नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष --------------------------------------------- आलेख --- बुन्देली काव्य में सामाजिक यथार्थ डॉ0 अवधेश चंसौलिया |
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बुन्देली भूभाग के अन्तर्गत विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, ललितपुर एवं बाँदा जिले और मध्य प्रदेश के दतिया, टीकमगढ़, पन्ना, छतरपुर, दमोह, सागर जिले सम्मिलित किये गये हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के ये सभी जिले विकास की दृष्टि से अभी भी पिछड़े हुए हैं। सड़क, जल और बिजली की दृष्टि से ही नहीं अपितु शिक्षा, स्वास्थ्य और औद्योगिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र अभी भी विकास से कोसों दूर हैं। आज भी यहाँ पूँजीवादी और सामन्तवादी प्रथा का बोलबाला है। निर्धनता और अभावों के कारण यहाँ के बीहड़ डाकुओं की शरणस्थली बने हैं।
शिक्षा के अभाव के कारण अत्याधुनिक युग में भी यहाँ के लोग अंधविश्वासों, कुरीतियों, परम्पराओं एवं बुराइयों के पोषक हैं। आपसी ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, स्वार्थ एवं प्रतिकार की भावना के कारण लोग अपने एवं दूसरों के जीवन को नाटकीय बनाये हुए हैं। निर्धनता को भाग्य मानकर स्वीकार करने वाले ये लोग आगे बढ़ने का प्रयास ही नहीं करते। निर्धनता और अभावग्रस्त जीवन का यह सिलसिला जगनिक काल से ही चला आ रहा है। पृथ्वीराज चौहान एवं महोबा के सम्राट परमाद्रिदेव के युद्ध में बुन्देलखण्ड के किसानों की फसल तो बर्बाद होती ही थी, युद्धों के कारण साधारण जनजीवन भी प्रभावित होता था। जगनिक कहते हैं कि पृथ्वीराज की सात लाख सेना ने महोबे पर आक्रमण कर दिया।
‘‘ऐसो समय परौ महुबे पै विपदा कछू कहीं न जाये।
X X X X
रोबे रैयत चन्देलों की, हा हम कौन देश भग जाये।’’1
ईसुरी के समय भी कामोवेश यही स्थिति थी। युद्ध तो इतने नहीं थे परन्तु प्राकृतिक उत्पात कम नहीं थे-
‘‘पर गये एई साल में ओरे कऊँ भौत कऊँ थोरे,
कैसे जिये गरीब गुसइयां छिके अन्न के दौरे।’’2
इतना ही नहीं कभी फसल को ‘गिरुआ रोग’ लग जाता है तो कभी ओले से पकी पकाई फसल नष्ट हो जाती है। हाँ ईसुरी के अनुसार सम्वत 1956 में जरूर बुन्देलखण्ड में तिली की भरपूर पैदावार हुई थी, लेकिन जिन लोगों ने उस समय तिली बोई थी उन्हीं को लाभ हुआ था। यहाँ आज भी लाखों लोग भूमिहीन हैं। उन्हें तो हमेशा ही अकाल जैसा सामना करना पड़ता है। जो छोटे-छोटे किसान हैं वे प्रकृति के अधीन हैं। सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था अभी तक नहीं हो पायी है। यहाँ का किसान सदैव डरा सहमा और संशयग्रस्त रहता है क्योंकि
‘‘स्यारी में सूखा पर गऔ तो, ऊ में कछू न पाओ।
बीज साव को धरौ चुकावे दानों लैन आओ।’’ 3
उसे ऋण की चिंता तो है ही साथ ही चिंता है रमकुइया की शादी की। छितिया के चलाव को साल भर हो गया, पत्नी को ब्लाउज नहीं बनवा पाया, स्वयं की धुतिया फट गयी है, लड़के को बुखार चढ़ा है, रोटी मिल गयी तो दाल नहीं है और यदि दाल मिल गयी सो रोटी नहीं है, ऐसी करुण कहानी है बुन्देलखण्डियों की। इन सब दुर्दशाओं के बावजूद इन लोगों में गजब का आत्मसंतोष है, स्वाभिमान है-
‘‘अधर दुफर लौं जौ मिल जावै रूखी सूखी खाई।‘‘ऐसो समय परौ महुबे पै विपदा कछू कहीं न जाये।
X X X X
रोबे रैयत चन्देलों की, हा हम कौन देश भग जाये।’’1
ईसुरी के समय भी कामोवेश यही स्थिति थी। युद्ध तो इतने नहीं थे परन्तु प्राकृतिक उत्पात कम नहीं थे-
‘‘पर गये एई साल में ओरे कऊँ भौत कऊँ थोरे,
कैसे जिये गरीब गुसइयां छिके अन्न के दौरे।’’2
इतना ही नहीं कभी फसल को ‘गिरुआ रोग’ लग जाता है तो कभी ओले से पकी पकाई फसल नष्ट हो जाती है। हाँ ईसुरी के अनुसार सम्वत 1956 में जरूर बुन्देलखण्ड में तिली की भरपूर पैदावार हुई थी, लेकिन जिन लोगों ने उस समय तिली बोई थी उन्हीं को लाभ हुआ था। यहाँ आज भी लाखों लोग भूमिहीन हैं। उन्हें तो हमेशा ही अकाल जैसा सामना करना पड़ता है। जो छोटे-छोटे किसान हैं वे प्रकृति के अधीन हैं। सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था अभी तक नहीं हो पायी है। यहाँ का किसान सदैव डरा सहमा और संशयग्रस्त रहता है क्योंकि
‘‘स्यारी में सूखा पर गऔ तो, ऊ में कछू न पाओ।
बीज साव को धरौ चुकावे दानों लैन आओ।’’ 3
उसे ऋण की चिंता तो है ही साथ ही चिंता है रमकुइया की शादी की। छितिया के चलाव को साल भर हो गया, पत्नी को ब्लाउज नहीं बनवा पाया, स्वयं की धुतिया फट गयी है, लड़के को बुखार चढ़ा है, रोटी मिल गयी तो दाल नहीं है और यदि दाल मिल गयी सो रोटी नहीं है, ऐसी करुण कहानी है बुन्देलखण्डियों की। इन सब दुर्दशाओं के बावजूद इन लोगों में गजब का आत्मसंतोष है, स्वाभिमान है-
X X X X
सादा गाँव के जीवन से भरपूर से रहौं’’4
सामन्तशाही कागजों पर तो समाप्त हो गयी लेकिन अब वह नवीन रूप धारण करके और भी विद्रूप और विकराल हो गयी है। मंत्री, नेता, अफसर, पुलिस एवं धनिक वर्ग ये नये युग के सामन्ती चेहरे हैं। ये सब मिलकर आमजन का शोषण कर रहे हैं। ये लोग डकैतों के पोषक हैं। इनके अत्याचारों के कारण ही लोग विद्रोही होकर डाकू बन जाते हैं। रानी लक्ष्मीबाई ने ‘बरजोरा डाकू’ का हृदय परिवर्तित कर अपनी फौज में सम्मिलित कर लिया था और वह अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ा। बिनोवाजी व जयप्रकाशजी ने भी यहाँ के डाकुओं को समाज की धारा में बापस मोड़ने का सराहनीय प्रयास किया लेकिन आधुनिक प्रजातंत्र के जननायक उनसे बूथ कैप्चरिंग कराते हैं, विरोधियों का दमन कराते हैं, उन्हें हथियार प्रदान करते हैं। नेता, अफसर और ठेकेदारों के गठजोड़ ने भ्रष्टाचार को चरम पर पहुँचा दिया है। इस भ्रष्टाचार के कारण बुन्देलखण्ड का विकास जितना और जिस तेजी से होना चाहिए था, नहीं हो रहा है। फलतः अभी भी गरीबी का साम्राज्य है। इसी कारण प्रजातंत्र से लोगों का विश्वास उठ गया-
‘‘प्रजातंत्र धोखो लगै, इंदु कैवे चोखी।
माटी मिलौ सुदेश मर रई जनता भूखी।’’5
इसी तरह-‘‘भूखी सब जनता मरै, नेता गोल मटोल।
चींथ चींथ के देश खों, करतई पोलम पोल।’’6
वर्तमान में मूल्यों का हृस बहुत तेजी से हो रहा है। दहेज की भयावहता जग जाहिर है- ‘‘काट रओ दहेज को बिच्छू, पीड़ित हो रओ सकल समाज।’’7
शोषण और अत्याचार की चक्की में तो यहाँ की जनता युगो-युगों से पीसी जा रही है यथा-
‘‘तुरकन ने तिली सी अकोर लई, गोरन ने गगरी सी बोर लई।
अब अपने भारत के भैंयन ने परजा कों बिरिया सो झोर लई।
दओ उसेय पुलिस की पतीली ने,
लओ उधेर मुंसफी तसीली ने,
लील्हे सब लेत हैं किसानई कों
चींथ खाव जजी ने बकीलों ने।
मका जैसी अड़िया बिचोर लई, सहद की छतनियां सी टोर लई।’’8
डाकूग्रस्त क्षेत्र होने से यहाँ के कवियों का ध्यान इस समस्या की ओर कुछ अधिक ही गया है। यहाँ के लोग सदैव ही बन्दूकों और संगीनों के साये में दहशत भरी जिंदगी जीने पर मजबूर रहे हैं-
‘‘गैल गैल अब सो बिछी है बारूरी रेत
बन्दूकन के गाँव हैं, कारतूस के खेत।
करत डाकुअन कों सदा कारतूस जो सैल,
बेई बनत अब गाँव में मुखिया पंच पटैला।’’9
वर्तमान राजनीति ने समाज को वोटो की खातिर जातियों और वर्गों में विभाजित कर दिया है। चुनावों में इसी कारण हिंसा होने लगी है। एक साथ रहने वाला बुन्देली समाज अब पार्टियों में बंट गया है। बुन्देली कवि ने इस भाव को इस प्रकार व्यक्त किया है-
‘‘हिरकन लगत हुलास जब, बढ़न लगत है हेत।
वोट बैंक की मिसमिसी रंत भौर कर देत।’’10
नेताओं ने वोट तो लिए परन्तु उनकी आर्थिक बदहाली पर कोई ध्यान नहीं दिया। यहाँ के अनपढ़ और गरीब लोग अपना वोट, केवल एक बोतल देशी शराब में या धोती में दे देते हैं। वे अभी भी भूमिहीन हैं और मजदूरी करने हेतु अभिशप्त हैं -
‘‘भुंसारे से गये खेतन में सइयां करन मजूरी।
एक मेंड़ कोऊँ मोनो होती, इच्छा होती पूरी।’’11
उन्हें मजदूरी भी सरकारी दरों के अनुसार नहीं मिलती, कुछ लोग थोड़ा सा दे देते हैं, तो कुछ लोग यों ही बेगार करा लेते हैं। बेरोजगारी का यह आलम हैं कि -
‘‘बारा-सोरा पास सड़क पै लगे मंजूरी कर रए।’’12
चुनावी घोषणाओं में नेता लोग भूमिहीनों को भूमि देने की लम्बी-लम्बी बातें करते हैं परन्तु सत्ता में आते ही वे सब वायदे भूल जाते हैं। यदि भूमिहीनों को जमीनें मिलती भी हैं, वे बंजर होती हैं या प्रभावशाली लोगों के कब्जे वाली होती हैं। अतः इस तरह उस जमीन का कोई मतलब नहीं होता। भूमिहीनों की इस भावना को कविता में इस तरह व्यक्त किया गया है-
‘‘एक बनी कानून सनत तें सब खों खेती मिल जै,
हम खों मिल जै एक टपरिया करम हमाओ खुल जै।
सिरकारउ की झूठी बातें का विश्वास करूंरी।’’13
बढ़ती हुई मंहगाई भूमिहीनों के लिए कोढ़ में खाज सिद्ध हो रही है, मंहगाई के कारण स्थिति यह हो गयी है कि-
‘‘उतै लगत अब एक रुपइया जितै लगत ती पाई।
काँ की होरी काँ को होरा? कलयुग परौ सबई पै तोरा।
X X X X
दार उधार मुहल्ला भर की, अब नौ नई चुकाई
काँसे लै आवैं तिरकाई।’’14
इस मंहगाई और गरीबी के कारण लोगों में हताशा का भाव घर कर गया है। ऊँच-नीच, छुआ-छूत और असमानता के कारण लोगों में ईर्ष्या, द्वेष, डाह, बैर के भाव जाग्रत हो गये हैं। डाकुओं से मिलकर लोग विरोधियों का अपहरण करा रहे हैं, डकैती डलवा रहे हैं और दूसरे के दुख से प्रसन्न हो रहे हैं जबकि पहले ऐसा नहीं था। अब मूल्यों का हास तेजी से हो रहा है अब वातावरण बहुत विषाक्त हो गया है-
‘‘अब कौनऊ नइँ पूंछतई, इक दूजे की खैर
कुलियन कुलियन में मिलै, द्वेष ईर्ष्या बैर।
फँसे लोभ लालच सबई, नईं इच्छन को अंत
अफसर नेता चोर है, आज देश के संत।’’15
बुन्देलखण्ड में आज भी हरिजन सवर्णों के सामने अपनी खटिया पर नहीं बैठ सकता, उनके समक्ष जूते नहीं पहन सकता। बहुत से गाँवों में यह स्थिति अभी भी है-
‘‘हरिजन जिनको कहत खाट पै अभऊँ न बैठे,
बैठें तो मुखिया कों, देखत तुरतई उठ बैठें,
नई उठें तौं रामइँ जानै कित्ते जूते परे।’’16
पुलिस के अत्याचार ऐसे हैं कि जिनके यहाँ डकैती पड़ती है, पुलिस उसी को पकड़ कर उस पर डकैतों को आश्रय देने का इल्जाम लगाकर बंद कर देती है -
‘‘बा दिन देखी नई गाँव में गई डकैती पर,
जिन पै परी उनई को उल्टे लै गई पुलिस पकर।’’17
यह इस स्वतंत्र भारत के बुन्देलखण्ड की तस्वीर है। यह संयुक्त बुन्देलखण्ड आज भी उसी सामन्ती मानसिकता में जी रहा है। विकास का, शिक्षा का, समानता का यहाँ नामोनिशान नहीं है। इन सब सुविधाओं का लाभ केवल एक वर्ग विशेष तक ही सीमित रह गया है। सामान्य-जन आज भी बदहाल है। बुन्देलखण्ड को स्पेशल पैकेज देकर इसकी समस्यायें नहीं सुलझ सकती। इसकी समस्या का समाधान पृथक बुन्देलखण्ड राज्य बनने पर ही होगा।
संदर्भ-
1. सं0 कैलाश मड़बैया, बुन्देली के प्रतिनिधि-कवि, मनीष प्रकाशन, भोपाल, 1995 पृ0 11 कवि जागनिक
2. सं0 घनश्याम कश्यप, ईसुरी की फागें, शब्द पीठ- इलाहाबाद, 1997 पृ0 132 कवि ईसुरी।
3. सं0 अशोक शर्मा, बुन्देली भाषा और साहित्य, म0प्र0 हि0 ग्रं0 अकादमी, भोपाल 2005, पृ0 85, कवि संतोष सिंह बुंदेला।
4. वही पृष्ठ 88 कवि संतोष सिंह बुंदेला।
5. सं0 श्यामसुन्दर श्रीवास्तव, ठनी साँप नौरा में, सर्वोदय साहित्य संगम मिहौना (भिण्ड) म0प्र0 2004, पृ0 27 कवि रामेश्वर प्रसाद गुप्ता।
6. वही पृ0 27 कवि रामेश्वर प्रसाद गुप्ता।
7. सं0 कैलाश मड़बैया, बुन्देली के प्रतिनिधि कवि, मनीष प्रकाशन भोपाल, 1995 पृ0 65, कवि मुंशीलाल पटैरिया
8. सं0 श्यामसुन्दर श्रीवास्तव, ठनी साँप नौरा में, सर्वोदय साहित्य संगम मिहौना (भिण्ड) म0प्र0 2004 पृ0 23 कवि शिवानन्द मिश्र बुन्देला।
9. वही पृ0 39 कवि रसूल अहमद सागर
10. वही पृ0 39 कवि रसूल अहमद सागर
11. वही पृ0 40 कवि चुन्नीलाल ‘विमल’
12. वही पृ0 40 कवि चुन्नीलाल ‘विमल’
13. वही पृ0 40 कवि चुन्नीलाल ‘विमल’
14. सं0 कैलाश मड़बैया, बुन्देली के प्रतिनिधि कवि मनीष प्रकाशन, भोपाल 1995 पृ0 25 कवि जगदीश सहाय खरे।
15. सं0 श्यामसुन्दर श्रीवास्तव, ठनी साँप नौरा में, सर्वोदय साहित्य संगम, मिहौना (भिण्ड) म0प्र0
16. वही पृ0 46 कवि विजय सिंह पाल।
17. वही पृ0 46 कवि विजय सिंह पाल।
डी0एम0 242, दीनदयाल नगर, ग्वालियर 474005 म0प्र0 |
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