Thursday, February 17, 2011

काव्य को कठिनता से मुक्ति चाहिए -- सम्पादकीय



जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2
--------------------------------------------------------
बात दिल की
काव्य को कठिनता से मुक्ति चाहिए

-------------------------------------------------------------------------------------------

स्पंदन ने अपने विगत चार वर्षों की यात्रा में कई विशेषांकों का प्रकाशन किया है। सम्पादक मण्डल का विचार यह रहता है कि पाठकों को विशेषांक के रूप में कुछ विशेष जानकारी-सामग्री उपलब्ध करवाई जाये। विशेषांकों की इस कड़ी में विचार इस बात के लिए भी बना कि स्पंदन का कोई एक अंक कविता-ग़ज़ल विशेषांक के रूप में भी प्रकाशित किया जाये। आपसी बातचीत और योजना का रूप देकर स्पंदन के वर्तमान अंक को कविता-ग़ज़ल विशेषांक के रूप में प्रकाशित करने पर सहमति बन पाई।
कार्य-योजना बनते ही उस पर कार्य करना शुरू भी हो गया किन्तु एक डर भीतर ही भीतर बना रहा कि क्या पाठक वर्ग स्पंदन के इस अंक को सहजता और स्नेह के साथ स्वीकार करेगा? इस भय का कारण यह था कि इधर साहित्य के क्षेत्र में पाठक वर्ग नित नयी पाठ्य-सामग्री की और नये विमर्श की चाह रखने लगा है। इधर यह भी देखने में आया है कि एक वर्ग-विशेष साहित्य पर कब्जा सा करने की फिराक में है और इनका काम भी सिर्फ और सिर्फ पाठकों को विमर्श के नाम पर दिग्भ्रमित करना है।
इस भय के कारण कार्य को मूर्त रूप देने के साथ-साथ सुधी एवं विज्ञ पाठकों से इस सम्बन्ध में लगातार राय भी ली जाती रही। आप सभी के मिलते प्रोत्साहन और सुझावों के कारण स्पंदन के कविता-ग़ज़ल विशेषांक को आपके सामने इस रूप में लाने का साहस जुटा सके। पाठकों की मिली-जुली प्रतिक्रिया से यह भी ज्ञात हुआ कि अभी भी आम पाठक वर्ग में काव्य के प्रति मोह भंग की स्थिति पैदा नहीं हुई है। आम जनमानस स्वयं को अभी भी काव्य से अपने आपको जोड़े रखना चाहता है।
काव्य के प्रति मानव का यह लगाव कोई आज का नहीं वरन् सदियों पुराना है। मानव सभ्यता में हावभाव, मुद्राओं की कमी के कारण जब अक्षरों का, शब्दों का जन्म हुआ होगा तो मनुष्य ने काव्य रूप में ही अपनी विचाराभिव्यक्ति की होगी। इसको भी इस रूप में आसानी से समझा जा सकता है कि मनुष्य ने अपने प्रारम्भिक साहित्य की रचना काव्य-रूप में ही की है। पद्य के कई चरण के विकास के बाद साहित्य में गद्य का विकास देखने को मिलता है। काव्य का स्वरूप आम आदमी के जीवन में भी हम घुलामिला देखते हैं। उसने अपने जीवन के प्रत्येक पल को काव्य की मधुरता के साथ जिया है।
हम अपने आसपास आसानी से देखते हैं कि मानव-जीवन का कोई भी कार्य हो उसमें काव्य का समावेश आसानी से हो जाता है। श्रम सम्बन्धी कार्य हों अथवा घर के मांगलिक कार्य, ऋतुओं का स्वागत हो अथवा किसी नये जीवन के आगमन की खुशी सभी में गीतों का, काव्य का मधुर स्वर सुनाई देता है। व्यक्ति के जीवन में काव्य का समावेश उसको ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करता है।
काव्य के प्रति मानव की रुचि और उसको अपने जीवन में समाहित करने की भावना के साथ-साथ काव्य-रूप को अपने प्रत्येक कार्य में स्वीकार्य करने की स्थिति ने काव्य को पवित्रता प्रदान की है। अपने आरम्भिक दौर से वर्तमान तक कविता को विभिन्न वादों से होकर गुजरना पड़ा है। कविता की, ग़ज़ल की अपनी यात्रा में उसने कभी कठिनता का तो कभी सरलता का दौर देखा है। इस दौर में कविता में कई तरह के प्रयोगों को भी अपनाया गया। इससे कविता से काव्यत्व गायब सा होता दिखा। छन्दमुक्त की अवधारणा के विकास होने से इसके भीतर से लय की, मधुरता की आत्मा मरती सी दिखी। इसने कविता को आम आदमी से दूर ही किया है।
पद्य रूप का गद्य के रूप में लगातार स्वीकार होते जाना कविता की मूल भावना को नष्ट करने लगा। नयी कविता के नाम पर लगातार तमाम सारे कवियों का जन्म हो गया। इसके उलट ग़ज़ल ने अपने स्वरूप को विकृत नहीं होने दिया बल्कि दुष्यंत कुमार जैसे ग़ज़लकारों ने हिन्दी भाषा में ग़ज़ल का उत्कृष्ट स्वरूप निर्मित किया। छन्दमुक्त कविता, अतुकान्त कविता के नाम पर की जा रही कवितागीरी को आम जनमानस ने सिरे से नकार दिया। इस तरह की कविता की रचना को केवल पुस्तकालयों और प्रकाशकों के मध्य तक सीमित कर दिया है और इसी तरह की कविता ने पुरस्कारों के प्रति एक अंधी दौड़ को जन्म दिया है।
छन्द की, तुक की, लय की बाध्यता का भले ही एक तरह से अस्वीकार कर दिया गया हो किन्तु यह भी याद रखना होगा कि तुलसीदास की रामचरितमानस अपने सरल गेय-रूप के कारण ही जनमानस के मध्य आज भी लोकप्रिय है। कबीर, तुलसी के दोहे, ईसुरी की फागें अपने काव्यत्व और सरलतम रूप के कारण ही आज भी हर छोटे-बड़े को कंठस्थ हैं। नयी कविता के नाम पर एक प्रकार की छद्म आन्दोलन सा खड़ा करने वाले बतायें कि वर्तमान में जो कविता का स्वरूप रचा जा रहा है उसमें से कितना और कौन सा स्वरूप जनमानस के बीच ग्राहय है?
कविता को, ग़ज़ल को उसी रूप में रचा जाना चाहिए जो आम आदमी को उससे जोड़े रखे। सिर्फ लेखक की आत्म-तुष्टि के लिए कविता-ग़ज़ल का रचा जाना उसके साहित्य में वृद्धि तो कर सकता है किन्तु मानव मात्र के मध्य सहज स्वीकार्य नहीं बना सकता है। कविता को, ग़ज़ल को पहले की तरह सरलतम और सहज रूप में ही रचा जाना उसे व्यक्तियों के, पाठकों के नजदीक ले जायेगा अन्यथा की स्थिति में कविता-ग़ज़ल को हम सिर्फ पुस्तकालयों के भीतर सजी पुस्तकों में ही सुरक्षित पायेंगे, आम आदमी-पाठक वर्ग इससे कहीं बहुत दूर होगा। कविता-ग़ज़ल विशेषांक इसी आशा के साथ आपके हाथों में प्रदान करने की कोशिश की जा रही है कि कविता-ग़ज़ल से दूर होते पाठकों-प्रशंसकों को इस ओर पुनः आकृष्ट किया जा सके। शेष तो पाठकों की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट होगा--

Friday, July 16, 2010

अंक 12 --- नवम्बर 09-फरवरी 10 ---- बुन्देलखण्ड विशेष

सम्पादकीय/बात दिल की
लोकसंस्कृति और लोकभाषा का संरक्षण अपरिहार्य

धरोहर --- ईसुरी की फागें

आलेख
बुन्देली काव्य में सामाजिक यथार्थ/डॉ0 अवधेश चंसौलिया
बुन्देलखण्ड का लोकसाहित्य/अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’
बुन्देली लोक साहित्य में मामुलिया/डॉ हरीमोहन पुरवार
बुन्देली लोकगीतों में लयात्मक नाद-सौन्दर्य/डॉ0 वीणा श्रीवास्तव
बुन्देली जीवन-शैली में व्याप्त लोकविश्वास/डॉ0 उपेन्द्र तिवारी

कहानी
धिक्कारता हुआ चेहरा/युगेश शर्मा

लघुकथा
फूल और बच्चा/कुंवर प्रेमिल
पत्री ‘कुंडली’/राजीव नामदेव ‘रानालिधौरी’

काव्य-प्रसून
बुन्देली गारी/पुष्पा खरे
अपनी नौनी बुन्देली बोली/पं0 बाबूलाल द्विवेदी
कैसें सुदरे दसा गांव की/श्यामबहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’

गीत
चाहना हो रोशनी की/हितेश कुमार शर्मा

मुखर स्वर
विस्मयकारी हर्ष का अनुभव/डॉ0 दिनेशचन्द्र द्विवेदी
स्पंदन को आपकी देखरेख चाहिए है अभी/सुधांशु चौधरी

पुस्तक समीक्षा
संवेदनाओं का संताप/डॉ0 सुरेन्द्र नायक

युवा स्वर
मैं अकेला खड़ा रह गया/हेमंत

मैं अकेला खड़ा रह गया ---- हेमन्त



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
---------------------------------------------
युवा स्वर ---- मैं अकेला खड़ा रह गया
हेमन्त



युवा कवि हेमंत का जन्म 23 मई 1977 को उज्जैन (म0प्र0) में हुआ। वे देश की सुविख्यात वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती संतोष श्रीवास्तव के पुत्र हैं। प्रारम्भिक शिक्षा आगरा से सम्पन्न करने के बाद मुम्बई से अपनी शिक्षा सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में पूरी की। चित्रकला एवं गिटारवादन में विशेषज्ञता प्राप्त एवं प्रादेशिक स्तर पर नाटकों का मंचन भी करने वाले हेमन्त ने 15 वर्ष की उम्र से ही कविताएँ लिखना प्रारम्भ कर दिया था। हेमंत ने उर्दू, मराठी का ज्ञान रखने के साथ-साथ हिन्दी, अंग्रेजी में सिद्धहस्त रूप से कविता लेखन कार्य किया है। प्रतिभा के ध्ानी हेमंत 05 अगस्त 2000 की शाम को एक दुर्घटना का शिकार होकर हम सब के बीच अपने परिपक्व विचार अपने कविता संग्रह ‘मेरे रहते’ के रूप में छोड़ गये हैं। उनकी कविताओं का यहां ‘युवा स्वर’ स्तम्भ में नियमित प्रकाशन कर ऐसे होनहार पुत्र, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को इस रूप में विनम्र श्रद्धांजलि....
स्पंदन परिवार

----------------------------------------------------------------

चिड़ियाँ
झाड़ियों में फुदकती
अपने थके पंखों की
अंतिम उड़ान ले
समा गईं घोंसले में

धूप
ढलती हुई
सूरज की कंदील ले
सागर की छाती से लग
सिमट गई उसमें

दिन
थका-थका सा
मेरी परछाईं समेट
शाम की बाँहों में खो गया
और मैं अकेला खड़ा रह गया।

श्रीमती संतोष श्रीवास्तव,
102, सद्गुरु गार्डन, तरुण भारत सोसायटी,
बी0एम0सी0 स्कूल के पास, चकला,
अंधेरी (पूर्व), मुम्बई - 400099

स्पंदन को आपकी देखरेख चाहिए है अभी ---- सुधांशु चौधरी



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
---------------------------------------------
मुखर स्वर ---- स्पंदन को आपकी देखरेख चाहिए है अभी
सुधांशु चौधरी



स्पंदन देखी, हमेशा की तरह कवरपेज ने मन को लुभाया। चित्रांकन में हस्तनिर्मित पेंटिंग देखकर मन प्रसन्न हुआ। वैसे आपको मेल करने का कोई इरादा नहीं था, पहले भी नहीं की हैं, क्योंकि साहित्य के बारे में बहुत गहरी या कहें कि समझ नहीं है। हमारे एक मित्र ने स्पंदन से परिचित करवाया था, उसके नाम और छोटे से आकार में भी कलेवर की विस्तृत रूपरेखा ने मन को प्रसन्नता से भर दिया था। इस समय साहित्य के क्षेत्र में एक-दो पत्रिकाएं ही ऐसी निकल रहीं हैं जो अपने आपको भौंड़ेपन से दूर रखकर पाठकों को समुचित पठनीय सामग्री उपलब्ध करवा रहीं हैं। मैं स्पंदन को उनमें से एक मानता रहा हूं। इस विश्वास को स्पंदन का पूर्णांक 11 देखकर बड़ी ठेस लगी।
स्पंदन के कवर की प्रसन्नता से खुश होकर आगे देखना और पढ़ना शुरू किया तो एक दो रचनाओं के बाद होश उड़ने शुरू हो गये। लगा ही नहीं कि मैं स्पंदन को पढ़ रहा हूं। यह हालत सभी रचनाओं को पढ़ने से नहीं बल्कि दूध का कर्ज जैसी कहानी को देखकर हुई। यह पत्र विशेष रूप से उसी के लिए मेल करना पड़ा है। लखनलाल जी, आप इसे कहानी कैसे कह सकते हैं? यह नहीं देखिए कि लेखक दलित है तो उसकी सभी रचनाओं में दलित अस्मिता की चर्चा ही होगी। दलित के नाम पर वहां भौंड़ापन ही दिखाया गया है। उस कहानी के लेखक को भी मैंने पत्र लिखो है, आप भी पूछिएगा कि किस समाज में ऐसा होता है जो लेखन ने इस कहानी में दिखाया है? कहीं ये लेखक की अपनी कहानी तो नहीं है? मैं उन्हीं की तरह तो नहीं लिख पाता हूं किन्तु यह निवेदन उनसे कर सकता हूं कि वे लेखन कार्य बन्द कर दें।
बाकी कहानियों में, कविताओं में सब कुछ ठीक-ठाक रहा। हमेशा की तरह कुछ रचनाओं ने मन को छुआ, कुछ ने निराश किया। कुमारेन्द्र जी आपका सम्पादन कहीं से भी कमजोर नहीं है। मैं आपसे न मिलने के बाद भी आपकी बहुत इज्जत करता हूं साथ ही आपके कुशल सम्पादन का प्रशंसक भी हूं। डॉ0 लखनलाल जी की लेखनी भी सुंदर है किन्तु लेखन और सम्पादन दो अलग-अलग चीजें हैं, इन्हें एकसाथ जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। एक निवेदन कुमारेन्द्र जी आपसे करना है कि बहुत जरूरी न हो तब तक स्पंदन को आप किसी और से सम्पादित न करवायें। यदि ऐसा करवाना अत्यावश्यक होता भी हो तो उसमें अन्तिम सहमति आपकी ही होनी चाहिए। इस बार का अंक देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि इसका सम्पादन आपके द्वारा नहीं किया गया है। स्पंदन अभी अपनी बाल्यावस्था में है, उसको अभी आपकी देखरेख की आवश्यकता है।
आशा है कि आप मेरी इन बातों का बुरा नहीं मानेंगे। इसके साथ ही अपेक्षा की जा सकती है कि अगला अंक और शेष आगामी अंक आपके उत्कृष्ट सम्पादन में हमेशा की भांति पढ़ने को मिलेंगे। शुभकामनाओं सहित

सुधांशु चौधरी, कोलकाता
कोलकाता से आई ई-मेल से प्राप्त प्रतिक्रिया

संवेदनाओं का सन्ताप ---- डॉ0 सुरेन्द्र नायक



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
---------------------------------------------
समीक्षा ---- संवेदनाओं का सन्ताप
डॉ0 सुरेन्द्र नायक



‘क्योंकि जीवन कविता नहीं/एक पहेली है/और पहेली का शीर्षक नहीं होता’ सम्भवतः यही युवा कवि दीपक चौरसिया ‘मशाल’ के काव्य संग्रह ‘अनुभूतियाँ’ का सार तत्त्व है। विगत एक दशक में युवा कवि-गद्यकार दीपक चौरसिया ने अपनी रचनाधर्मिता से हिन्दी साहित्य-जगत में जिस प्रकार से महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है वह हिन्दी प्रेमियों को एक आश्वस्ति प्रदान करता है कि हिन्दी साहित्य भविष्य में उत्तरोत्तर नये उत्स प्राप्त करता रहेगा। कवि युवा है अतः उसकी कविताओं में अनुभूतियों की सघनता एवं संवेदनाओं का कोलाहल स्वाभाविक रूप से अधिक परिलक्षित होता है।
माँ की विराट सत्ता में करुणा, दया, ममता एवं संवेदनाओं की पुरबैया बयार सी भीनी खुशबू कुछ इस तरह से बिखरी हुयी है कि सृष्टि के आदिम काल से आज तक की मानव की अनवरत विकास यात्रा के क्रम में हजारों तरह के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक पड़ावों से गुजरने के बाद भी उसमें कोई कमी या बदलाव नहीं आया है। जीवन में मनुष्य सफलता के कितने भी सोपान बाँध ले लेकिन उसकी जिन्दगी में माँ सबसे खूबसूरत सपना और सबसे आत्मीयजन होती है। इसी मर्म को पिरोये हुए कवि के अन्तर्तम से प्रस्फुटित उद्गार पठनीय हैं ‘यहाँ सब खूबसूरत है/पर माँ/ मुझे फिर भी तेरी जरूरत है।’ माँ एक नारी भी है अतः माँ की पीड़ा नारी की पीड़ा भी है। एक माँ को, एक स्त्री को अपने बच्चों पर ये ममता लुटाने के लिए कितना उत्सर्ग करना पड़ता है, ये कवि की पैनी निगाह से छिपा नहीं है ‘माँ/आज भी तेरी बेबसी/मेरी आँखों में घूमती है/तेरे अपने अरमानों की/खुदकुशी/मेरी आँखों में घूमती है।’ माँ की असीम सत्ता में नारी के अन्य पारम्परिक सम्बोधन दादी, नानी, बुआ, चाची आदि भी समाहित हैं जो बच्चों को प्रेम और संरक्षण देकर उसके नन्हे बालमन पर अमिट प्रभाव छोड़ देते हैं। ‘तुम छोटी बऊ...’ कविता में वात्सल्य की अनुगूँज की यही प्रतिध्वनि श्रव्य है ‘अकल तो न मिली पर तुम सिखा गयीं/मोल रिश्तों का छोटी बऊ।’
युवामन में प्रेम की कोपलें न अंकुरायें तो वह युवा ही कैसा। ‘कितने अहसान हैं तेरे मुझपे/तूने मुस्कुराना सिखाया है मुझे/होंठ तो थे मेरे पास/मगर उनका एहसास तूने कराया है मुझे।’ मोहब्बत में रुसबाइयाँ न हों, मजबूरियाँ न हो, ये कहाँ होता है। ‘तुम मौजों से लड़ना चाहती/मैं साहिल पे चलना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।’
उच्च शिक्षा और कैरियर के लिए विदेश प्रवास आजकल सामान्य बात हो चली है। संप्रति कवि भी प्रवासी भारतीय है। ऐसे में महत्वाकांक्षाओं और मानवीय संवेदनाओं के बीच सेतु बनाना काफी कठिन हो चला है। कवि इस विडम्बना से असंपृक्त कैसे हो सकता है? इस त्रासदी को कवि ने बड़े सहज और शालीन शब्दों में उकेरा है ‘तुम अंबर में उड़ना चाहते/मैं जमीं से जुड़ना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।’ प्रेमी हर बन्धन, हर जंजीर, हर दीवार को तोड़कर अपनी प्रियतमा का साहचर्य और सान्निध्य पाना चाहता है, मगर ऐसा संभव न हो सके तो मन में तल्खी और शिकवा तो पैदा होगा ही ‘अब जब भी/इस धरती पर आओ/इतनी मजबूरियाँ लेके मत आना/कि हम/मिलकर भी/ना मिल सकें।’
कविता का छंदमय होना या छंदमुक्त होना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसमें व्यक्त भावों की प्रवणता, गंभीरता और सघनता। इस मानक पर ये काव्य संग्रह खरा उतरता है। छंदमुक्त कविता में भी शब्दों की एक लय, एक प्रवाह होता है जो हमें मनोभावों की गहराइयों से आप्लावित करने के साथ ही काव्य के सौन्दर्य और माधुर्य का आस्वाद देता है। निश्छंद कविता का मतलब शुष्क गद्यमय काव्य नहीं हो सकता है। कविता को छंद की रूढ़ियों से उन्मुक्त करने वाले महाप्राण निराला की सारगर्भित पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं ‘भाव जो छलके पर्दों पर/न हो हल्के, न हो नश्वर।’ निराला की इन पंक्तियों की कौंध का संदेश स्पष्ट है कि हल्का लेखन नहीं करना चाहिए। इस संदेश का अनुशीलन करते हुए दीपक चौरसिया ‘मशाल’ ने अपने इस पहले ही काव्य संग्रह में विविध आयामों पर लेखनी चलाते हुए काव्य विद्या को नयी ऊँचाई प्रदान की है। स्वाभाविक रूप से हिन्दी जगत को इस कवि से भविष्य में और अधिक उत्कर्ष, वितान और गहनता की अपेक्षा रहेगी। इसके लिए कवि को नवीनतम बिम्ब विधान और रूपकों का संधान करते हुए अपने भारतीय और प्रवासी दोनों ही परिवेशों पर सतत सूक्ष्म दृष्टि रखनी होगी। कवि एक सृष्टा भी होता है और एक दृष्टा भी। उसकी अंतश्चेतना समकालीन युगबोध का निर्वाह करते हुए भी अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों कालों में संचरण करती है इसीलिए युवा कवि ने अपने सतरंगी काव्य संसार में स्त्री मन, जीवन मूल्य, आतंकवाद, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार जैसे जीवन से जुड़े यक्ष प्रश्नों को भी बहुत मार्मिकता और बारीकी से उकेरा है। दुनिया है तो उसमे हर्ष-विषाद, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रेम-विरक्ति, आशा-निराशा, दुःख-सुख जैसे कारक तो रहेगे ही। इन सबको स्वीकार करने में ही जीवन की मुक्ति है। कवि का ये मंत्र उनकी कविता ‘बुद्धा स्माइल’ में दृष्टव्य है-‘वो मुस्कुराये थे तब भी/जब हुआ था आत्मबोध/बुद्ध मुस्कुराते थे पीड़ा में भी/बुद्ध मुस्कुराते थे हर्ष में भी.../क्योंकि दोनों थे सम उनको...।’ आम आदमी के लिए दुःख और सुख में सम अनुभूति सहज नहीं है लेकिन इस तरह की प्रेरणा आम आदमी को पीड़ा सहन करने के लिए मानसिक रूप से सुदृढ़ तो करती ही है। यह उपलब्धि भी अपने आप में कम नहीं है ये काव्य संग्रह कम से कम एक पाठ की माँग तो करता ही है।

समीक्ष्य कृति - अनुभूतियाँ (काव्य-संग्रह)
रचनाकार - दीपक चौरसिया ‘मशाल’
प्रकाशक - शिवना प्रकाशन, सीहोर म0प्र0
पृष्ठ - 104
मूल्य - रु0 250/
समीक्षक - डॉ0 सुरेन्द्र नायक, प्रतापनगर, कोंच (जालौन)

कैसें सुदरै दसा गाँव की ---- श्याम बहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
---------------------------------------------
बुन्देली गीत ---- कैसें सुदरै दसा गाँव की
श्याम बहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’



तुमनें लला! दिबारी की पौंचाई हमें बधाई।
तुमें का पतो इतै गाँव में कैसें कटत हमाई।।
बड़े दरोगा ऐंन अमाउस को बेटा! आ धमके,
करन लगे तपतीस काउ की ऐनइँ अकड़े-बमके,
कागजन पै गिचपिच कर लइ उर छानी ऐंन मलाई।।1।।
जगाँ-जगाँ फड़ लगत जुआ के, अब तौ रोजइँ खिल रओ,
मुखिया-म्हाते सबई खेल रए, कोउ कछू ना कै रओ,
सिगई ग्रान्ट सिरपंच हार गव, काँ से होय भलाई।।2।।
हारै गओ सरजुआ धानुक, करन पेट को हिल्लो,
मौड़ी-मौड़ा खेलें द्वारें बाके नन्दू-गुल्लो,
घरै घुसे दिन-दुफरें ज्वारी, सटर-पटर गठयाई।।3।।
लीप पोत कें घर अपने सब घी के दिया जराबैं,
द्वारे पनरा बजबजात जिनमें कीरा बिल्लाबैं,
डेंगू बीमारी में छै पट्ठन ने, जान गँमाई।।4।।
कइयक लोफर नौकरयन संग जब तौहार मनाबैं,
घूमैं पी सराब गलियन में, बापन को गरियाबैं,
कैबे कों तो दिआ खुशी के, छाती जरत हमाई।।5।।
बैरादारी इत्ती बढ़ गई, कोउ काउ को नइयाँ,
नैकउँ कै दो खरी काउ की, उल्टी करत पनहियाँ,
कैसें सुदरै दसा गाँव की, ऐसी मति बौराई।।6।।

रजिस्ट्रार, शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय, ग्वालियर (म0प्र0)

विस्मयकारी हर्ष का अनुभव ---- डॉ0 दिनेशचन्द्र द्विवेदी



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
---------------------------------------------
मुखर स्वर ---- विस्मयकारी हर्ष का अनुभव
डॉ0 दिनेशचन्द्र द्विवेदी



अक्टूबर 2009 का ‘स्पन्दन’ अंक देखने का अवसर मिला। डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर द्वारा सम्पादित चतुर्मासिक पत्रिका का यह अंक डॉ0 लखनलाल पाल के सम्पादन में लोकार्पित हुआ है। उरई जैसे कम सारस्वत सुविधाओं वाले स्थान से ऐसी पत्रिका का प्रकाशन विस्मयकारी हर्ष प्रदान करने वाला है। आलेख, कहानी, संस्मरण व्यंग्य तथा कविता को स्थान देकर इस पत्रिका ने विस्तृत साहित्यिक धरातल का स्पर्श करना चाहा है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी ‘पोस्टमास्टर’ को स्थान लेकर उच्च साहित्यिक चेतना के प्रति आग्रह प्रदर्शित करती यह पत्रिका समकालीन सरोकारों से लैस डॉ0 सुरेन्द्र नायक की ‘एहसान’ कहानी के माध्यम से उपभोक्तावादी मानसिकता में छिपे वासनामूलक सूक्ष्म एहसासों को निरूपित करने की चेष्टा है। कथाकार ऐन्द्रिय गंध की प्रतीति करवा सका है किन्तु इससे कहीं अधिक उसने मानवीय संवेदनाओं के अकाल के समकाल में उच्चतर मूल्यों से विलोपित संवेदनाओं के प्रति रुचि प्रदर्शित कर युगीन खण्डित न्यूनताओं को खारिज करने की कोशिश की है। ‘संघर्ष हमारा नारा है’ व्यंग्य के माध्यम से व्यंग्यकार ने आज की जिन्दगी की आपा-धापी को बिम्बात्मक परिदृश्यों से रेखांकित करके प्रस्तुत किया है। जो अखर रहा है उसे प्रस्तुत करने का प्रभावशाली प्रकार व्यंग्य है। रसोई गैस आज के जीवन की अनिवार्यता बन गई है। इसे प्राप्त करना उतना ही कठिन हो गया है। जितना कभी द्रोणचल पर्वत से संजीवनी बूटी लाना। यह व्यंग्य सामाजिक, प्रशासनिक तथा घरेलू विसंगतियों पर तिहरी चोट पहुँचाता है। अमित मनोज की ‘सच’ कहानी में एक शहीद पर प्रशासनिक और राजनीतिक कारगुजारियों के विक्षोभकारी परिदृश्य हैं। लगता है कि हर घटना, परिदृश्य तथा जीवन-पथ पर साहित्यकार की नजदीकी नजर है।
इस अंक की रूपनारायण सोनकर की ‘दूध का दाम’ कहानी अपने कलेवर में पत्रिका की सामर्थ्य से बड़ी कहानी में एक उपन्यास का वस्तु-विन्यास धारण किए हुए है। मिसेज सी-जार्ज जोजेफ की दैहिक बनावट को वासनात्मक लिखावट में प्रस्तुत किया गया है। नपुसक पति की असमर्थता का दाह किसी नारी को कितना तड़पाता है इसका जीवन्त चित्रण है। एक बच्चे को गोद लिया जाना फिर नाटकीय ढंग से एक बच्चा और एक बच्ची का जन्म होना। ये बच्चे बड़े होकर कथानक को दूरदर्शन के धारावाहिकों जैसा रूप प्रदान करने लगे। फिर गोद लिया बेटा सी-जार्ज जोजेफ के नपुसक संदेश से माँ मिसेस जोजेफ की जान बचाने के लिए नाटकीय प्रकार से शहीद होने की चेष्टा करता है। कथानक की आवश्यकता न होते हुए भी जोजेफ सन्तान पीटर के बैक-ओपेन प्रसंग को फूहड़ता से जोड़ा गया है। घटना पर घटना जोड़ने वाले की प्रवृत्ति से कथाकार जज की वासना को कथानक के साथ जोड़कर उसके आदेश पर दीवान सिंह द्वारा लारेन्स को सूट करवा देता है। कहानीकार के पास शब्दशक्ति, कल्पनाशक्ति तथा कथा-विन्यास को रूपायित करने की शक्ति दिखती है किन्तु कम पन्नों एवं कम समय में समाज की प्रत्येक विकृति को चित्रांकित करने का उसका प्रयास कहानी को विचित्र, फूहड़ तथा बेढब बना देता है।
‘धुँआ उठने लगा है’ के0पी0 मीणा के संस्मरण में आदिवासी जिन्दगी को निहारने की प्रशंसनीय चेष्टा की गयी है। ऐसी सामग्री पत्रिका को बहुआयामी तथा जनवादी बनाती है। मानव श्रम को क्षरित, सीमित तथा समाप्त करने का दर्द भरा सत्य ‘करघों से रिक्शों के हैंडिल तक’ आलेख में विवक्षित है। इस प्रकार के आलेख यान्त्रिक युग की अपेक्षा मानव-श्रम-युग की महत्ता को महत्व देकर वस्तुतः ओस की बूँदों पर पड़ रही सबेरे के सूरज की रोशनी को बनाये रखने की कोशिश को बरकरार रखना चाहते हैं। इस अंक का ‘काव्य प्रसून’ सोच और संवेदना के पक्ष की प्रभावशाली प्रस्तुति कर सका है। एतदर्थ इन कविर्मनीषियों को साधुवाद। सम्पादक और रचनाकारों को बधाई।

221 ‘स्वस्तिप्रस्थ’ सुशीलनगर
उरई (जालौन) मो0 9506030433