ चेतुआ चरन पखारे, जाओ और गुसइंयाँ।
आफत के मारे किसान की, भर-भर जात तरइंयाँ।।

बड़ागाँव (झाँसी)-284121(उ0प्र0)
मो0-9305172961

बुन्देली कविता - कृपाराम 'कृपालु'


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली कविता
कृपाराम ‘कृपालु’


(1) गरीब की मजबूरी
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चुटकी चून बचै नईं घर में,
का तुमें पै के खुवावो।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
हड़िया भर के धरी महेरी,
का लौं लरका खावें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
डरी मजूरी पांच दिनां की,
देवे में कतरावें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
काम लेत छाती में चढ़ कें,
ऊपर से गुर्रावे।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
भूके बच्चा संग लगाकें,
कांलौ फोंरा चलायें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
कत ‘कृपालु’ नेंक हम तर हेरो,
तौं हमहूँ पल जावें।
लाल मेरे रोटी खों इल्लावे।।
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(2) वे बासी खा जातीं
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अलख भोर जग जातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
चैंपे चऊवा काढ़ कें दोरें,
फिर वे मठा भमातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
गोबर, कूरा, सानी करकें,
वे चूलौ, सुलगातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
रोटी पानी सब निपटा कें,
फिर मोड़ा बिलमातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
मींड़ दूध में लरका खैहँ ,
वे बासी खा जातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
कहैं कृपालु वे मार कछोटा,
अकरी मोथा निरातीं।
तब कऊँ वे हारें जा पातीं।।
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रामनगर, उरई (जालौन) उ0प्र0

माँ क्यों उपेक्षित


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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अलग कोना
रूपाली दास ‘तिस्ता’


विवाह का सुन्दर सपना लिया एक औरत मायके से ससुराल आती है लेकिन वह गृहस्थी की चाकी में पिस कर रह जाती है। घर, पति और बच्चों के लिए खुद को उत्सर्ग करने वाली औरत की अपनी जिन्दगी नहीं होती। अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय वह अपनी गृहस्थी संभालने, बच्चों को आगे बढा़ने, उनकी पढ़ाई तथा उनके भविष्य की चिंता में लगा देती है। जब उसके जीवन की मंझधार उम्र में बहुत बड़े परिवर्तन होते हैं; उस पर शारीरिक एवं मानसिक बदलाव आता है; अकेलेपन की अनुभूति, असुरक्षा का भय, पारिवारिक जिम्मेवारियों का बढ़ना, भावनात्मक सम्बन्धों में बदलाव, मानसिक स्थिरता आदि परेशानियों का सामना करना पड़ता है। शारीरिक परिवर्तन उसकी शारीरिक-शक्तिहीनता को दर्शाते हैं जो औरत की मानसिक और भावनात्मक ताकत को कमजोर तथा अस्थिर बनाते हैं। पति और बच्चों की अत्यधिक व्यस्तता के कारण वह अकेली होती चली जाती है, यह अकेलापन उसमें असुरक्षा का भाव पैदा करता है। उम्र के इस पड़ाव पर उसके सामने कुछ संघर्ष, कुछ उलझनें, कुछ प्रश्न एक चुनौती पैदा करते हैं, जिनका उसे सामना करना पड़ता है। ऐसे में उसका साथी होता है मात्र उसका आत्मबल और आंतरिक ऊर्जा।
उम्र के इस पड़ाव पर उसे परिवार के प्यार, उसकी संवेदना की भरपूर दरकार होती है। जहाँ उसे पति के प्रेम नया जीवन दान देता है वहीं उसके बच्चों का प्यार, उनका सहृदय बर्ताव उसे जीने का सहारा देता है। बेटा-बहू, नाती-पोता यही उसका संसार होता है। यहाँ उसकी विडम्बना देखो कि यहाँ भी वह इस प्यार से वंचित रह जाती है।
मनुस्मृति कहती है कि मंत्र देने वाले दस गुरू के बराबर हैं एक आचार्य। शत आचार्यों के बराबर हैं एक पिता और हजार पिता के बराबर माता। माता का स्थान पृथ्वी में सर्वोपरि है फिर भी आज माँ क्यों उपेक्षित है। ‘माँ’ शब्द अपने आप में परिपूर्ण है, मधुर है। माँ का आँचल अत्यंत सुखद और शीतल है। दुःख हरने वाला शब्द ‘माँ’ अपने आप में ही संकटहारी है। माता अपने संतान को एक बीज से वृक्ष बनाती है। माँ के इन एहसानों का बदला संतान कभी चुका नहीं सकती फिर आज माँ क्यों उपेक्षित है? क्यों अपमानित है?
क्यों बेटा-बहू ये भूल जाते हैं कि ये दिन उनके लिए भी आयेगा जब उन्हें भी वृद्धावस्था में प्रवेश करना पड़ेगा। उन्हें भी इन सभी मानसिक और शारीरिक समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। उन्हें भी वृद्ध माँ और पिता बनकर अपनी ही संतानों द्वारा उपेक्षित होना पड़ सकता है फिर भी यह समस्या बरकरार है और माँ आज भी उपेक्षित है।

खाद़ी पारा, हाउस शोभाकुंज
पोस्ट बोलपूर, जिला-वीरभूम
पश्चिम बंगाल पिन-731204

बुंदेली महिला कथाकार और लोक संस्कृति


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख
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डा0 अवधेश चंसौलिया


बुंदेली माटी में जन्मी महिला कथाकार आज भले ही बुन्देलखण्ड से दूर अपनी रचनाधर्मिता में संलग्न हांे लेकिन उनके संस्कारों में, उनके मन में, रोम-रोम में बुन्देली जन-जीवन रचा-बसा है। यही कारण है कि जन्म से मरण तक के संस्कारों, रीतिरिवाजों एवं यहाँ के तीज त्यौहारों का जीवंत चित्रण इनके कथा साहित्य में सहजता से प्राप्त हो जाता है। बुंदेली महिला कथाकारों में मैत्रेयी पुष्पा का नाम सर्वोपरि है। मैत्रेयी जी ने बुदेली समाज को बहुत नजदीकी से देखा-परखा है। इसलिए इनके कथा साहित्य में बुंदेली जन-जीवन पूरी सूक्ष्मता, गहन आत्मीयता के साथ रूपायित हुआ है। बुंदेलखण्ड ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत में पुत्री की अपेक्षा पुत्र जन्म पर लोगों को अधिक प्रसन्नता होती है। पुत्र जन्म पर दिल खोलकर खर्च किया जाता है, नेग बाँटे जाते हैं, जबकि पुत्री जन्म पर लोग जन्म संस्कार से जुड़ी दाई का मेहनताना देने में भी संकोच करते हैं। ऐसी स्थिति में दाई, पुत्र-पुत्री में भेद न करती हुई सोहर गाती है -
‘‘जसोदा जी से हँस-हँस पूंछत दाई,
नंदरानी जी से हँस-हँस पूंछत दाई,
रातैं तो मैं लली जनाय गयी,
लालन कहाँ से लाई। जसोदा जी से....।’’ 1
रूढ़ियों से ग्रस्त बंदेली समाज में पुत्र को जन्म देने वाली माता को जो सम्मान प्राप्त है, वह पुत्री जन्मने वाली माता को नहीं है। तुम किसकी हो बिन्नी कहानी में पुत्री की माँ की मानसिक संघर्ष की स्थिति दृष्टव्य है-‘‘बिना पुत्र की जननी बने, वे माँ के गौरवान्वित पद को स्वीकार नहीं कर पा रहीं थी।...अधूरेपन का एहसास मकड़ी के जाले सा मन पर चारों ओर लिपट गया। सामाजिक परिवेश कटीला सा हो चला। तीज त्यौहार चिढ़ाते-बिराते से निकलने लगे। कलेजे में हीनता की हूक सी उठती, तो बेचारगी में पलट जाती.....यह एक बात उनके कलेजे को निरंतर उधेड़ती रहती कि-वे बेटे को जन्म नहीं दे सकी।’’ 2
पुत्र जन्म की प्रसन्न्ता अवर्णनीय होती है। ‘‘चाची आ गयीं। गोमा ने बालक को जनम दिया है। चाची थाली बजाने लगीं.....घर-घर बुलावे दिये जा रहे हैं। चैक पूरकर सांतियां घरे जायेंगे। चाची कोरा चरुआ भर रहीं हैं। बत्तीसा डालकर उबालने धरेगीं। गोमा को बत्तीसा का पानी पीना है। नेग सगुन हो रहे हें।....सोहर गाये जा रहे हैं-
ऐसे फूले सालिग राम डोलें, हाथ लिये रुपइया,
ए लाला के बाबा, आज बधाई बाजी त्यारे।।’’ 3
मैत्रेयी पुष्पा के अल्मा कबूतरी में बच्चे की छठी संस्कार का चित्रण यथार्थपरक है। ‘कदमबाई कबूतरी ने बेटे को जन्म दिया है। कबूतरे के डेरों पर गाँव के पंडित जी तो आते नहीं अतः पंडिताई का कार्य मलियाकाका ही करते हैं। बच्चे का पालना बाहर निकाला गया। चैक जगमगाने लगा। सरमन की औरत देवर को गालियाँ देकर, हल्की हो चुकी थी, सो सोहर गाने लगी। आधा गज नया कपड़ा भी ले आयी। कुर्ता टोपी के लिए।' 4
मैत्रेयी पुष्पा के कथा संसार में सामाजिक रीति-रिवाजों का जैसा विशद और सुन्दर चित्रण है वैसा अन्य किसी बुन्देली कथालेखिका के कथा लेखन में नहीं है। इस दृष्टि से उनके उपन्यास इदन्नमम्, बेतवा बहती रही, अल्मा कबूतरी, झूला नट तथा कहानी संग्रह ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। कहानी ललमनिया तो बारात चित्रण का विहंगम एवं मनमोहन दृश्य उपस्थित करने में बेजोड़ है। इदन्नमम् उपन्यास में ‘नव वधू की रोटी छुआई’ का दृश्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। जिसमें बुढ़िया, जब पुराना नाम ले लेकर नव वधू को बुलाती हैं तो वह कमरे से बाहर नहीं निकलती। लेकिन जैसे ही मंदा, बहू को नर्मदा नाम से पुकारती है तो वह झट से बाहर निकल आती है और उसका नाम ससुराल में नर्मदा पड़ जाता है। मैत्रेयी जी के कथा साहित्य में बुन्देली वाद्य यंत्रों को भी यथास्थान महत्व प्राप्त हुआ है। मंगल अवसरों पर यहाँ रमतूला बजाया जाता है। ‘मन्दाकिनी की पक्यात में रमतूला बजा टू ऊं टू ऊं बुलउवा दिये गये। कुसुमा का स्वर मंगल गीतों में सबसे ऊपर है।
‘‘सिया बारी बनरी, रघुनन्दन बनरे।
को को बरातें जाय मोरो लाल।।’ 5
बुन्देलखण्ड में जब नववधू आती है तब उसकी गोद में छोटे देवर को बिठाया जाता है। इस रस्म का सजीव चित्रण मैत्रेयी पुष्पा झूला नट उपन्यास में विस्तार से करती हैं।
मैत्रेयी पुष्पा के लोक कवि ईसुरी पर आधारित उपन्यास कही ईसुरी फाग में बुंदेली लोक-संस्कृति में रची-बसी फागों के अनेक दृश्य जीवंत हो उठे हैं। मैत्रेयी जी के कथा साहित्य में नौटंकी, रास, राई नृत्य, सुअटा खेल आदि लोक नृत्यों का दृश्यांकन बहुत ही आकर्षक रूप में हुआ है। ‘नारे सुअटा’ बुंदेली क्वांरी कन्याओं का एक महत्वपूर्ण पर्व है। अगनपाखी उपन्यास में क्वार के महीने में इस पर्व की मनोरम झाँकी प्रस्तुत हुई है। क्वांरी कन्याओं के द्वारा सुअटा की मूर्ति के सामने पूजा-अर्चना कर प्रभाती गाये जाने का दृश्य इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है -
‘‘उठो सूरजमल भैया भोर भये
उठो-उठो चन्दुमल भइया भोर भये
नारे सुअटा, मालिनी खड़ी तेरे द्वार
इन्दरगढ़ की, मालिनी नारे सुअटा, हाटा ई हाअ बिकाय।’’ 6
इन्हीं के उपन्यास इदन्नमम् में बुंदेली लोकनृत्य दिवारी का मनोहारी चित्रण बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है-
‘‘दिबरिया लोग, गाते हुए नाचते हैं। होऽऽ! होऽऽ! होऽऽ! होऽऽऽऽ!
दिबारी माय लक्ष्मी माय। हो मोरे गनपत महाराजऽऽऽज!
नाच जमने लगा। मोर पंख हिल रहे हैं। लोग डूबे हुए हैं रेग में। एक दिबरिया भागता हुआ आया और जा मिला समूह में.....बऊ थाली में खील बतासा गुड़ धरकर ले आयीं।’’ 7
मैत्रेयी पुष्पा के अतिरिक्त अन्य लेखिकाओं ने भी अपने साहित्य में बुंदेली रीति-रिवाजों, परम्पराओं को उकेरा है। डा0 छाया श्रीवास्तव की कहानी असगुनी में भी पुत्र जन्म पर खुशी में सोहर गाते हुए स्त्रियों के मनमोहक दृश्य हैं। ननद के कहने पर छोटी भाभी गाती है-‘‘हमको तो पीर आवें, ननद हँसत डोलें।’’ 8
डा0 कामिनी ने गुलदस्ता कहानी में सातवें महीने के गर्भ के समय लड़की के मायके से आने वाले पच की बात इस प्रकार की ‘बिटिया के अगर लड़का हुआ तो पच के लिए दो धोती, अच्छा ब्लाउज, बच्चे को कपड़े, दामाद को कुर्ता-धोती चाहिए। मिठाईयाँ, गेहूँ, दालें, चावल अलग। सोने की नहीं तो चाँदी की हाथ की पुतरिया, तबिजिया चाहिए। गिरिजा को तीन-तीन बिछिया नहीं तो गाँव वाले नाम धरेंगे। कोई क्या कहेगा कि घर में जुआरा बंधा है। खेती भी है और कुछ न भेजा।’’ 9
सामाजिक रीति-रिवाजों की विस्तृत और यथार्थपरक जानकारी होने के कारण लेखिकाओं के चित्रण अधिक सजीव और यथार्थ बन पड़े हैं। डा0 छाया श्रीवास्तव कहानी विकल्प में लड़की देखने का दृश्य इस प्रकार उपस्थित करती हैं-‘‘कानपुर के सब-इंजीनियर आये थे, दलबल सहित माँ, दो बहिनें, एक भाई के साथ। पिता ने आदर सत्कार में कमी नहीं रखी थी। लड़के ने भांति-भांति से इंटरव्यू लिया था। बहिनों ने तो नचाकर देखा था। पूरे दो दिन में वे महीनों का हिसाब बिगाड़ गये थे।’’ 10 जीवन पथ कहानी में भी छाया श्रीवास्तव ने वर-वधू के विवाह की रस्म के सुन्दर चित्रांकन के साथ बेटी की विदाई का बहुत ही कारुणिक दृश्य उपस्थित कर पाठकों को द्रवित करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है।’’ 11
डा0 पद्मा शर्मा ने रेत का घरोंदा कहानी में वधू के ससुराल आने पर कंकन खोलने के रिवाज का बड़ा ही मनोरंजक चित्र उपस्थित किया है। इसी कहानी में ससुराल में नई वधू से गाना गाने को कहा जाता है, इस प्रथा को दादरे गाने की रस्म कहा जाता है। नई वधू के समक्ष यह बहुत ही दुविधा की घड़ी होती है। वह सोचती है क्या गाऊँ क्या न गाऊँ। कहानी की नव वधू स्मिता ढोलक पर थाप देकर गा उठती है-
‘‘राजा की ऊँची अटरिया, दइया मर गई, मर गई
सासू कहे बहू रोटी कर लो, सब्जी कर लो,
राजा कहे मेरी रामकली की उंगली जल गई।’’ 12
विवाह में मामा द्वारा भात लाने की परम्परा बुन्देली समाज में बहुत महत्व रखती है। इस अवसर पर मामा अपनी सामथ्र्य के अनुसार सामान आदि की व्यवस्था करते हैं। भतैयों के स्वागत में बहिनें गाती हैं-
‘‘सुनो भैया करूँ विनती समय पर भात दे जाना।
ससुर को सूट सिलवाना, सास को साड़ी ले आना।
अगर इतना न हो भैया तो खाली हाथ आ जाना।
मण्डप की शोभा रख जाना।।’’ 13
बुंदेली महिला कथाकारों ने बुंदेली संस्कृति का अपने कथा साहित्य में जिस गहराई के साथ संरक्षण किया है, संस्कृति के प्रति वैसा समर्पण भाव, पुरुष कथा लेखन में लगभग अप्राप्त है। मेले, दंगल, पर्वों, त्यौहारों की विशेष सजधज तथा ग्रामीण संस्कृति की झलक पूरी तन्मयता और तीव्रता के साथ हमें महिला कथाकारों के कथा साहित्य में दृष्टिगत होती है। करवाचैथ भारतीय नारियों का विशेष पर्व है। इसका चित्राकन रजनी सक्सेना ने अपनी कहानी अन्तर संवाद में बहुत ही अच्छी तरह से किया है। इसी कहानी में शारदीय नवरात्रि का दृश्य भी अवलोकनीय है। डा0 शरद सिंह ने पिछले पन्ने की औरतें उपन्यास में चंदेरी (गुना) में लगने वाले बेड़नियों के मेले में ‘राई नृत्य’ का सुंदर चित्रण किया है-‘‘मशाल के इर्द-गिर्द पचासों दलों के रूप में सैकड़ों पुरुषों की भीड़ और उन दलों के मध्य पूरी सज-धज के साथ पचासों बेड़नियां...। रंग पंचमी की रात को ग्राम करीला में बेड़नियों का विराट मेला लगता है। समूची पहाड़ी बेड़नियों और उनके सोहबतियों के नाच रंग से नहा जाती है।’’ 14
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट होता है कि बुंदेली महिला कथाकार बुंदेली संस्कृति के लुप्त होते स्वरूप को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रही है। उनका कथा लेखन सोउद्देश्य है और वे इसमें पूरी तरह सफल भी हो रही हैं। महिलाएँ सचमुच लोक संस्कृति की सच्ची वाहिकाएँ हैं। लोक संस्कृति के संरक्षण में बुंदेली महिला कथाकारों के इस योगदान को निरंतरता मिलनी चाहिए।
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संदर्भ-
1. मैत्रेयी पुष्पा-रिजक, ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ (कहानी संग्रह) पृ0 18
2. वही पृ0 126
3. मैत्रेयी पुष्पा-गोमा हंसती है, ललमनिया तथा अन्य कहानियाँ(कहानी संग्रह) पृ0 167-168
4. मैत्रेयी पुष्पा-अल्मा कबूतरी पृ0 34 राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, 2004
5. मैत्रेयी पुष्पा-इदन्नमम पृ0 106, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली 1999
6. मैत्रेयी पुष्पा, अगनपाखी, पृ0 24-25, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 2003
7. वही पृ0 312
8. डा0 छाया श्रीवास्तव-असगुनी, आकांक्षी (कहानी संग्रह) पृ0 40, राजीव प्रकाशन, टीकमगढ़, 1997-98
9. डा0 कामिनी-गुलदस्ता पृ0 46 आराधना ब्रदर्स, गोविन्द नगर, कानपुर 1991
10. डा0 छाया श्रीवास्तव-विकल्प, आकांक्षी (कहानी संग्रह) पृ0 60
11. डा0 छाया श्रीवास्तव-परित्यक्ता पृ0 8 अमन प्रकाशन 1/20, महरौली दिल्ली 1981
12. वही पृ0 32
13. वही पृ0 105-106
14. डा0 शरद सिंह, पिछले पन्ने की औरतें, पृ0 278 सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली,2005

डी.एम. 242, दीनदयाल नगर
भिण्ड रोड ग्वालियर म0प्र0 पिन -47005

मधुरोपासक भक्तकवि हरिराम व्यास


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख
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डा0 बहादुर सिंह परमार


अपनी आन-बान और शान के लिए विख्यात बुन्देलखण्ड वसुधा में जहाँ एक ओर आल्हा-ऊदल और छत्रसाल जैसे योद्धाओं ने जन्म लिया वहीं दूसरी ओर जगनिक, विष्णुदास, गोरेलाल, ईसुरी और हरिराम व्यास जैसे महान काव्य प्रणेताओं ने इस माटी का नाम सार्थक किया है। मध्यकाल में जब भक्ति की धारा समूचे हिन्दी प्रान्त में प्रवाहित हो रही थी तब बुन्देलखण्ड के भक्तिकुंड में भी अनेक सन्त डुबकी लगाकर काव्य साधना के साथ लोक आदर्श के केन्द्र बिन्दु बने हुए थे। ऐसे ही लोकादर्श व भक्ति शिरोमणि व्यास का जन्म बेत्रवती सरिता के किनारे अवस्थित ओरछा नगरी में शमोखन शुल्क व देविकारानी के घर संवत 1567 की मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष 5 को हुआ था। इस विलक्षण बालक को परिवार से पुराण की परम्परा व माधव सम्प्रदाय की भक्ति भावना विरासत में मिली। हरिराम ने अपने पिता से भरपूर गुणों को ग्रहण कर पुराणवक्ता के रूप में क्षेत्र में इतनी प्रसिद्धि पाई कि उन्हें लोग व्यास जी कहने लगे। यही से हरिराम शुक्ल हरिराम व्यास हो गए। बालक हरिराम कुशाग्र बुद्धि के थे। इनकी प्रतिभा से क्षेत्र में लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे। जब हरिराम व्यास लगभग बीस वर्ष की अवस्था के थे तभी बुन्देला राजाओं ने गढ़कुंड़ार के स्थान पर ओरछा को राजधानी बनाने का निर्णय लिया जिससे नगर का चतुर्दिक विकास होने लगा। इधर राजधानी होने से राजदरबार में विद्वान आने लगे। आए दिन व्यासजी के विद्वानों से शास्त्रार्थ होने लगा जिसमें उन्हें विजयश्री सदैव मिलती रही। इसी क्रम में हरिराम व्यास ने काशी पहुँचकर अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ किया। काशी में उन्हें यह अनुभव हुआ कि शास्त्रार्थ और मात्र तर्क से जीवन सफल नहीं किया जा सकता हैं। जीवन में भक्ति के लिय प्रेम, सहजता, भाव प्रवणता तथा मन की एकाग्रता आवश्यक हैं। वहाँ से लौटकर वे ओरछा आये तथा बाद में वृन्दावन गए। उन्होने तीर्थाटन किया। इस दौरान भक्त कवियत्री मीराबाई से भी मिले। वे जीवन में ओरछा व वृन्दावन आते-जाते रहे और उन्होने जीवन के अन्तिम क्षण वृन्दावन में ही बिताए।
मधुरोपासक हरिराम व्यासजी द्वारा हिन्दी में रचित रागमाला, व्यासजू की बानी, रस-सिद्धान्त के पद, व्यासजू की बानी सिद्धान्त की, व्यासजी के रस के पद, व्यासजी के साधारण पद, व्यासजी की पदावली, रास पंचाध्यायी, व्यासजी की साखी तथा व्यास जी की चैरासी नामक दस ग्रन्थ मिलते हैं। इनके ग्रन्थों में भारतीय संगीतशास्त्र, ज्ञान परम्परा, भक्ति साधना तथा जीवन दर्शन के विविध पक्ष गहनता से प्रकट हुए हैं। प्रेम और समर्पण के साथ सख्य भाव भक्ति के विवध रूप तथा अराध्य राधाकृष्ण की छवियाँ प्रमुखता से देखने को मिलती हैं। इनके काव्य में तत्कालीन समाज में व्याप्त तमाम विसंगतियों पर प्रहार भी दृष्टव्य हैं। वे जीवन में जितने सरल, निश्छल और प्रेमी थे उतने ही परम्पराभंजक भी थे। व्यासजी भक्त को भक्त मानते थे वह चाहे किसी भी जाति या वर्ण का हो। जब वर्ण-व्यवस्था के तहत छुआछूत चरम पर थी तब व्यासजी इस भेद को नकारते हैं। इनसे जुडी एक कथा बुन्देलखण्ड में प्रचलित हैं जिसके अनुसार व्यासजी कुलीन और विद्वान भक्त की तुलना में अछूत भक्त का अधिक सम्मान करते थे। इस भावना से समाज के कुछ लोग उनसे चिढते थे तथा कहा करते थे कि ये मात्र दिखावा करते हैं। इस भाव की परीक्षा लेने हेतु उन्होंने योजना बनाई कि व्यासजी को भंगिन के हाथ से जूठा प्रसाद सार्वजनिक रूप से खिलाया जाए। किसी मंदिर से साधु भोजन के उपरान्त एक भंगिन जूठी बची हुई सामग्री ला रही थी। समाज के उन चिढ़ने वाले लोगों ने उस भंगिन से व्यास जी को प्रसाद देने की बात कही। व्यास जी को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई और उन्होंने सहजता से उस भंगिन द्वारा जठून में से दी गई प्रसाद की पकौड़ी को आदरपूर्वक लेकर ग्रहण किया, जिसे देखकर वे चिढ़ने वाले लोग भी दंग रह गए। ऐसे लोगों के आचरण को हरिराम व्यासजी ने उद्घाटित किया है, जो ब्राम्हण कुल में जन्म लेकर दूसरे को ठगने के लिए वेद-पुराणों का सहारा लेते हैं। जिन्हें भक्ति भाव का भान नहीं होता, वे सत्य से दूर मिथ्या को अपनाने वाले होते हैं, जो नरकगामी होते हैं। व्यासजी लिखते हैं -
‘बाम्हन के मन भक्ति न आवै।
भूलै आप, सबनि समुझावै।।
औरनि ठगि-ठगि अपुन ठगावै।
आपुन सोवै, सबनि जगावै।।
वेद-पुरान बेंचि धन ल्यावै।
सत्या तजि हत्याहिं मिलावै।।
हरि-हरिदास न देख्यौ भावै।
भूत-पितर, देवता पुजावै।
अपुन नरक परि कुलहिं बुलावै।।’
(हरिराम व्यास, सं0 वासुदेव गोस्वामी पृ0 90)
उन्हें साधुओं की सेवा करने में बड़ी रुचि थी। एक बार संतों की एक मंडली व्यासजी की अतिथि हुई। जब सब प्रकार से आग्रह करने पर भी वह मंडली एक दिन और रुकने के लिए राजी नहीं हुई तो व्यासजी ने उनके ठाकुर जी उठा लिए और उनके स्थान पर चुपचाप एक पक्षी बन्द कर दिया। साधु जब चलने लगे तो व्यासजी ने उनसे कहा कि आप लोग हमारी अनुमति के बिना जा रहे हैं। देखिये आपके ठाकुर जी आपको पुनः यहाँ लौटा लायेंगे। इस कथन पर बिना ध्यान दिये साधुमंडली वहाँ से चली। तीन मील चल कर सरिता में साधुओं ने स्नान करने के उपरान्त ज्यों ही अपने ठाकुरजी की सेवा करने के लिए संपुट खोला तो उसमें से एक पक्षी निकल कर वृन्दावन की ओर को उड़ गया। साधुओं को व्यास जी की यह याद आई जो उन्होंने चलते समय कहीं थी। वे पुनः वापस आये। व्यास जी प्रसन्न हुए। उनके ठाकुर देकर उन्होंने उस मंडली का पूर्ववत् आदर सत्कार करना प्रारम्भ किया। जब भक्तों के प्रति व्यासजी की आदर भावना और निष्ठा की चर्चा चारों ओर हुई तो उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से एक महन्त उनके पास आये और अपने को बहुत भूखा बताते हुए भोजन माँगने लगे। उस समय व्यास जी के आराध्य देव युगल किशोर जी को भोग नहीं लगा था। अतः व्यासजी ने उन महन्तजी को थोड़ा देर ठहरने के लिए कहा इस पर महन्त जी उन्हें गालियां देने लगे। व्यासजी ने विनम्र भाव से यह दोहा पढ़ा।
‘व्यास’ बड़ाई और की, मेरे मन धिक्कार।
संतन की गारी भली, यह मेरी श्रृंगार।।’
इसे सुनकर महन्तजी को चुप हो जाना पड़ा। थोड़ी ही देर में ठाकुरजी को भोग लग जाने पर एक पत्तल परोस कर व्यासजी उन महन्त जी के लिए ले गये। उसमें से थोड़ा सा ही खा कर महन्त जी ने पेट के दर्द का बहाना करते हुए वह प्रसाद जूठा कर वहीं छोड़ दिया। व्यासजी ने उस उच्छिष्ट प्रसाद को मस्तक से लगाया और खाने लगे। सन्त-सेवा और प्रसाद के प्रति इतनी श्रद्धा देखकर परीक्षक महन्त गद्गद हो गये और उनके नेत्रों में आँसू भर आये।
व्यासजी पूर्ण समर्पण भाव से राधा कृष्ण की भक्ति करते थे। इनके सम्बन्ध में लोक में अनेक किंवदंतियों लोकमुख में जीवित हैं। व्यासजी के जीवन की सबसे प्रसिद्ध घटना है उनके जनेऊ तोड़कर नूपुर बांधने की। एक समय रास में नृत्य करती हुई राधिका जी के चरण के नूपुर की डोरी टूट गई। रास लीला में विक्षेप पड़ने लगा। उपस्थित रसिक जन एक दूसरे का मुँह ताकने लगे परन्तु उपाय सूझा तो व्यासजी को। उन्होंने चट से अपना यज्ञोपवीत तोड़कर नूपुर बाँध दिया। यह देखकर उपस्थित लोगों ने व्यासजी से ताना देते हुए कहा कि ब्राह्मण होकर तुमने जनेऊ ही तोड़ डाला? व्यासजी ने उन्हें यह उत्तर दिया कि मेरे यज्ञोपवीत का लक्ष्य ही श्रीराधिका के चरणों की प्राप्ति करना ही तो था।
एक दूसरी घटना यह कही जाती है कि किसी ने श्री ठाकुरजी की सेवा के लिए एक जरकसी पगड़ी चढ़ाई। व्यासजी ने उस पगड़ी को धारण करने का असफल प्रयत्न किया, क्योंकि उसके बांधन में वह पगड़ी ठाकुरजी के मस्तक से बार-बार खिसक पड़ती है। अन्त में परेशान होकर व्यासजी ने यह कहकर उसे वहीं छोड़ दी कि मेरी बँधी पसन्द नहीं आती तो स्वयं बाँध लो। थोड़ी देर के उपरान्त जब वे मन्दिर के भीतर गये तब उन्होंने अपने इष्टदेव को पगड़ी बाँधे हुए पाया।
इसी तरह हरिराम व्यास जी के सम्बन्ध में ओरछा के आसपास यह दंतकथा और प्रचलित है कि शरद-ऋतु की ज्योत्सना से मुक्त एक रात बेतवा नदी के किनारे अपने आराध्य श्री ठाकुरजी की मूर्ति के समक्ष अपने प्रिय शिष्य महाराज मधुकर शाह के साथ रास रचाई। इस रास में प्रेमभाव से बेसुध होकर व्यासजी नृत्य करते रहे और उनके साथ महाराज मधुकर शाह ने भी नूपुर बांधकर नृत्य किया। प्रेमभाव से युक्त नृत्य देखकर देवगण प्रसन्न हो गये थे और आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी थी। कहा जाता है कि आकाश से धरती पर गिरा प्रत्येक पुष्प सोने का हो गया था। इसीलिए इस बेतवा घाट का नाम ‘कंचनाघाट’ पड़ा।
व्यासजी राधाकृष्ण ने अनन्य भक्त थे। कहते हैं कि उन्होंने राधाकृष्ण के अतिरिक्त किसी की पूजा नहीं है। यहां तक कि अपनी पुत्री के विवाह के अवसर पर भी गणेश पूजन करने से इंकार कर दिया था। जिसके कारण परिजनों व समाज का विरोध उन्हें झेलना पड़ा था। व्यास जी ने अपने जीवन में एकनिष्ठ भक्ति भाव के मर्म को पहचान कर उपासना की विविध जड़ीभूत सच्चाइयों को अस्वीकार कर प्रेम के मूल्यों को नये ढंग से परिभाषित किया।
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एम.आई.जी.-7, न्यू हाउसिंग बोर्ड कालौनी
छतरपुर (म0प्र0)

झाँसी की रानी


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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धरोहर कविता
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सुभद्रा कुमारी चौहान


सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटि तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी,
चमक उठी सन् सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
कानपुर के नाना की मुँहबोल बहन ‘छबीली’ थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,
बरछी, ढाल, कृपाल, कटारी उसकी यही सहेली थी,
वीर शिवाली की गाथाएँ
उसको याद जबानी थीं।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता का अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध, व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,
महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी
भी आराध्य भवानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
सुभट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया,
शिव से मिली भवानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजयाली छाई,
किन्तु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाईं,
रानी विधवा हुई हाय! विधि को भी नहीं दया आई,
निःसंतान मरे राजा जी
रानी शोक-समानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया,
अश्रुपूर्ण रानी ने देखा
झाँसी हुई बिरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
अनुनय-विनय नहीं सुनता है, विकट फिरंगी की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौजी ने पैर पसारे अब तो पलट गई काया,
राजाओं नब्वाबों के भी उसने पैरों को ठुकराया,
रानी दासी बनी यह
दासी अब महारानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
छिनी राजधानी देहली की, लिया लखनऊ बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,
जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात,
बंगाले, मद्रास आदि की
भी तो यही कहानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
रानी रोई रनिवासों में, बेगम ग़म से थी बेज़ार,
उनके गहने-कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरेआम नीलाम छापते थे अंग्रेजों के अखबार,
‘नागपूर के जेवर ले लो, लखनऊ के लो नौलख हार’,
यों परदे की इज्जत पर-
देशी के हाथ बिकानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
कुटिया में थी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुधुंपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रणचंडी का कर दिया प्रकट आवहान,
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो
सोई ज्योति जगानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरमन से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थीं,
मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापुर में भी
कुछ हलचल उकसानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
इस स्वतंत्रता-महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,
नाना, धुंधुंपंत, ताँतिया, चतुर अजीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास-गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम,
लेकिन आज जुर्म कहलाती
उनकी जो कुरबानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
इनकी गाथा छोड़ चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में,
जख्मी होकर वाकर भागा
उसे अजब हैरानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थककर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना-तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार,
अंग्रेजों के मित्र सिंधिया
ने छोड़ी रजधानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
विजय मिली, पर अंग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,
अब के जनरल स्मिथ सन्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आईं थीं,
युद्ध-क्षेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी,
पर, पीछे ह्यूरोज आ गया
हाय! घिरी अब रानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
तो भी रानी मार-काटकर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था यह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,
रानी एक शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार पर वार,
घायल होकर गिरी सिंहनी
उसे वीर-गति पानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेईस की, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आई बन स्वतंत्रता नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गई
हमको जो सीख सिखानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।
जाओ रानी याद रखेंगे हम कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनाशी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी,
तेरा स्मारक तू ही होगी
तू खुद अमिट निशानी थी।
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी।
खूब लड़ी मर्दानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।।

बुन्देलखण्ड में होरी


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख
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श्याम बहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’


अपँए देस भारत के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड भाग में अलग-अलग जगाँ अलग-अलग तरीकां से होरी को त्यौहार मनावे की परम्परा देखबे कों मिलत है।
फागुन महीना में लगतई खैम यानी कै होरी को डाँड़ो धरवे सें लैकें फागुन के अन्त लौं बल्कि चैत की ओंठें-नौं लोग लुगाईं, बूढे़-बारे सबईं एक रंग में रंगे दिखाई देत और बो रंग है होरी को उन्मादी प्रेम रंग, जीको रूप उजागर होत है आपुस में एक-दूसरे के गालन में मले गये रंग-अबीर सें। गाँवन में देखत हैं मान लें कौनउँ भौजाई गोबर पाथ रइ या अपँए द्वारें गोबर सें चैंतरा लीप रइ और गाँव-मुहल्ला के कौनउँ देवर लला ढिंगा सें निकर भर गए तौ समजो नजर बरकाकें उनकी पीठ पै गोबर को लौंदा छप्पइ हो जानें, भौजी के हाँत में पानी भरी गड़ई पर गइ तौ पिछाउँ से उनके ऊपर पानियँइँ लौंड़ दओ जात, कछू नइयाँ तौ देउर पै धूरइ उल्ला दई। ऐसे में बिचारे देउर लला कों हँस-मुस्क्या कें भगबे के सिवा कौनउँ रस्तइ नइँ सूझत। सारी-सरजें, जीजा-सारे फागुन के महीना में गाँव में चायँ जाके घरै आ जायँ, फिर तौ समजो बिनकी कुगतइ हो जानें। जित्ते जाने लागती के लगत और उन्नें देख लओ तौ समझो जित्ते मौं उत्तिअइँ छुतयानी बातें, उत्तेइ हातन रँग-अबीर-कारोंच आदि उनहें अपँए स्वागत-सत्कार में मिलनेंइँ मिलनें हैं।
चैत की फसल ठाड़ी है। नुनाई हौनें है। पकी फसल सें भरे लैलहात खेतन कों देख किसानन को मन एक नई उमंग में भरो रहत है। खुशी के मारें गाँवन में रातन ढोल और झाँझन के बीच रस भरी फागें और तरा-तरा के रसीले गीत सब मिलकें गाउत हैं। फागुन की पूनों कों बाजे-गाजे के साथ होरी गीत गाउत भए गाँव के बाहर सबरे होरी उराउत हैं और कण्डा-लकड़ियाँ-गोबर के बल्ला जरत होरी में डार के गोजा-गुजियाँ आदि पकवान और रंग-अबीर चढ़ा कें होरी की पूजा करत हैं। बाके बाद बई में सें आगी ल्याकें अपने-अपने घरन में सब परिवार के संगै होरी जराउत हैं। सब एक दूसरे कें रंग-अबीर लगाउत हैं। गले मिलत हैं, छोटे अपने बड़िन के पाँव छू कें आशीर्वाद लेत हैं। बस होरी जरबे के टैम सेंइँ रंगा-रंग सुरू हो जात। जितै देखों उतइँ रंग-अबीर। छोटे-बड़े औरत-मर्द सबई बंदरा-लँगूरन जैसो मौं बनाय दिखाई देत। सबइ नर-नारी आपुस के ईरखा-द्वेष, भेदभाव कों भूल कें एक-दूसरे के गरे मिलत हैं। कोउ काउ की गारियन को या उल्टी-सीदी कही बातन को बुरो नइँ मानत। जा है इतै की होरी जो आपुस में प्रैम और भाईचारा को सँदेसो आजउँ दै रइ।
होरी के त्यौहार पै घर-घर में कम से कम दो-चार दिना पैले सें तरा-तरा कीं मिठाईं, गोजा-गुजियाँ, झार के लड़ुआ, ऐरसे आदि बनबो सुरू हो जात है। होरी कों गाँव भर में मिठाइयन की, पुआ-पुरीं, कचैरियन आदि पकवानन की मँहक सबकों बिनइँ खायँ छका देत है। घर-गांव सें दूर नौकरी और ब्यौपार-बंज क्रबे बाले लोग अपने बाल-बच्चन समेत अपने गाँव आकें घर-परिवार के संगै ई पावन त्यौहार मनाउत हैं। आपुस में एक-दूसरे के घर की भौजाइयें देवरन को नौता करकें अपने हाँत सें बनाए पकवान खबाउतीं हैं और उनके रंग-अबीर, लगाउतीं हैं, काजर-बूँदा टिकली-माहुर लगा कें आशीर्वाद देतीं हैं। देवर भी भौजाई कों मिठाई और उपहार बगैरा भेंट करत हैं। ऐसो प्रैम-आनन्द सब जगाँ मिलबो दुरलभ है।
गाँव खिली होरी की एक झाँकी हम अपँए गीत के माध्यम से अपुन औरन कों दिखा रए। बिल्कुल आँखन देखी है, देखो-एक जीजा जू होरी पै अपनी ससुरार में आन फंसे। उनपै कैसें होरी खिली, उनपै का बीती, सो देखो-
होरी को हुरदंग
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नन्दबाइ ने चिठिया लिख दइ, होरी पै जिन अइयो।
इतै कुधर हो जै है बालम! चार दिना गम खइयो।।
जीजा-जू आये तै तौरस, गत-उनकी देखी ती,
घर-घर से आये ते नोंता, होरी ऐन खिली ती,
माहुर-बूँदा-टिकुली रुच-रुच कर गइँ तीं भौजाई,
माँग भरी सेंदुर से, ओंठन लाली चटक लगाई,
ऐसे फँसे भगउ नइँ पाये, तुमउँ न आ फस जइयो।। इतै कुधर हो जै है..
गाँव भरे की भौजाइन ने करी कुगत सो छोड़ो,
भओ अँगाई का-का साजन। ध्यान उतै कों मोड़ो
द्वारें कढ़े कि चार मुचण्डा भइयन नें गपया लयो,
घात लगायें बैठे ते सब, उन्नें गधा मँगा लयो,
फिलट रंगों तो मौं जीजा को, होसयार तुमं रहयो।। इतै कुधर हो जै है..
उन्ना सब उतार कें, उनकों लँहगा पैराओ तो,
अँगिया बाँधी ती छाती पै, जम्फल हिलगाओ तो,
उढ़ा चुनरिया, मौं पै हल्को डार दओ तो घूंगट,
मौंर बाँध दइ ती खजूर की उनके माथे पै झट,
जबरन दव बेठार गधा पै, तुमउँ न हँसी करइयो।। इतै कुधर हो जै है..
बजन लगे ते ढोल-झाँझ ढप, आये तबई गबइया,
फागें गब रइँ तीं छुतयानी, का बतायँ हा दइया,
भीड़ गबउआ-हुरियारिन की चली नचत गाउत भइ,
जीजा जू की चली सबारी पाछूँ सें मटकत भइ,
सबई लगत ते रीछ-लँगूरा, तुमउँ न हुरया जइयो।। इतै कुधर हो जै है..
राई-नोंन उसारें कोऊ, बिजना कोउ डुलाबैं,
द्वारिन-द्वारिन जीजा जू को टीका बे-करवाबै,
गुजिया ख्वाय, मार कें गुल्चा हँस रइँ तीं भौजइयाँ,
जीजा जू जब नजर लेत ते, भकुर जात ती मुँइयां,
होरी को हुरदंग बुरो है, ससुरारै जिन अइयो।
इतै कुधर हो जैहे बालम! चार दिना गम खइयो।


रजिस्ट्रार
शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय,
ग्वालियर म0प्र0

बुन्देली साहित्य से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा - साक्षात्कार

प्रख्यात अनुवादक, समीक्षक एवं साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार डा0 रामशंकर द्विवेदी से स्पंदन के प्रबन्ध सम्पादक डा0 लखनलाल पाल द्वारा बुन्देली साहित्य से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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साक्षात्कार


लखनलाल पाल-साहित्य की एक परम्परा होती है। बुन्देली साहित्य की भी एक परम्परा है। आने वाली पीढ़ी उस परम्परा को आगे बढ़ाती है। आज के इस दौर की पीढ़ी उस परम्परा को कितना आगे ले जा सकी है?
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रामशंकर द्विवेदी-आपके प्रश्न के दो तीन बिन्दु हैं, एक साहित्य की परम्परा, दूसरी बुन्देली साहित्य की परम्परा और तीसरा बिन्दु है बुन्देली साहित्य की परम्परा और नई पीढ़ी का योगदान। दरअसल यह प्रश्न काव्य भाषा से जुड़ा हुआ प्रश्न है। हिन्दी के मध्यकाल और बहुत कुछ आधुनिक काल तक काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा का प्रभुत्व रहा है। बुन्देलखण्ड के कवि भी ब्रजभाषा में रचना करते रहे हैं। ब्रजभाषा के सम्बन्ध में एक उक्ति है-’ब्रजभाषा हेतु, ब्रजवास न अनुमानों’ अर्थात ब्रजभाषा की रचना करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि ब्रज क्षेत्र में निवास किया जाये। किसी समय ब्रजभाषा सिखाने के लिए गुजरात में भी एक पाठशाला थी, जिसका नाम था ‘खरतरगच्छ’ की ब्रजभाषा पाठशाला। इसलिए बुन्देली क्षेत्र की काव्य भाषा बहुत दिनों तक ब्रजभाषा ही बनी रही।
बुन्देल क्षेत्र की बोली काव्य परम्परा को खोजने के लिए सागर विश्वविद्यालय के बुन्देली पीठ के तत्वाधान में एक पुस्तक माला लिखी हुई है, उसमें बुन्देली की प्राचीन काव्य परम्परा और बुन्देली की आधुनिक काव्य परम्परा नाम से दो पुस्तकें छपीं। रीमासागर भोपाल तथा जबलपुर और जीवाजी विश्वविद्यालय से बुन्देलीभाषा और साहित्य पर कुछ शोध भी हुए हैं पर ब्रजभाषा की तरह परिनिष्ठित बुन्देली की कोई काव्य परम्परा नहीं मिलती है। जहाँ तक नई पीढ़ी और बुन्देली की बात है तो मंचों पर जरूर बुन्देली के कुछ कवि अपनी रचनायें सुनाया करते हैं लेकिन उनकी रचनाओं में कोई दम नहीं है क्योंकि कोई भी बोली जब काव्य भाषा का रूप धारण करती है तो उसे काव्य भाषा के रूप में ढालना पड़ता है। वैसा विराट प्रयास यहाँ किसी ने नहीं किया क्योंकि उसमें उन्हें कोई आदर मिलने की सम्भावना नहीं थी।
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लखनलाल-बुन्देली बोली (भाषा) और बुन्देलखण्ड पर काफी कुछ लिखा जा चुका है। फिर भी ऐसा लगता है, जैसे हम वहाँ तक नहीं पहुँच सके हैं, जहाँ तक हमें पहुँचना चाहिए था। इस पर आप क्या कहेंगे?
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द्विवेदी जी-दरअसल बुन्देलखण्ड पर और बुन्देली पर ये दोनों अलग-अलग काम है। बुन्देलखण्ड के इतिहास, भूगोल यहाँ की आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति, शिक्षा प्रणाली, राजे महाराजे संस्कृति, बुन्देली कला, पुरातत्व, भवन निर्माण कला, गढ़, किले, मूर्तिकला, पर्यटन स्थल, खजुराहो, देवगढ़ आदि पर हिन्दी और अंग्रेजी में बहुत काम हुआ है। उसका सूचीकरण भी किया गया है। कनिंघम ए0वी0 कीथ और मैक्समूलर तक ने इस क्षेत्र पर काम किया है लेकिन ऐसा कोई ग्रंथ आज तक नहीं निकला है जिसमें इस कार्य का मूल्यांकन किया गया हो। नई पीढ़ी में न तो उनके काम को जानने की जिज्ञासा है और न ही कोई प्रयास है। उनकी प्रवृत्ति तो इतिहास की शुरुआत अपने से करने की है। एक कहावत है ‘चुकरिया में गुड़ फोड़ना’ वे यही करते आ रहे हैं और अपनी पीठ आप ठोंकते जा रहे हैं।
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लखनलाल-बुन्देली का पत्र साहित्य समृद्ध रहा है। बुन्देली राजाओं ने पत्र बुन्देली में लिखे हैं। उस समय की बुन्देली और आज की बुन्देली में अंतर होगा ही। आपकी दृष्टि में यह अन्तर कितना है?
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द्विवेदी जी-जीवन में चिट्ठी-पत्री या अपनी बात दूसरों तक पहुँचाने के लिए किसी लिखित माध्यम का सहारा लेना यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। बुन्देली में पत्र लिखने की यहाँ कोई समाज से जुड़ी परम्परा नहीं मिलती है। राजकाज चलाने के लिए विभिन्न रजवाड़ों में पत्र व्यवहार हुआ करता था, ऐसा पत्र व्यवहार अठारहवीं शताब्दी से मिलता है। महाराजकुमार डा0 रघुवीर सिंह ने इस संदर्भ में काफी काम किया है। बुन्देलखण्ड से सम्बन्धित उन्होंने दो ग्रन्थ छपवाये हैं। इन दस्तावेजों पर मराठी, उर्दू, फारसी और कहीं-कहीं बुन्देली का प्रभाव मिलता है। ये बुन्देली में लिखे हुए पत्र नहीं हैं। स्योंढ़ा के डा0 सीता किशोर खरे ने अपनी शोधमण्डली द्वारा दो क्षेत्रों की पत्र पाण्डुलिपियों पर काम किया है। ये भी राजे-रजवाड़ों में होने वाले पत्रों के नमूने हैं और इनका क्षेत्र ग्वालियर और दतिया है। इनमें भी बुन्देली के रूप मिलते हैं। ठेठ बुन्देली में ये भी नहीं है। कुछ पत्र झांसी की रानी के भी मिले हैं, जिन पर शिवपुरी के डा0 परशुराम शुक्ल ‘विरही’ ने काम किया था। वह पुस्तक भोपाल से छपी थी। अब वह नहीं मिलती है।
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लखनलाल-सुना गया है कि बुन्देली मे भी रासो काव्य लिखा गया है किन्तु इस सम्बन्ध में बहुत कम लोगों को जानकारी है। ऐसे दुर्लभ ग्रन्थों को प्रकाश में क्यों नहीं लाया गया?
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द्विवेदी जी-सारे ग्रन्थ छपे हुए हैं, झांसी के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी और बुन्देलखण्ड महाविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा0 भगवानदास माहुर ने इन्हें छपवाया था। उनका शोधकार्य भी है ’हिन्दी काव्य पर 1857 का प्रभाव’ और उनका शोधग्रंथ पहले अजमेर से छपा था, अब दिल्ली से छप गया है। बात यह है कि नई पीढ़ी को इस संदर्भ में कोई जिज्ञासा नहीं है। वह तो पकी-पकाई खीर चाहती है, हाथ-पैर नहीं चलाना चाहती है और न ही परिश्रम करना चाहती है। इसी जिले के रेंढर के डा0 श्यामबिहारी श्रीवास्तव ने बुन्देली की रासो काव्य परम्परा पर शोध किया और उनका वह शोधग्रंथ प्रकाशित भी है और उपलब्ध भी होता है।
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लखनलाल-आप तो अनुवाद से जुड़े हैं। आपको इस विधा पर साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है। क्या किसी अन्य भाषाओं का बुन्देली भाषा में अनुवाद हुआ है?
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द्विवेदी जी-देखिये ऐसा है, बुन्देली में मेघदूत का अनुवाद कुण्डेश्वर के पं0 गुणसागर सत्यार्थी ने किया है और उनका यह अनुवाद बहुप्रशंसित है। वैसे बुन्देलखण्ड में तो ब्रजभाषा और खड़ी बोली में बहुत से संस्कृत ग्रन्थों के, अंग्रेजी ग्रन्थों के, फारसी और उर्दू ग्रन्थों के अनुवाद हुए हैं लेकिन बुन्देली में और अनुवाद हुए हों इसकी जानकारी नहीं है।
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लखनलाल-बुन्देली में गद्य की अपेक्षा काव्य अधिक लिखा गया है। वृन्दावन लाल वर्मा जैसे साहित्यकारों ने बुन्देली की अपेक्षा खड़ी बोली को अपनाया है। बुन्देली गद्य ग्रन्थों की कमी का मूल कारण क्या है?
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द्विवेदी जी-दरअसल गद्य भाषा के रूप में किसी बोली का विकास राज्याश्रय अथवा उस बोली से जीविका से जुड़े होने के बाद होता है। दरअसल आज तक गद्य की भाषा शिष्ट भाषा ही मानी जाती रही है क्योंकि उसमें आप जीवन की गम्भीर से गम्भीर बात व्यक्त कर सकते हों, फिर जो भाषा राजकाज चलाने का और शिक्षा का माध्यम हो, गद्य भाषा के रूप में उसी का विकास होता है। यह जरूर है कि मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, मणिपुरी, गढवाली आदि कुछ भाषाओं के गद्य साहित्य की भी बड़ी पुष्ट परम्परा है। बुन्देली की ओर इस तरह का कोई प्रयास नहीं किया गया।
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लखनलाल-आप ही की बात को पुनः लेते हैं। भोजपुरी, राजस्थानी, मणिपुरी आदि लोक प्रचलित बोलियाँ है, जिन पर आज बहुत कुछ लिखा जा रहा है। उनकी अपनी पत्रिकायें भी हैं, लेकिन बुन्देली का साहित्यकार या तो असमय मर जाता है या पलायन कर जाता है। पत्रिकायें कितनी दोषी हैं?
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द्विवेदी जी-बुन्देलखण्ड में लोक साहित्य को समर्पित जो भी पत्रिकायें निकलती हैं उनकी मूल भाषा, मध्यम भाषा खड़ी बोली है। वे खड़ी बोली में बुन्देलखण्ड के लोक साहित्य, संगीत, कला और लोक जीवन के विविध अंगों पर लेख छापती है, वे बुन्देली भाषा में नहीं निकलती हैं। बुन्देली बोलने वालों की न कोई आवाज है, न ही कोई राजनैतिक संरक्षण है और न ही आज तक केन्द्र सरकार पर कोई दबाव पैदा कर सके हैं। संविधान में जो भाषायें सूचीबद्ध हैं उनमें बुन्देली नहीं है। केवल बुन्देली में लिखने वाला आज तक पुरस्कृत नहीं हुआ है और न बुन्देली के लिए अलग से पुरस्कार है। इसलिए बुन्देलखण्ड जिस पिछड़ेपन को भुगत रहा है उसे बुन्देली भाषा भी भुगत रही है। चूँकि बुन्देलखण्ड अंग्रेजों का क्रान्ति का मुख्य केन्द्र रहा था, इसलिए ब्रिटिश सरकार इसकी उपेक्षा करती रही और हमारी सरकार भी उसी परम्परा पर चल रही है। इसी कारण साहित्यकार और अन्य लोग भी निराश हो जाते हैं।
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लखनलाल-बुन्देली की चर्चा हो और ईसुरी का नाम न हो तो चर्चा अधूरी सी लगती है। बुन्देली और ईसुरी एक दूसरे के पूरक बन गये हैं। इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं?
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द्विवेदी जी-टीकमगढ़ में वीरेन्द्र केशव परिषद बनी है। बीरसिंह द्वितीय विशाल भारत के सम्पादक, बनारसीदास चतुर्वेदी को अपने यहाँ लाये। बनारसी दास चतुर्वेदी ने वही से मधुकर पाक्षिक पत्र निकालना शुरू किया। अब प्रश्न उठा कि इसमें छापा क्या जाये? तब यह हुआ कि बुन्देलखण्ड के इतिहास संस्कृति, साहित्य, कला, भाषा, नदियाँ, लोकगीत, लोकसंगीत सब पर लिखवाया जाये, तब बुन्देली कवियों की खोज की गयी। इसमें मिले ईसुरी फिर वहीं से ईसुरी की फागों के तीन भाग निकले। जिनका सम्पादन कृष्णानन्द गुप्त ने किया। उस परिषद से अजमेरी जी भी जुड़े हुए थे। अजमेरी जी एक गुणी व्यक्ति थे, वे गाते बहुत अच्छा थे, नकल भी अच्छी उतारते थे साथ ही कई भाषाओं के ज्ञाता थे। अजमेरी जी जहाँ-जहाँ जाते थे ईसुरी की चौकड़याँ सुनाया करते थे। इस तरह ईसुरी का प्रचार-प्रसार हुआ। अब तो ईसुरी की फागों के कई संग्रह निकल गये हैं। ईसुरी से प्रेरित होकर कई लोगों ने उन जैसी फागें लिखीं और फाग परम्परा चल निकली। वैसे ईसुरी मामूली कवि थे। कुछ लोग उनकी तुलना कालिदास से करते है, लेकिन ऐसा नहीं है। ईसुरी जिस गाँव में रहते थे उस गाँव में क्रान्तिकारी भी आते थे। 1857 का विद्रोह भी चल रहा था किन्तु ईसुरी के काव्य में उसकी कोई झलक नहीं थी। हाँ ईसुरी की कुछ उक्तियाँ ऐसी है जो लोक जीवन के निकट हैं और आज भी प्रचलित हैं। उनमें बड़ी व्यंजना शक्ति है।
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लखनलाल-ईसुरी की चैकड़ियाँ होली में गहरा रंग बिखेरती हैं। होली जैसे त्योहार का हुल्लड़ तो ईसुरी की फागों में है। क्या ईसुरी का या उनके साहित्य का प्रभाव किसी अन्य साहित्य या साहित्यकार पर भी पड़ा है?
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द्विवेदी जी-ईसुरी की कविता का प्रभाव महाकवि बच्चन पर पड़ा है और इसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक दस द्वार से सप्त सोपान तक में किया है। उन्होंने उसी छन्द में खड़ी बोली में कुछ चौकड़ियाँ भी लिखी हैं। उसका कारण है कि उनका सम्बन्ध बुन्देलखण्ड से रहा है। वे बांदा, झांसी और ललितपुर में आते-जाते रहे हैं।
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लखनलाल-बुन्देलखण्ड के पात्र साहित्यकार को अमर बना देते हैं, वे चाहे वृन्दावन लाल वर्मा हो या सुभद्राकुमारी चौहान या मैत्रेयी पुष्पा। वृन्दावन लाल वर्मा और मैत्रेयी पुष्पा ने यहाँ के पात्रों को लेकर उपन्यास रचे हैं। उनके उपन्यासों में बुन्देली बोली का कितना योगदान रहा?
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द्विवेदी जी-कोई भी कथाकार अपनी कथा रचना के लिए उसी क्षेत्र को चुनता है, जहाँ वह रचा बसा हो। वृन्दावन लाल वर्मा यहाँ के रहने वाले थे इसीलिए उन्होंने बुन्देलखण्ड के इतिहास को लेकर ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की। किसी भी क्षेत्र से लिया गया पात्र पहले से गढ़ा हुआ नहीं होता है, उसे लेखक की कल्पना गढ़ती है। रचनाकार उसके व्यक्तित्व को कितना रच सका है यह उसकी प्रतिभा, कल्पना और कला पर निर्भर करता है। वृन्दावन लाल वर्मा ने जीवन्त पात्रों की रचना की है, उनके पात्र अमर हैं। उन पात्रों को उभारने के लिए बुन्देलखण्ड की प्राकृतिक पृष्ठभूमि बड़ी कारगर रही है लेकिन उनके उपन्यासों की आधार भाषा खड़ी बोली है, बुन्देली नहीं है। कहीं-कहीं बुन्देली का बघार उन्होंने लगाया है। इससे यहाँ की माटी की सोंधी गन्ध उनके उपन्यासों में आ गयी है। जहाँ तक मैत्रेयी के बुन्देलखण्ड पर आधारित उपन्यासों की बात है, बुन्देलखण्ड पर आधारित उनके सिर्फ तीन उपन्यास हैं। ‘इदन्नयम’, ‘अल्मा कबूतरी’ और ‘कही ईसुरी फाग’। ‘बेतवा बहती रही’ उनका एक कहानी संग्रह भी है और उनकी आत्मकथा का अंश ’कस्तूरी कुण्डल बसै’ भी बुन्देलखण्ड में बिताये गये जीवन पर आधारित है लेकिन उनके उपन्यासों की भाषा खड़ी बोली है, बुन्देली नहीं है।
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लखनलाल-अन्त में आप बुन्देली भाषा के बारे में और बुन्देली के पाठकों से क्या कहना चाहेंगे?
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द्विवेदी जी-देखिये हम जिस क्षेत्र में रहते हैं, जिसके हवा, पानी से हमारा निर्माण हुआ है, उसके प्रति हमारे हृदय में प्रेम होना चाहिए। बुन्देलखण्ड में लोक साहित्य सम्बन्धी अभी भी पर्याप्त सामग्री बिखरी पड़ी है हमें उसका संकलन, सम्पादन तथा प्रकाशन करना चाहिए। यह तो हुई साहित्य और कला की बात। बुन्देलखण्ड में आम आदमी का, किसानों का, मजदूरों का, गुणी व्यक्तियों का इतना विविधमुखी जीवन है कि उस जीवन को भी शब्दबद्ध किया जाना चाहिए। यहाँ पर लोकगीतों के अलावा लोकमुख में बूढ़े पुराने लोगों के पास वाचिक परम्परा की ऐसी समृद्ध ज्ञान राशि है कि उसे भी एकत्र करना चाहिए। आधुनिकता, टी0वी0, इंटरनेट, भूमण्डलीकरण, विश्व व्यापार, छिछली राजनीति और बाजारवाद का जो भीषण प्रभाव नई पीढ़ी पर पड़ रहा है जो हमारे पारम्परिक जीवन को, पारम्परिक मनोरंजन के स्रोतों को, ऊर्जा के स्रोतों को, जल के स्रोतों को, हमारी संस्कृति को खाये जा रहा है, उससे हमें बचना चाहिए।

खटिया


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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कहानी
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मेघराज सिंह कुशवाहा


बैशाख का महीना। गेहूं, चना की फसल कट चुकी है। खेत खाली पड़े हैं। हरियाली हीं दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती। चारों ओर साफ सपाट दिखाई दे रहा है। ऐसा लगता है जैसे गर्मी आ जाने पर शोक-संतृप्त खेतों ने बाल मुड़वा लिये हैं। सूखे खेतों में दर्रे फट आये हैं। खेत मुँह बाये हैं जैसे बिना दाँतों की कोई बुढ़िया आधा मुँह खोले हुए कहना चाहती है, पर कह न पा रही है। गर्मी जोरों पर है। सिंचाई का कोई साधन सुसुनई नदी के किनारे बसे इमिलिया गाँव में नहीं है, न कोई नहर, न कोई ट्यूबवेल। कुओं का ही सहारा है। गाँव के आधे से ज्यादा कुए सूखे पड़े हैं। जिनमें थोड़ा-बहुत पानी बचा है। उन कुओं के किसान एकाध बीघा में शाक-सब्जी उगाये हुए हैं। झुंड के झुंड जानवर और आदमी गर्मी की तपन से बचने के लिए पेड़ों की छाया में ऊंघते दिखाई देते हैं।
रामदीन एक छोटा किसान, इस वर्ष फसल ठीक-ठाक हो गई घर के खर्चे और बिटिया का कछोटा छुड़ाने की विदाई के बाद जो पैसा बचा उससे पडुवा वाले खेत में कुँआ खुदवाने का मन बनाया। अपने गाँव के ही पचसेरा महाराज से पत्रा दिखाने के बाद लगन सुदवाकर पंडित जी के बताये अनुसार सत्यनारायण की कथा और ब्राम्हण भोजन खेत में रामदीन ने कराया। पूजा-अर्चना के बाद पंडित पचसेरा महाराज ने पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा के बाद रामदीन से ही खेत में एक जगह पाँच फावड़े मिट्टी खुदवाकर शुभ मुहूर्त में खुदाई का काम शुरू करा दिया है। पचसेरा महाराज ने रामदीन को आशीर्वाद देते हुए कहा, कि जजमान धरम-करम करने से तथा ब्राम्हण भोजन कराने से तुम्हारा खेत पवित्र हो गया है। इसमें अगर खारा पानी भी होगा तो वह मीठा हो जावेगा।
रामदीन ने अपने पड़ुवा वाले खेत में कुँआ खोदने का ठेका बगल के गाँव करौंदा के ठेकेदार करोड़ीमल को दिया। करोड़ीमल ने अपने मजदूर कनछेदी, घसीटी, किलकोटी, रजवा और तरिया के साथ रामदीन के खेत की मेड़ पर लगे आम, महुआ के पेड़ों के नीचे घास-फूस की टपरिया बना ली और कुँआ खोदने का काम करने लगे। दिन भर मेहनत करने के बाद मजदूर उन झोपड़ियों में खाना बना खा-कर सो जाते हैं और सुबह उठकर खाना-पीना करके फिर कुँआ खोदने लगते। उन मजदूरों में एक लम्बा, मोटा, काला भूत जैसे शरीर वाला मजदूर जो बहुत ही आरामतलब और कामचोर था। एक रात करवट बदलते हुए उसने अपने पास लेटे हुए घसीटा से कहा कि ‘‘जमीन में लेटने से नींद पूरी नहीं होती, खटिया का इंतजाम हो जाये तो बहुत अच्छा हो।’’ कनछेदी की बात सुनकर घसीटा ने कहा कि ‘‘तुम कहीं के जमींदार, राजा, महाराजा नहीं हो, व्यर्थ बकवास करके मेरी नींद क्यों खराब करते हो। मजदूर के घर में पैदा होकर खटिया के ख्बाव देखना आकाश-कुसुम को पाने जैसा है। तुम्हारे भाग्य में खटिया, गद्दा, तकिया, रजाई नहीं है और न कभी होना है। कथरियों में इतना जीवन कटा, आगे भी इसी तरह कटना है। सो जाओ, मेरी नींद खराब न करो।’’
कनछेदी ने कहा-‘‘मजदूर के यहाँ पैदा होने का मतलब यह तो नहीं कि सपने न देखें आगे बढ़ने का प्रयास न करें। गरीबों को क्या आराम से जीने का हक नहीं है। घसीटे अगर तू मेरा साथ दे दें तो कल सबेरे ही खटिया, गद्दा तो क्या देशी घी का हलुवा, पूड़ी का भी इंतजाम कर दूँ।’’
घसीटा बोला-‘‘क्या तुम्हारा दिमाग फिर गया है जो बक-बक कर रहे हो। तुम तो मरोगे ही साथ में मुझे भी मरवा दोगे। गद्दा, तकिया कोई लकड़ी का गट्ठर नहीं जो जंगल गये और काट कर ले आये। रतजगा मत करो, सबेरे कुए में नीचे उतर कर खुदाई करना है, चूके तो काम से गये।’’ घसीटे ने आगे समझाया-‘‘तेते पाँव पसारिए जेतीं लांखी सौर। भइया कनछेदी हवा में न उड़ो। जमीन पर चलो। भगवान को खटिया, हलुवा, पूड़ी देना होता तो किसी राजा-रईस के घर में पैदा करता। सब उसकी मर्जी से ही होता है। एक पत्ता भी उसकी मर्जी के बिना नहीं हिलता।’’
कनछेदी बोला-‘‘हमारी इन्हीं बातों ने हमें निकम्मा बना दिया। क्या आदमी कुछ नहीं करता? सब कुछ क्या ईश्वर ही करता है? घसीटा ने फिर कहा-‘‘सो जाओ भइया। मेरी नींद क्यों खराब कर रहे हो। सबेरे यदि काम नहीं हुआ तो ठेकेदार भगा देगा। बच्चे भूखों मरेंगे।’’ कनछेदी फिर भी न माना, सोते-सोते उसने कहा-‘‘ठीक है भइया। फिर भी मेरी एक बात मान लेना। तुम पण्डा बन जाना मैं घूर बाबा का घुल्ला बन जाऊँगा। फिर देखना खटिया, गद्दा, तकिया, हलुवा, पूड़ी सब आ जावेगा।’’ बातें करते करते दोनों सो गये। पता नहीं चला कि सबेरा कब हो गया।
ठण्डी-ठण्डी हवा, सुबह का सुनहरा मौसम, चिड़ियाँ चहकने लगीं, गाँव के बच्चे, बूढ़े, औरतें सब पौ फटते ही शौचक्रिया के लिए खेतों की ओर आ-जा रहे थे। कोई दातुन कर रहा है, कोई हाथ-पैर धो रहा है, कोई नहा रहा। सब अपने-अपने काम में लगे हैं। कनछेदी बड़े सबेरे नहा धोकर तैयार हो गया। खेत की मेड़ पर ऊँचाई में बैठ कर जोर-जोर से हकहकाने लगा, कुल्हाटें खाने लगा, चीख कर जोर की आवाज करने लगा। आवाज सुनकर घसीटा आ गया। जोर-जोर से घसीटा चिल्लाया-‘‘बाबा सिरे आये हैं। कनछेदी भगत के। ढाक लाओ, गाँव वालों सच्चा देवता है। पूजा का इंतजाम न हुआ तो अनर्थ हो जायेगा। सब मारे जायेंगे। ढोर, डंगर कुछ न बचेगा, सब स्वाहा हो जायेगा।’’ घसीटे की आवाज सुनकर गाँव के बच्चे, बूढ़े नर-नारी इकट्ठे हो गये। ढाक बजने की आवाज सुनकर भारी भीड़ इकट्टी हो गई। लोभान, धूप की धुनी जलने लगी। नींबू, सिन्दूर, अण्डा, नारियल, पूजा का सब सामान आ गया। कनछेदी का मोटा-ताजा शरीर उचकने-कूदने लगा। जोर-जोर से पीठ पर अपने हाथ से कोड़े लगाने लगा। लोगों में काना-फूसी होने लगी कि सच्चा देवता है। घसीटे ने कहा ‘‘घूर बाबा ने जाने कितनों को माला-माल किया है, बच्चा दिया, धन-दौलत दी, बीमारी ठीक की, अंधो को आँखें दी, बहरों को कान दिये, शादी ब्याह कराये सच्चा देवता है।’’ लाइन लगाकर गाँव के गरीब, पिछड़े, अंधविश्वासी एक-एक कर फरियाद करने लगे। देवता सभी की मुराद पूरी करने का वचन देकर आश्वस्त करते और भभूत के साथ आशीर्वाद देते।
पति-पत्नी का एक जोड़ा हाथ जोड़कर खड़ा हुआ। घूर बाबा ने कहा-‘‘फल नहीं लगता घटोरिया बाबा के सामने पेशाब कर दी थी, शादी की विदा के समय गाँव के मेड़े पर। घटोरिया बाबा तभी से नाराज हो गये, इसी से फल नहीं लग रहा है। जा माफी माँग घटोरिया बाबा से। पूरनमासी के दिन बकरे की बलि चढ़ा देना। पाँच नीबू, पाँच अण्डा, पाँच पान, पाँच सुपारी, सेंदूर लगाकर इतवार, बुधवार को चैराहे पर बाबा के नाम से चढ़ा देना। तेरी मनोकामना पूरी होगी। इस तरह गाँव के बूढ़े, बच्चे, नर, नारी फरियादियों को बाबा ने आशीर्वाद दिया। गाँव की खुशहाली, अच्छी फसल तथा सुख समृद्धि जीवन की कामना की। गाँव में छोटी बिरादरियों में टोना-टुटका बहुत माना जाता है। इसीलिए घूर बाबा का प्रभाव गाँव के इन्हीं लोगों पर पड़ा। घूर बाबा और उसके पण्डा घसीटा के लिए गद्दा, तकिया, खटिया का इंतजाम तो हुआ ही साथ ही आटा-दाल, देशी घी का इंतजाम हो गया। घसीटा ने होम धूप कर नींबू, अण्डा की बलि दी, सिन्दूर चढ़ाया, नारियल तोड़ा, सुपारी, पान की चढ़ोत्तरी दी। बाबा से शांत होने की प्रार्थना की, घूर बाबा जोर-जोर से उछल-कूद करने के बाद हकहकाकर शांत हो गये। सभी लोग अपने-अपने काम पर चले गये। मजदूर कुँए पर काम करने लगे।
कनछेदी ने कहा-‘‘कहो घसीटे मेरी धूर्त विद्या सफल हो गई। गाँव वालों ने सोने-खाने का पूरा इन्तिजाम कर दिया। आदमी हिम्मत न हारे तो सब कुछ पाया जा सकता है।’’ घसीटा ने कहा ‘‘यह धोखाधड़ी है। ठगी है। गाँव के सीधे-साधे लोगों को ठगना अच्छा नहीं है।’’
कुँआ खुद गया, मजदूर और ठेकेदार अपने गाँव लौट गये। समय बीतता गया। ठेकेदार, मजदूर उस घटना को भूल गये। डेढ़ वर्ष बाद कनछेदी के गाँव में एक पति-पत्नी का जोड़ा अपने बच्चे को गोद में लिये आया। गाँव में कनछेदी भगत को पूछा। उनका घर पूछा। गाँव वालों ने बताया कि कनछेदी तो हैं पर उसको कोई देवता नहीं आते। पति-पत्नी ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कनछेदी के दरवाजे पर पहुँच गये तो देखा कि वही मोटा-ताजा, काला-कलूटा आदमी चबूतरे पर बैठा है। दोनों ने कनछेदी के पैरों में बच्चे को लिटा दिया। पाँव छुए और कहा कि आपके आशीर्वाद का ही परिणाम है यह। कनछेदी ने समझाया कि मुझे कोई देवता नहीं आते। मैंने तो खटिया के लिए झूठा नाटक रचा था पर वह दम्पति नहीं माना। कनछेदी के पाँव पकड़कर पूरी पोशाक के साथ नारियल और एक सौ एक रुपया भेंट दी साथ ही प्रार्थना करके कहा कि इस बच्चे की शादी होगी तो आपको आशीर्वाद देने जरूर आना है। कनछेदी आश्चर्यचकित मुँह बाये पति-पत्नी को देखता रहा।

1506, अंतियाताल रोड,
लोहा मण्डी, झांसी

गंजेड़ी


नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली कहानी
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डा0 लखन लाल पाल

- ‘आजा रे! धन में आगी छुब जाय, यौ हौ जलम रोग आय....... ईखें कौन कभऊँ बढ़ानै है, एक दिना मर जैहिन सो सब इतईं डरो रै है, स्वसुर के काए मूँड़ औधाएँ खंगो है।’ उस्मान नै रामसेवक खें चिलम पीबे के लानै रंग चढ़ाओ। रामसेवक सन छील रओ तो, ओनै यहाँ वहाँ दिखो, आस-पास कोऊ नई दिखानो सो ऊ हँरा सें बोलो-‘चच्चा तनक ठहर जा, ईखें यहाँ वहाँ हो जान दै, मैं ठौर पै पहुँच जैहों।’
- ‘भग गंड़िया, लुगाई से इत्तौ डिरात हित ता काहे खें मुड़या लओ।’ उस्मान नै रामसेवक पै बिंग छोड़ो।
- ‘समझे करे चच्चा, वा हल्ला मचाउन लगत, को खुपड़िया खबवा है?’
- ‘ऐ... हैं.... है.... है.... बड़ौ खुपड़िया खबवाबे सें डिरात।’ उस्मान नै रामसेवक खें डपटो-’लुगाई की धुतिया तैं पहर लै रे, और घूँघट काढखें भीतर बैठ जा फिर तुहै कोऊ कहाय ता नीज्जात से पांच पन्हइया घलवाइये। रामसेवक बेबस हँस परो -‘चच्चा तै कौन मान हित, चलौ मैं अभई थोरी देर में आउत।’
रामसेवक ने सन कौ पूरा बखरी के कोने में टिका दओ और अपनी दस बरस की बिटिया रामबाई सें बोलो -‘बिन्नू अम्मा रतिया के घरै गई है, वा आ जावै सो बता दइए कि मैं ल्वहरा के इतै हँसिया खुरपी पिटवाउन गओ। मोखे देर लग जैहे।’ रामबाई लत्ता की पुतरियन से खेलत ती, औने हओ कर दई। रामसेवक खें ओखी हओ कम बजनीली लगी सो ओने फिरसें टटोलो-‘बिन्नू अम्मा खें का बता हित?’ रामबाई पुतरिया कौ सिंगार कर रई ती, वा नाक सुड़क खें बोली-‘कह दैहों दाऊ गांजौ पियन गओ।’
- ‘हैत्तोर नाश हो जाय, तुहै भुमानी परै, तै मोखें जानबूझ खें मरवा डरा हित।’ रामसेवक अपनी बिटिया के नीगर जाखें जोर सें चिल्लानो-‘काए मौड़ी तोखें कम सुनात है का?’
-‘हओ-ऽ... मोए कानन पै नई चिल्ला..... मोई पुतरिया नै काल से खाओ नहियाँ।’ बिटिया की गुस्सा में रामसेवक कौ गुस्सा हिरा गओ। औने बिटिया कै मूंड़ पै हांत फेरो-‘बिन्नू तोई पुतरिया नै काल से काए नई खाओ?’
- ‘पुतरा रोज गाँजो पियन जात, पुतरिया रोज हटकत मानतई नहिंया।’’ मौड़ी के उत्तर सें रामसेवक सन्न रह गओ। या मौड़ी पुतरियन सें येऊ खेल खेलत। गाँजौ तौ महूँ पियत, या मौड़ी सब कछू जानत समझत। ओखे अपने आप पै कछू शरम सी आई। उस्मान चच्चा ओखे काल सौ दिखो। ओखौ मन भओ कि गंजेड़ियन के ईगंर न जावै पै ऊ जादा देर ठहर न पाओ। ओने ई बातन खें अपने तरक (तर्क) से काटो-‘गाँजो पीखें मैं कौन आँय बाँय आय बकत हौं। अपने पइसन कौ तौ बहुत कम पियत। काम बरोबर करतई हौं, फिर काऊ खें का परेशानी? परेशानी है, बिन्नू की अम्मा खे परेशानी है। वा कहत - ‘गाँजौ करेजौ फूँकत, गाँजे पियत वाले की अच्छी खबाई भओ चाहिये। खबाई नई होत ता शरीर दौ कौड़ी कौ हो जात। टीबीयऊ हो जात।’ जेई डर ओखे रात दिन लगो रहत। रामसेवक नै खूब बहाने बनाए। बिटिया खें फुसला पोट खें अपने कोद मिलाओ। रामबाई खुश हो गयी। रामसेवक दरबाजे पै पहुँच खें बोलो -‘बता, बिन्नू, मैं कहाँ जात?’
- ‘गाँज.......... आहाँ, हँसिया पिटवाउन।’ रामबाई अपनी गल्ती पै हँस परी।
- ‘पगलू ...। रामसेवक हँसत भओ दोरे खे निकर गओ।
रामसेवक जल्दी सें जल्दी ठौर पैं पहुचवो चाहत। रस्ता में चैंकत भओ चलो जा रओ तो। ऊसई जेसे रावण सीता खें चुरावे खें जा रओ तो -’इत उत चितई चलत भड़िहाहीं।’ ऊ कारगदेव बब्बा खें सुमरत चलो जा रओ कि बिन्नू की अम्मा सें आमनौ-सामनौ न हो जावै। गैल में ओखें बहुतक आदमी मिले पै ओनै काऊ से राम-राम नई करी। राम-राम करे सें आदमिन कौ ध्यान ओई पै हो सकत तो। रामसेवक हवा की नाई सर्रात चलो जा रओ तो। ओखे नथरन में गाँजे के धुआं की गन्ध घुस रई ती। सामूँ चच्चा बैठो तो, बगल में हलकुट्टा....कछू नौसिखिया-कछू पुराने घाघ। ये येई पियत-पियत जिन्दगी गुजार रए। ज्वानी गाँजे में मिलाखें नैनू की नाई पी गए। नैनू जैसी ज्वानी राख कर डारी। बइरें कहत कि बरगैन नै ई गाँजे के मारें तन्यापौ बुढ़ापौ कछू नईं जानो। कभै ज्वान भए कभै बूढ़े हो गए। बिटिया कौ जलम लेते तौ काऊ कौ घर भर तो। ई कूचड़न सें तौ कइयक घर बरबाद हो गए।
रामसेवक जैसई सुक्का के छियाड़ा दोरे पहुँचो ओनै एक ठिहीं भारी। गंजेड़ियन कौ मुख्य संकेत या ठिहीं आय। सुक्का नै दौर खें टटवा खोल दओ। सामू मड़इया में चार-पाँच आदमी बैठे ते। चच्चा नै गाँजे की पुरिया अपनी जेब से निकारी और पुरिया खोल खें गाँजे की पत्ती हांत में धरी। ऊ पत्ती में थोरौ सौ पानी डार खें उक्ठा सें गद्दी में गाँजे खें रगड़ो। रामसेवक नै बिण्डल से बीड़ी निकार लई और सिलउवा की आगी सें बीड़ी भूँजन लगो।
- ‘काए रे रामसेवक! कैसे निकर आओ? बिन्नू की अम्मा नै आ जान दओ?’ उस्मान चच्चा गाँजौ रगड़त भओ बोलो।
- ‘बढ़ियल!’ रामसेवक हंसो -’तुम सोऊ चच्चा, लगा मढ़ी में आग, महाजन दूरं खड़े। बहाने बना खें आओ.... ओखें पता चल गओ ता आफतई आय धरी।’
-‘इत्तौ न डिरए करे रामसेवक। लुगाई सें डिरात वाले की आदमियन में गिनती नई होत।
-‘लगत आय चच्चा तुम्हें, डिरानै परत, या गिरस्ती ऐसी बनाई है कि आदमी चाह खें नईं निकर पाउत।’ रामसेवक के मूँ पै बिंग की लकीर खिंचत चली गई - ’तुम तौ चच्चा छुले छुलाये बैठे हौ सो तुम्हें हरीरौ-हरीरौ सुहात।’
-’काए के लानै रे! बहू सैकें -मैकें आय चिल्लात। गाँजो पीखें आदमी पूरो मरद बन जात। घंटा दो घंटा सें कम समें नईं लगत।’ सुक्का नै बीच में कूद खें अपनी एक आँख दबाई।
-’तैं सोऊ दादी, कौन्हऊ और के सामूँ न कह दइए।’ रामसेवक नै मुस्कान ढीली -’तुम अपनी संख्या ऐसई आय बढ़ाउत रहत हौ। शुरु-शुरु में मोरहऊ खें ऐसौ लगत तो पै अब पता चलो सब सैकें-मैकें आय। हम तौ येई बात पै आय सीख गए।’ सुक्का की बात कटतई ऊ तिलमिलानो। ओनै जोश में कही-’ता मैं झूठी कहत का?’
-’बिलकुल झूठी कहत दादी।’ रामसेवक ऊ अपनी बात पै अड़ गओ-’ये सब मन के खेल आँय। दिमाग में ओई बात भरी होबै ता पांच दस मिनट सें जादा नई लगत।’
सुक्का अपनी बात पै अड़ गओ। ओनै रामसेवक कौ छिरौटिप्पौ नई लगन दओ। सुक्का कैसऊ मानबे खें तइयार ई नई भओ।
-’दादी बात माने करे।’ हलकुट्टा बीच में टपको-’रामसेवक की बात सोरऊ आना साँसी (सच) है।’
-’हओ भइया, तुमसें को मुड़चढ़याव करै।’ सुक्का सिर्रयाने कुत्ता सौ खिरझयानो
-’मैं मानत हौ तुम्हाई सब जनन की बात।’
-’नईं हम या बात जबरजत्ती नुहै कभवाउत तोसें दादी, हकीकत आय।’ हलकुट्टा नै ओखे शक खें कुचरो।
-’मैं मान तौ गओ। अब मोय पछाऊँ काए परै हौं।’ सुक्का नै अपनी हार कबूली।
-’चच्चा गाँजे खें अच्छी तरां रगड़त जा..... तैं ये बातें का सुनत? अब नई जई के आँगू अपनी चल पाहै का?’ सुक्का नै अपनी गुस्सा चच्चा पै उतारी।
उस्मान चच्चा अब दूनी ताकत से गाँजो रगड़न लगो। गाँजे की पत्ती गद्दी में सिमट खें गोली बन गई। हरीरी गोली। चच्चा नई चाहत तो कि सुक्का ओखी कौन्हऊ गल्ती पकरै और उल्टी सूधी बातें करें। सुक्का हमेशा कहात कि गाँजे की पत्ती रगड़वो और लुगाई बरोबर होत। गाँजे खें जितनई रगड़त उतनईं मजा आउत। उस्मान चच्चा तौ जलम के रड़ुआ (क्वारे) हते सो उन्नै गाँजौ रगड़बो सीख पाओ। चच्चा तौ येई में सब कछू समझ लेत। रामसेवक नै भुंजी बिड़ी की पुछई टोर खें एक कोद फैकी और शेष चच्चा खें पकरा दई। अब चच्चा ने गाँजे की गोली के संगै भुंजी बिड़ी रगड़ी। गाँजे की गोली मिट गई। वा भुरका सी होकें चच्चा की सबरी गद्दी पै नाचन लगी। छूट गए ते ओखे बंधना, जैसे अलग-थलग की ओखी अब नियति हो गई होबै। सुक्का नै डिजान कढ़ी चिलम खें उल्टी करखें दूसरे हाँत की गद्दी पै जोर सें ठौंकी। चिलम के भीतर कौ ककरा गद्दी में धर रओ। सुक्का नै ककरा खें मसीड़ खें एक कोद धरो......... चिलम में एक जोर की फूँक मारी। चिलम में चिपकी राख बाहर उड़ गई। झार पोंछ खें ओनै चिलम में फिर ककरा डार दओ और चिलम चच्चा खें पकरा दई। चच्चा ने चिलम में गाँजे कौ भुरका भरो, कछू भुरका गद्दी में रहो सो ओनै चिलम में भरे भुरका खें उक्ठा सें दबाओ। ठौर खाली हो गओ। अब बचो भुरका चिलम में पूरौ समा गओ। चिलम के मूँ पै धरत वाली लत्तियां रामसेवक नै चच्चा खें पकराई चच्चा नै लत्तिया चिलम के मूँ पै धरखे चिलम सुक्का कोद बढ़ाई। सुक्का बोलो -’चच्चा तुम्हई शुरू करौ।’ रामसेवक नै चिलम के चैड़े मूँ पै हल्की-हल्की लकड़ियन की राख धरी और दियासलाई सें आगी छुबाई। चच्चा नै चिलम अपने ओंठन पै धर खें कस लगाओ। सींक बुझ गई। सुक्का गुस्सयानो-’भग फुकना तोसें कछू नई होनै।’ चच्चा नै चिलम ओंठन से निकाल लई-’आगी छुबाऊ तब तौ मैं कस लगाऊँ। ई देर आगी छुबतई चिलम से एक लफ निकरी। चच्चा नै चिलम हलकुट्टा कोद बढा दई। हलकुट्टा नै चिलम पकर खें उंगरिया से अधजलो भुरका दबाओ।
- ‘ए रे बेशाहूर। पन्हइया तौ उतार लै।’ सुक्का नै हलकुट्टा खें डपटो। हलकुट्टा नै चिलम खें मूँड़ से लगाखें अपनी गल्ती मानी। पन्हइया उतार खें एक लम्बौ सूँटा मारो। चिलम जैसें चिग्घार उठी होवै। पहलूँ तरइयां सी छिटकी फिर एक लफ के संगै आगी कौ गोला दिखान लगो। कर्रौ सूंटा लगाखें चिलम आँगू बढ़ाई। हलकुटा धुआं पेट में लील गओ।
-‘गाँजौ साजौ है।’ ऊ रुँधे गरे सें बोलो। पेट कौ गाढ़ौ धुंआ मूँ और नाक सें चिमनी की नाई निकर परो।
चिलम गेर खें चच्चा के पास आ गई। चिलम चुक आई ती। चच्चा नै ऐलान करो-’पूरी हो गई।’
-’दूसरीयऊ धर लेव, कौन मोल बिकात है।’ येई जमात के एक खुर्राट गजेड़ी ने मस्का लगाओ।
-’अब का कहाँय खे, दुकानदार तोरौ बाप लगत है जुन सैत-मैंत में दै दै है। ओनै तोला पै दो रुपइया बढ़ा दए।’ नशा कऊ कौ नई भओ तो। जैसें थोरौ खाना खाए सें भूक और बढ जात ऊसई उनकी टकटकी बढ गई। सुक्का नै अपनी खलेती थतोली। खलेती में गाँजे की पत्ती छुट्टा डरी ती सो निकार खें चच्चा के हांत पै धर दई। चच्चा ने रगड़बे सें साफ नहियां कर दई। ‘अब चहाँ जेखऊ रगड़ौ, मोई तो गद्दी कल्लान लगी। रगड़ो ऊपर सें सुक्का की बूचियाई बातें सुनौ।’ चच्चा खे नशा कौ हल्कौ-हल्कौ शरूर हतो। सुक्का मुस्क्या परो। रामसेवक नै पत्ती अपने हाँत में लै लई। हलकुट्टा खें धुकर-पुकर मची। अगर ई देर और बैठ गए ता दिन डूब जैहे और ढोर बछेरू भूके बंधे रैहै। आज ओऊ चारौ काटन नई गई। हलकुट्टा से रहो न गओ, ऊ उठ बैठो -’चच्चा करबी काटन जानै है, ढोर कसाई के खूंटन बंधे है। मोखे अग्या दै देव।’ सबकी नशा सें लाल आंखी हलकुट्टा पै जम गई। हलकुट्टा सकपकानो। सबकौ का रुख है ऊ समझन लगो। ’समाज छोड़ खें नई जाओ जात हलकुट्टा, समझ लैत।’ सुक्का गाँजे कोद हांत करखें बोलो-’यौ कैखें लानै आय?’
-’अरे तुम सब जने तौ हौं।’ हलकुट्टा नै अपनौ पांव निनोरो-’हम तुम तो बोलत हैं, मांग खें खा लेत... पशु बिचारे बिना मूँ के आँय, वे केसैं माँग है?’
हलकुट्टा निपक आओ। ओनै खेत की सूध लगाई और घुड़चाल चलत भओ खेत पै पहँुच गओ।
-’यौ तौ ढीलौ है।’ सुक्का कौ इशारो पीठ पाछँू हलकुट्टा कोद हतो। -’ऐखी लुगाई तौ बाँयफेल है। स्वसुर पै लुगाई नई संभरत।’ हलकुट्टा ने सुक्का की बात काट दई ती सो वा भड़ास अब सुक्का नै निकारी। गुस्सा में साँसियाऊ बात कभ जात। अपनौ पानी पनवारौ ऐसई थोरी आदमी लिबवा लैहै। अबकी पूरी चरचा में हलकुट्टा छाओ रहो। या चरचा चिलम के संगै सिमटी रही। हरई हंरा चरचा चिलम के धुआं में और गाढ़ी हो गई। दूसरी देर की चिलम खतम होय सें सब बाड़े से निकर आए और अपने छूटे काम, धंदन में लग गए।
रामसेवक नै करबी कौ बडौ सौ गट्ठा दोरे में पटक दओ। बिन्नू की अम्मा नै गट्ठा कौ दूसरो छोर पकरबा खें बखरी में मशीन के इतै धरवा दओ। बिन्नू नै अपनौ हंसिया मांगो। रामसेवक नै गट्ठा में खुसे हंसिया खुरपी सब निकार दए। चिलम पिएं के बाद रामसेवक तुरतईं हँसिया खुरपी उठाखें वहीं कौ वहीं खेतन कोद चलो गओ तो। एक गट्ठा करबी काटखें घरै डार दई। ओनै अपनौ दिन भरे कौ काम कर दओ।
बिन्नू की अम्मा की जिद और चैकसी के आंगू रामसेवक लड़खड़ा गओ। ओऊ नै सोचो कि नशा करबो कौन साजी बात है। नशा तौ जीवन कौ भओ चाहिए। सुन्दर और हिस्ट-पुस्ट शरीर खें जानबूझखें बिगाड़वो कौन अच्छी बात आय। शरीर की कीमत तौ असाद रोगी जानत जुन पल-पल जियत, छिन-छिन जिनगी कौ मजा लैबो चाहत। जेखें यौ जान खें जादा पीरा होत कि ऊ कछूअई दिनन कौ पाहुनो है। ऊ छिन-छिन जीबो चाहत पै ओई छिन ओखी घांटी की फांस बन जात। शरीर कौ मोल कोऊ बता सकत? सपने...... आँगू चलखें यौ करिहौ, ऊ करिहौं, येई ललक में पूरी जिनगी निकार देत। मरे आदमी खें दिखखें जरूर थोरौ बहुत झटका लगत कि एक दिना सबखें....। जादातर ये झटका बहुत थोरे समै के होत। रामसेवक नै अपनौ पक्को मन बना लओ तो कि गाँजो पीबो बिलकुल छोड़ दैहो। येई संकलप करखें ओनै एक पन्दरिया निकार दई। इतने समै के बीच में ओखें गाँजे की बिलकुल सुरत नई लगी। रामसेवक सें अब ओखी लुगाई खुश रहन लगी। आदमी अगर पक्कौ मन बना लेबैं ता कछू कर सकत, ओखे लानै कोऊ चीज असंभव नहियाँ।
रामसेवक के दमभाई अचम्भौ करन लगे कि यौ तौ अब छैरियऊ नई दावत। दमभाई रामसेवक पै गिधवा कैसी आँखीं गड़ायें ते। बिन्नू की अम्मा दिन भर हार खेत में संगै रहन लगी। शाम-सुबेरे चैकसी, सौ बिचारौ सुतिया गांसन गैस गओ। हार खेत में कई देर ओखे कान में ठिही सुनानी पै ओने बिलकुल ध्यान नई दओ, ऊ गरयाल बैल की नाई कंधा डारें अपनौ काम करत रहो।
सबेरे सें पता नई काए रामसेवक कौ पेट कुसकरन लगो। दो देर ऊ हगयाओ तऊ दरद बरोबर बढ़त गओ। बिन्नू की अम्मा नै ओखै पेट और पांवन की नसें तेल लगाखें खूब सूंटी और पिड़रीन में दीवलियां लगाखें कस खें बाँध दई। बिन्नू और बिन्नू की अम्मा दोऊ खेत कोद चली गई। वा अकेली हती सो ओनै बिन्नू खें आज इस्कूल नईं जान दओ। घंटा भर में रामसेवक कौ पेट कछू धिमानो सो ऊ उठखें बाहर निकल आओ। कब लौ खटोली पै परी रहतो, परो-परो ऊब गओ तो, अब तरे खें मूँड डारैं चौंतरा पै बैठ गओ।
-’का हो गओ रामसेवक?’ रामसेवक नै अपनी मुड़ी आवाज कोद खे उठाई। हलकुट्टा हंसत भओ ओखे ढिंगै बैठ गओ।
-’पेट पिरात यार।’ रामसेवक अनमनौ बोलो।
-’एक दम ठौंक लै, सो सब ठीक हो जैहै।’ हलकुट्टा हँरई सें मुस्क्यानो।-’धुंआ पेट में जैहै सो सब गैस पास हो जैहै.... धड़ाम-धड़ाम पाद हित।’
-’नई यार, अब गांजौ तौ मैं छू नईं सकत। मोखें गांजे सें घिरना हो गई।’
-’पिऐं खें कहत का, दबाई के रूप में एक चिलम।’
-’मैं डाकधर से गोली ल्याहों।’
-’दम के आंगू डाकधर कहां लगत? कहूँ नई।’ हलकुट्टा नै रामसेवक के मूं कोद दिखो-’तोरे दुख के लानै आय कहत रे.... फिर कभऊँ कहाँव तौ मू पै थूक दइए।’
खुदयाँय-खुदयाँय तौ पतिव्रता छिनार हो जात, यौ तौ रामसेवक आय। रामसेवक की तपस्या ऊसई डगमगानी जैसें विश्वामित्र की डगमगा गई ती। यहां न तौ मेनका हती, न उरबशी। इन्द्र, मेनका उरबशी सब कछू हलकुट्टा हतो। इन्द्र खें तौ राज जाबे कौ खटका हतो, हलकुट्टा खें काये कौ खटका? कोऊ नुकसान नई हतो ओखै, फिरऊं ग्वांच की नाई चिपक खें रह गओ हलकुट्टा। पन्दरा दिना से गाँजौ नई पिओ तो ओनै.... रोज पियत वाले के हिसाब से विलाद दिनन को अन्तर हो गओ। दबाई के रूप में गाँजों पीबे में रामसेवक खें कोऊ बुराई नई दिखानी, दूसरी बात मैदान ऊ साफ हतो। ओनै सोची कि अब कौन रोज आय पीनै, पेट ठीक हो जैहे सो बन्द कर दैहों।
उस्मान चच्चा के घर में दम भाई, इकट्ठे हते। दो चिलम दम लग चुकी ती, तीसरी की तइयारी शुरू हो गई। रामसेवक दो चिलम गाँजौ पीखें जंगया सौ गओ। पन्दरा दिना बाद दम लगाई ती.... आज की चिलम कौ धुंआ ओखें बहुत साजौ लगो। सबरैनन की आँखी लाल हो गई। उस्मान चच्चा और सुक्का मनई मन मुस्क्याने -’जैने न चखी गाँजे की कली, ऊ लड़का सें लड़की भली। आई समझ में रामसेवक?’ उसारे में ठहाके गूंज गए। रामसेवक ऊ ने उनकौ संग दओ पै ऊ जादा देर उनके संगै न टिक पाओ। एक लरका कुची मांगन आ गओ। बिन्नू की अम्मा हार से लौट आई ती। रामसेवक खें दरौंधों सौ लगो। ओखौ नशा छूमन्तर हो गओ। ऊ वहां से लइयाँ-पइयाँ भागो। दम भाईयन नै बहुत रोको, बहादुर-बनाबे की खूब कोशिश करी, पै बहादुर के गोड़े उठ गए।
-’बड़ौ गाँड़ू है।’ सुक्का हिकारत सें बोलो।
-‘दूसरन खें कहन लगत कि ओखी बइयर ऐसी है, ऊसी है, अपनी खें नई कहत।’ चच्चा हंसो-’सारे खें बहू भीतर बैंड़ खें मार है।’
बिन्नू की अम्मा रामसेवक खें दोरे के चैतरा पै बैठी मिली। रामसेवक नै तारौ खोलो। वह ऐसो लगो जैसे बिन्नू की अम्मा कौ चैनल बदल गओ होय। राम सेवक भीतर जाखें खटोली पै लोट गओ। अजीब तरां कौ सन्नाटौ हतो। रामसेवक खें पूरौ विसवास हो गओ कि बिन्नू की अम्मा ओखी सब करतूत जान गई। इतने जल्दी ईकौ विसवास टूट गओ? टूटै काये न, जब ओनै टूटें कौ काम ई कर धरो। रामसेवक जो सोचत तो, ठीक ओखै उल्टौ हतो। बिन्नू की अम्मा हंरई हंरा- चलखें ओखे नीगर आई-’पेट अभऊँ पिरात का?’
-’आ हाँ, अब तौ ठीक है।’ रामसेवक नै जल्दी-जल्दी उत्तर बनाओ।
-’बायरी चीजें कम खए करौ, पेट बायरी चीजें खाए सें पिरात।’ बिन्नू की अम्मा नै पेट पै हाँत धरो।
कहत कि दुनिया रंग बिरंगी होत, येऊ कहत कि इतै लोग भांत भांत के है। चालबाज की चाले चालबाज पकर पाउत। सीरौ मानुष हर बात पै विसवास कर लेत, चहां बात झूठी होवै और चहां सांची। कोऊ येई में सटै लै जात। पै एक सी धार बालेन के संगै ऐसौ नई हो पाउत। वे खोद-खोद पानी पियत। लला जैहौ कहां। धरती तौ गोल मटोल है, चहां जित्ते भगौ पकरे जैहौं। सोचे से पहलूं भीतर की बात निकार लई जैहै। पै सीधे-सादे विचारे ठगे जात। कछू गैर जाने ठगे जात और कछू जानत भए अपने आप खें ठगवाउत रहत। बिन्नू की अम्मा बीच में ठाड़ी ती। खसम की बातन सें वा टिघल जात येई से निरनै करे में कठिन पर जात। बिन्नू की अम्मा शांत हो गई। आदमी खें रखाबै कि अपनौ काम दंद दिखै।
रामसेवक खें पता नईं काए खाँसी उठन लगी। औगुन करत वाली एकऊ चीजें नई खाई ओनै। अब रोज कौ रोज शरील टूटन लगो। अतरया चैथया खें बुखार ऊ आउन लगो। स्यात परहया हतो। रम्मी दादा सें ओनै परहया की दबाई हांत में बंधवा लई पे कोऊ आराम नई भओ। बुखार खांसी सें ओखौ बुरओ हाल हो गओ। एक दिना खाँसी में ओखें खून आ गओ, गाढ़ौ करिया फिर लाल सेमल जैसौ। ओनै अन्दाज लगाओ कि स्यात गरमी सें आय आ गओ। अब रामसेवक ठंडी चीजें खान लगो। दूसरे दिना की खून की उल्टी से ऊ हरदया गओ। फिरऊ ओनै घरै नई बताओ काए कि बिन्नू की अम्मा तौ घबड़ाई जैहै।
जब सें गाँव के डाकधर ने ओखें सरकारी अस्पताल में जांच कराबे की सलाह दई तब सें ओखी आँखी नईं लगी। डाकधर कह रओ तो कि खून आ गओ है टी0बी0यऊ हो सकत। ई रोग कौ नाव सुने सें रामसेवक अलां झलां हो गओ। किहै बतावै अपने मन की बात? कहूँ सांसऊँ तौ नई हो गई टी0बी0। अगर टी0बी0 हो गई ता लरका....।
रामसेवक ताँगा पै बैठ गओ। सरकारी अस्पताल गाँव सें दो कोस दूर कस्बा में है। रोड खराब है सो दौंची आये पै ऊ अपनौ शरील कर्रौ कर लेत। ‘टी0बी0 हो नईं सकत। हमाए पुरखन खें यौ रोग हतोऊ नईं, मोखें कैसें हो जै है? कई डिरवाउत कि कोऊ खें हो सकत। किरपला के परिवार में कोऊ खे नई हती टी0बी0 पै किरपला खें हो गई। एकई साल जियो।’ ओखे विचारन नै करौंटा लओ -’ऊ टी0बी0 से नुहै मरो तो, ओखें तो कौन्हऊ नै मूंठ बैठार दई ती। मूंठ कर्री हती सो कोऊ गुनियन ने ठीक नई कर पाओ।’ जैसई दौंची लगत ऊसई ओखे मन में विचार घुमड़ जात-’सुरेन्द्र कहत हतो कि किरपला टी0वी0 सें मरो, मूँठ-सूँठ सब झूठ होत। अनपढ़ आदमी ई रोगन खें देवी-देवता, भूत-परीत के मूड़े थोप देत। वैसे मोखें टी0बी0 हो नई सकत, काए कि मैं नेम सें बहुत रहत। पहलूँ राजा आदमीयन खें होत हती। नैम-टैम वाले कौ टी0बी0 का करत? मछरिया खात वाले से टी0बी0 दो हांत दूर रहत, मैं आठें रोज मछरिया खात। चोदी टी0बी0 भगी-भगी फिर है। गाँजौ पिए से टी0बी0 नई होत। डाकधर कहत तो कि येई से जादा होत। डाकधर खे का स्वाद? वे तौ सब रोग अटकर सें बताउत।’ रामसेवक तांगा कौ बैलेन्स बनाउत भओ आँगू खें सरको। -’गाँव के डाकधर नै टी0बी0 के जुन लच्छन बताए हैं वे सब तौ मोखें हैं। तौ का बात सही है?’ रामसेवक के करेजे में कूंड सौ खिंच गओ-’बिन्नू स्यानी होत जा रई, लरका अभै खुटियाँ देत। सब कच्चै कुड़वारौ धरो, कहां जैहै यौ कुड़वारौ। लरका डलवा के ढाँके लाक हैं। कए बिन्नू की अम्मा से-पाल पाहै? मौड़ी कौ ब्याव......’ ओखौ मूँ बिगर गओ, आंखिन से अँसुआ झरन लगे। मौड़ी बिना बाप की हो जैहै। मोय न रहे सें बिदा में मौड़ी दाऊ-दाऊ चिल्लैहै, पै दाऊ कहाँ मिल है ओखें। मौड़ी खें आदमी पालकी पै ऐसई पटक दैहै। कैखें गरे से लिपट खें रो है। बिन्नू की अम्मा जानै कैसौ करिहै ब्याव? मोय न रहे पै आदमी न जानै कैसो घर-वर बता दैहै। बिन्नू की अम्मा खें इत्ती समझ नहियाँ, वा कहाव मौड़ी खे खराब घर में पटक देवै। मौड़ी जलम भर बाप खें रोहै। बिन्नू लाड़ में पली, तनकई दुख होहै ता मौड़ी...।’ रामसेवक नै तौलिया से अँसुआ पोंछ लए। जब रामसेवक की तबियत ठीक रहत ती तब ऊ बजार से सौदा निगत-निगत ल्याउत रहो, कभऊँ तांगा पै नई बैठै। तांगा अपनी बंधी चाल से चल रओ तो। रामसेवक के दिगाम में एकई चीज घुमड़ रई ती। जाँच.... जाँच। जाँच में का निकर है? ईशुर से बिनती करत जा रओ तो कि सब ठीक निकरै। कभऊ ओखो चेहरा खिल जातो, कभऊँ मुरझया जातो। समुन्दर कैसी लहरें ओखें मूँ पै आ जा रई ती। ई लहरन के बीच में ओखे कानन में बैण्ड बाजे की धुन सुना रई ती। पूरे घर में चैल-पैल मची। कोऊ कछू मांग रओ, कोऊ कछू। रामसेवक कछू उठा रओ और कछू दै रओ। बाभन चिल्लानो, जैखें कन्यादान करनै होवै ऊ जल्दी मड़वा तरें आ जावै, भांवरन की स्यात निकरी जात। रामसेवक नई धोती पहरन लगो। बिन्नू लाल साड़ी में लिपटी बहुतई साजी लग रई। ओखे अंसुआ ढड़क परे। रामसेवक के अंसुआ दिखखें तांगा वाले की आँखी गीली हो गई। तांगा वाले नै रामसेवक खें समझाओ -’चिन्ता न कर रामसेवक, सब ठीक हो जै है। अब तौ ऐसी-ऐसी दबाई चल गई कि आदमी मरो भर न होवै, डाकधर जिवा लेत। पै गाँजे में आगी छुबन दै, तैं ऐखें न कभऊँ छुइए।

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