जुलाई-अक्टूबर 10 ---------- वर्ष-5 अंक-2 -------------------------------------------------------- बात दिल की काव्य को कठिनता से मुक्ति चाहिए |
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स्पंदन ने अपने विगत चार वर्षों की यात्रा में कई विशेषांकों का प्रकाशन किया है। सम्पादक मण्डल का विचार यह रहता है कि पाठकों को विशेषांक के रूप में कुछ विशेष जानकारी-सामग्री उपलब्ध करवाई जाये। विशेषांकों की इस कड़ी में विचार इस बात के लिए भी बना कि स्पंदन का कोई एक अंक कविता-ग़ज़ल विशेषांक के रूप में भी प्रकाशित किया जाये। आपसी बातचीत और योजना का रूप देकर स्पंदन के वर्तमान अंक को कविता-ग़ज़ल विशेषांक के रूप में प्रकाशित करने पर सहमति बन पाई।
कार्य-योजना बनते ही उस पर कार्य करना शुरू भी हो गया किन्तु एक डर भीतर ही भीतर बना रहा कि क्या पाठक वर्ग स्पंदन के इस अंक को सहजता और स्नेह के साथ स्वीकार करेगा? इस भय का कारण यह था कि इधर साहित्य के क्षेत्र में पाठक वर्ग नित नयी पाठ्य-सामग्री की और नये विमर्श की चाह रखने लगा है। इधर यह भी देखने में आया है कि एक वर्ग-विशेष साहित्य पर कब्जा सा करने की फिराक में है और इनका काम भी सिर्फ और सिर्फ पाठकों को विमर्श के नाम पर दिग्भ्रमित करना है।
इस भय के कारण कार्य को मूर्त रूप देने के साथ-साथ सुधी एवं विज्ञ पाठकों से इस सम्बन्ध में लगातार राय भी ली जाती रही। आप सभी के मिलते प्रोत्साहन और सुझावों के कारण स्पंदन के कविता-ग़ज़ल विशेषांक को आपके सामने इस रूप में लाने का साहस जुटा सके। पाठकों की मिली-जुली प्रतिक्रिया से यह भी ज्ञात हुआ कि अभी भी आम पाठक वर्ग में काव्य के प्रति मोह भंग की स्थिति पैदा नहीं हुई है। आम जनमानस स्वयं को अभी भी काव्य से अपने आपको जोड़े रखना चाहता है।
काव्य के प्रति मानव का यह लगाव कोई आज का नहीं वरन् सदियों पुराना है। मानव सभ्यता में हावभाव, मुद्राओं की कमी के कारण जब अक्षरों का, शब्दों का जन्म हुआ होगा तो मनुष्य ने काव्य रूप में ही अपनी विचाराभिव्यक्ति की होगी। इसको भी इस रूप में आसानी से समझा जा सकता है कि मनुष्य ने अपने प्रारम्भिक साहित्य की रचना काव्य-रूप में ही की है। पद्य के कई चरण के विकास के बाद साहित्य में गद्य का विकास देखने को मिलता है। काव्य का स्वरूप आम आदमी के जीवन में भी हम घुलामिला देखते हैं। उसने अपने जीवन के प्रत्येक पल को काव्य की मधुरता के साथ जिया है।
हम अपने आसपास आसानी से देखते हैं कि मानव-जीवन का कोई भी कार्य हो उसमें काव्य का समावेश आसानी से हो जाता है। श्रम सम्बन्धी कार्य हों अथवा घर के मांगलिक कार्य, ऋतुओं का स्वागत हो अथवा किसी नये जीवन के आगमन की खुशी सभी में गीतों का, काव्य का मधुर स्वर सुनाई देता है। व्यक्ति के जीवन में काव्य का समावेश उसको ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करता है।
काव्य के प्रति मानव की रुचि और उसको अपने जीवन में समाहित करने की भावना के साथ-साथ काव्य-रूप को अपने प्रत्येक कार्य में स्वीकार्य करने की स्थिति ने काव्य को पवित्रता प्रदान की है। अपने आरम्भिक दौर से वर्तमान तक कविता को विभिन्न वादों से होकर गुजरना पड़ा है। कविता की, ग़ज़ल की अपनी यात्रा में उसने कभी कठिनता का तो कभी सरलता का दौर देखा है। इस दौर में कविता में कई तरह के प्रयोगों को भी अपनाया गया। इससे कविता से काव्यत्व गायब सा होता दिखा। छन्दमुक्त की अवधारणा के विकास होने से इसके भीतर से लय की, मधुरता की आत्मा मरती सी दिखी। इसने कविता को आम आदमी से दूर ही किया है।
पद्य रूप का गद्य के रूप में लगातार स्वीकार होते जाना कविता की मूल भावना को नष्ट करने लगा। नयी कविता के नाम पर लगातार तमाम सारे कवियों का जन्म हो गया। इसके उलट ग़ज़ल ने अपने स्वरूप को विकृत नहीं होने दिया बल्कि दुष्यंत कुमार जैसे ग़ज़लकारों ने हिन्दी भाषा में ग़ज़ल का उत्कृष्ट स्वरूप निर्मित किया। छन्दमुक्त कविता, अतुकान्त कविता के नाम पर की जा रही कवितागीरी को आम जनमानस ने सिरे से नकार दिया। इस तरह की कविता की रचना को केवल पुस्तकालयों और प्रकाशकों के मध्य तक सीमित कर दिया है और इसी तरह की कविता ने पुरस्कारों के प्रति एक अंधी दौड़ को जन्म दिया है।
छन्द की, तुक की, लय की बाध्यता का भले ही एक तरह से अस्वीकार कर दिया गया हो किन्तु यह भी याद रखना होगा कि तुलसीदास की रामचरितमानस अपने सरल गेय-रूप के कारण ही जनमानस के मध्य आज भी लोकप्रिय है। कबीर, तुलसी के दोहे, ईसुरी की फागें अपने काव्यत्व और सरलतम रूप के कारण ही आज भी हर छोटे-बड़े को कंठस्थ हैं। नयी कविता के नाम पर एक प्रकार की छद्म आन्दोलन सा खड़ा करने वाले बतायें कि वर्तमान में जो कविता का स्वरूप रचा जा रहा है उसमें से कितना और कौन सा स्वरूप जनमानस के बीच ग्राहय है?
कविता को, ग़ज़ल को उसी रूप में रचा जाना चाहिए जो आम आदमी को उससे जोड़े रखे। सिर्फ लेखक की आत्म-तुष्टि के लिए कविता-ग़ज़ल का रचा जाना उसके साहित्य में वृद्धि तो कर सकता है किन्तु मानव मात्र के मध्य सहज स्वीकार्य नहीं बना सकता है। कविता को, ग़ज़ल को पहले की तरह सरलतम और सहज रूप में ही रचा जाना उसे व्यक्तियों के, पाठकों के नजदीक ले जायेगा अन्यथा की स्थिति में कविता-ग़ज़ल को हम सिर्फ पुस्तकालयों के भीतर सजी पुस्तकों में ही सुरक्षित पायेंगे, आम आदमी-पाठक वर्ग इससे कहीं बहुत दूर होगा। कविता-ग़ज़ल विशेषांक इसी आशा के साथ आपके हाथों में प्रदान करने की कोशिश की जा रही है कि कविता-ग़ज़ल से दूर होते पाठकों-प्रशंसकों को इस ओर पुनः आकृष्ट किया जा सके। शेष तो पाठकों की प्रतिक्रियाओं से स्पष्ट होगा--
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