Friday, July 16, 2010

अंक 12 --- नवम्बर 09-फरवरी 10 ---- बुन्देलखण्ड विशेष

सम्पादकीय/बात दिल की
लोकसंस्कृति और लोकभाषा का संरक्षण अपरिहार्य

धरोहर --- ईसुरी की फागें

आलेख
बुन्देली काव्य में सामाजिक यथार्थ/डॉ0 अवधेश चंसौलिया
बुन्देलखण्ड का लोकसाहित्य/अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’
बुन्देली लोक साहित्य में मामुलिया/डॉ हरीमोहन पुरवार
बुन्देली लोकगीतों में लयात्मक नाद-सौन्दर्य/डॉ0 वीणा श्रीवास्तव
बुन्देली जीवन-शैली में व्याप्त लोकविश्वास/डॉ0 उपेन्द्र तिवारी

कहानी
धिक्कारता हुआ चेहरा/युगेश शर्मा

लघुकथा
फूल और बच्चा/कुंवर प्रेमिल
पत्री ‘कुंडली’/राजीव नामदेव ‘रानालिधौरी’

काव्य-प्रसून
बुन्देली गारी/पुष्पा खरे
अपनी नौनी बुन्देली बोली/पं0 बाबूलाल द्विवेदी
कैसें सुदरे दसा गांव की/श्यामबहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’

गीत
चाहना हो रोशनी की/हितेश कुमार शर्मा

मुखर स्वर
विस्मयकारी हर्ष का अनुभव/डॉ0 दिनेशचन्द्र द्विवेदी
स्पंदन को आपकी देखरेख चाहिए है अभी/सुधांशु चौधरी

पुस्तक समीक्षा
संवेदनाओं का संताप/डॉ0 सुरेन्द्र नायक

युवा स्वर
मैं अकेला खड़ा रह गया/हेमंत

मैं अकेला खड़ा रह गया ---- हेमन्त



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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युवा स्वर ---- मैं अकेला खड़ा रह गया
हेमन्त



युवा कवि हेमंत का जन्म 23 मई 1977 को उज्जैन (म0प्र0) में हुआ। वे देश की सुविख्यात वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती संतोष श्रीवास्तव के पुत्र हैं। प्रारम्भिक शिक्षा आगरा से सम्पन्न करने के बाद मुम्बई से अपनी शिक्षा सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में पूरी की। चित्रकला एवं गिटारवादन में विशेषज्ञता प्राप्त एवं प्रादेशिक स्तर पर नाटकों का मंचन भी करने वाले हेमन्त ने 15 वर्ष की उम्र से ही कविताएँ लिखना प्रारम्भ कर दिया था। हेमंत ने उर्दू, मराठी का ज्ञान रखने के साथ-साथ हिन्दी, अंग्रेजी में सिद्धहस्त रूप से कविता लेखन कार्य किया है। प्रतिभा के ध्ानी हेमंत 05 अगस्त 2000 की शाम को एक दुर्घटना का शिकार होकर हम सब के बीच अपने परिपक्व विचार अपने कविता संग्रह ‘मेरे रहते’ के रूप में छोड़ गये हैं। उनकी कविताओं का यहां ‘युवा स्वर’ स्तम्भ में नियमित प्रकाशन कर ऐसे होनहार पुत्र, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को इस रूप में विनम्र श्रद्धांजलि....
स्पंदन परिवार

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चिड़ियाँ
झाड़ियों में फुदकती
अपने थके पंखों की
अंतिम उड़ान ले
समा गईं घोंसले में

धूप
ढलती हुई
सूरज की कंदील ले
सागर की छाती से लग
सिमट गई उसमें

दिन
थका-थका सा
मेरी परछाईं समेट
शाम की बाँहों में खो गया
और मैं अकेला खड़ा रह गया।

श्रीमती संतोष श्रीवास्तव,
102, सद्गुरु गार्डन, तरुण भारत सोसायटी,
बी0एम0सी0 स्कूल के पास, चकला,
अंधेरी (पूर्व), मुम्बई - 400099

स्पंदन को आपकी देखरेख चाहिए है अभी ---- सुधांशु चौधरी



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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मुखर स्वर ---- स्पंदन को आपकी देखरेख चाहिए है अभी
सुधांशु चौधरी



स्पंदन देखी, हमेशा की तरह कवरपेज ने मन को लुभाया। चित्रांकन में हस्तनिर्मित पेंटिंग देखकर मन प्रसन्न हुआ। वैसे आपको मेल करने का कोई इरादा नहीं था, पहले भी नहीं की हैं, क्योंकि साहित्य के बारे में बहुत गहरी या कहें कि समझ नहीं है। हमारे एक मित्र ने स्पंदन से परिचित करवाया था, उसके नाम और छोटे से आकार में भी कलेवर की विस्तृत रूपरेखा ने मन को प्रसन्नता से भर दिया था। इस समय साहित्य के क्षेत्र में एक-दो पत्रिकाएं ही ऐसी निकल रहीं हैं जो अपने आपको भौंड़ेपन से दूर रखकर पाठकों को समुचित पठनीय सामग्री उपलब्ध करवा रहीं हैं। मैं स्पंदन को उनमें से एक मानता रहा हूं। इस विश्वास को स्पंदन का पूर्णांक 11 देखकर बड़ी ठेस लगी।
स्पंदन के कवर की प्रसन्नता से खुश होकर आगे देखना और पढ़ना शुरू किया तो एक दो रचनाओं के बाद होश उड़ने शुरू हो गये। लगा ही नहीं कि मैं स्पंदन को पढ़ रहा हूं। यह हालत सभी रचनाओं को पढ़ने से नहीं बल्कि दूध का कर्ज जैसी कहानी को देखकर हुई। यह पत्र विशेष रूप से उसी के लिए मेल करना पड़ा है। लखनलाल जी, आप इसे कहानी कैसे कह सकते हैं? यह नहीं देखिए कि लेखक दलित है तो उसकी सभी रचनाओं में दलित अस्मिता की चर्चा ही होगी। दलित के नाम पर वहां भौंड़ापन ही दिखाया गया है। उस कहानी के लेखक को भी मैंने पत्र लिखो है, आप भी पूछिएगा कि किस समाज में ऐसा होता है जो लेखन ने इस कहानी में दिखाया है? कहीं ये लेखक की अपनी कहानी तो नहीं है? मैं उन्हीं की तरह तो नहीं लिख पाता हूं किन्तु यह निवेदन उनसे कर सकता हूं कि वे लेखन कार्य बन्द कर दें।
बाकी कहानियों में, कविताओं में सब कुछ ठीक-ठाक रहा। हमेशा की तरह कुछ रचनाओं ने मन को छुआ, कुछ ने निराश किया। कुमारेन्द्र जी आपका सम्पादन कहीं से भी कमजोर नहीं है। मैं आपसे न मिलने के बाद भी आपकी बहुत इज्जत करता हूं साथ ही आपके कुशल सम्पादन का प्रशंसक भी हूं। डॉ0 लखनलाल जी की लेखनी भी सुंदर है किन्तु लेखन और सम्पादन दो अलग-अलग चीजें हैं, इन्हें एकसाथ जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। एक निवेदन कुमारेन्द्र जी आपसे करना है कि बहुत जरूरी न हो तब तक स्पंदन को आप किसी और से सम्पादित न करवायें। यदि ऐसा करवाना अत्यावश्यक होता भी हो तो उसमें अन्तिम सहमति आपकी ही होनी चाहिए। इस बार का अंक देखकर आसानी से कहा जा सकता है कि इसका सम्पादन आपके द्वारा नहीं किया गया है। स्पंदन अभी अपनी बाल्यावस्था में है, उसको अभी आपकी देखरेख की आवश्यकता है।
आशा है कि आप मेरी इन बातों का बुरा नहीं मानेंगे। इसके साथ ही अपेक्षा की जा सकती है कि अगला अंक और शेष आगामी अंक आपके उत्कृष्ट सम्पादन में हमेशा की भांति पढ़ने को मिलेंगे। शुभकामनाओं सहित

सुधांशु चौधरी, कोलकाता
कोलकाता से आई ई-मेल से प्राप्त प्रतिक्रिया

संवेदनाओं का सन्ताप ---- डॉ0 सुरेन्द्र नायक



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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समीक्षा ---- संवेदनाओं का सन्ताप
डॉ0 सुरेन्द्र नायक



‘क्योंकि जीवन कविता नहीं/एक पहेली है/और पहेली का शीर्षक नहीं होता’ सम्भवतः यही युवा कवि दीपक चौरसिया ‘मशाल’ के काव्य संग्रह ‘अनुभूतियाँ’ का सार तत्त्व है। विगत एक दशक में युवा कवि-गद्यकार दीपक चौरसिया ने अपनी रचनाधर्मिता से हिन्दी साहित्य-जगत में जिस प्रकार से महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है वह हिन्दी प्रेमियों को एक आश्वस्ति प्रदान करता है कि हिन्दी साहित्य भविष्य में उत्तरोत्तर नये उत्स प्राप्त करता रहेगा। कवि युवा है अतः उसकी कविताओं में अनुभूतियों की सघनता एवं संवेदनाओं का कोलाहल स्वाभाविक रूप से अधिक परिलक्षित होता है।
माँ की विराट सत्ता में करुणा, दया, ममता एवं संवेदनाओं की पुरबैया बयार सी भीनी खुशबू कुछ इस तरह से बिखरी हुयी है कि सृष्टि के आदिम काल से आज तक की मानव की अनवरत विकास यात्रा के क्रम में हजारों तरह के पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक पड़ावों से गुजरने के बाद भी उसमें कोई कमी या बदलाव नहीं आया है। जीवन में मनुष्य सफलता के कितने भी सोपान बाँध ले लेकिन उसकी जिन्दगी में माँ सबसे खूबसूरत सपना और सबसे आत्मीयजन होती है। इसी मर्म को पिरोये हुए कवि के अन्तर्तम से प्रस्फुटित उद्गार पठनीय हैं ‘यहाँ सब खूबसूरत है/पर माँ/ मुझे फिर भी तेरी जरूरत है।’ माँ एक नारी भी है अतः माँ की पीड़ा नारी की पीड़ा भी है। एक माँ को, एक स्त्री को अपने बच्चों पर ये ममता लुटाने के लिए कितना उत्सर्ग करना पड़ता है, ये कवि की पैनी निगाह से छिपा नहीं है ‘माँ/आज भी तेरी बेबसी/मेरी आँखों में घूमती है/तेरे अपने अरमानों की/खुदकुशी/मेरी आँखों में घूमती है।’ माँ की असीम सत्ता में नारी के अन्य पारम्परिक सम्बोधन दादी, नानी, बुआ, चाची आदि भी समाहित हैं जो बच्चों को प्रेम और संरक्षण देकर उसके नन्हे बालमन पर अमिट प्रभाव छोड़ देते हैं। ‘तुम छोटी बऊ...’ कविता में वात्सल्य की अनुगूँज की यही प्रतिध्वनि श्रव्य है ‘अकल तो न मिली पर तुम सिखा गयीं/मोल रिश्तों का छोटी बऊ।’
युवामन में प्रेम की कोपलें न अंकुरायें तो वह युवा ही कैसा। ‘कितने अहसान हैं तेरे मुझपे/तूने मुस्कुराना सिखाया है मुझे/होंठ तो थे मेरे पास/मगर उनका एहसास तूने कराया है मुझे।’ मोहब्बत में रुसबाइयाँ न हों, मजबूरियाँ न हो, ये कहाँ होता है। ‘तुम मौजों से लड़ना चाहती/मैं साहिल पे चलना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।’
उच्च शिक्षा और कैरियर के लिए विदेश प्रवास आजकल सामान्य बात हो चली है। संप्रति कवि भी प्रवासी भारतीय है। ऐसे में महत्वाकांक्षाओं और मानवीय संवेदनाओं के बीच सेतु बनाना काफी कठिन हो चला है। कवि इस विडम्बना से असंपृक्त कैसे हो सकता है? इस त्रासदी को कवि ने बड़े सहज और शालीन शब्दों में उकेरा है ‘तुम अंबर में उड़ना चाहते/मैं जमीं से जुड़ना चाहता/मोहब्बत मुमकिन कैसे हो।’ प्रेमी हर बन्धन, हर जंजीर, हर दीवार को तोड़कर अपनी प्रियतमा का साहचर्य और सान्निध्य पाना चाहता है, मगर ऐसा संभव न हो सके तो मन में तल्खी और शिकवा तो पैदा होगा ही ‘अब जब भी/इस धरती पर आओ/इतनी मजबूरियाँ लेके मत आना/कि हम/मिलकर भी/ना मिल सकें।’
कविता का छंदमय होना या छंदमुक्त होना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है उसमें व्यक्त भावों की प्रवणता, गंभीरता और सघनता। इस मानक पर ये काव्य संग्रह खरा उतरता है। छंदमुक्त कविता में भी शब्दों की एक लय, एक प्रवाह होता है जो हमें मनोभावों की गहराइयों से आप्लावित करने के साथ ही काव्य के सौन्दर्य और माधुर्य का आस्वाद देता है। निश्छंद कविता का मतलब शुष्क गद्यमय काव्य नहीं हो सकता है। कविता को छंद की रूढ़ियों से उन्मुक्त करने वाले महाप्राण निराला की सारगर्भित पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं ‘भाव जो छलके पर्दों पर/न हो हल्के, न हो नश्वर।’ निराला की इन पंक्तियों की कौंध का संदेश स्पष्ट है कि हल्का लेखन नहीं करना चाहिए। इस संदेश का अनुशीलन करते हुए दीपक चौरसिया ‘मशाल’ ने अपने इस पहले ही काव्य संग्रह में विविध आयामों पर लेखनी चलाते हुए काव्य विद्या को नयी ऊँचाई प्रदान की है। स्वाभाविक रूप से हिन्दी जगत को इस कवि से भविष्य में और अधिक उत्कर्ष, वितान और गहनता की अपेक्षा रहेगी। इसके लिए कवि को नवीनतम बिम्ब विधान और रूपकों का संधान करते हुए अपने भारतीय और प्रवासी दोनों ही परिवेशों पर सतत सूक्ष्म दृष्टि रखनी होगी। कवि एक सृष्टा भी होता है और एक दृष्टा भी। उसकी अंतश्चेतना समकालीन युगबोध का निर्वाह करते हुए भी अतीत, वर्तमान और अनागत तीनों कालों में संचरण करती है इसीलिए युवा कवि ने अपने सतरंगी काव्य संसार में स्त्री मन, जीवन मूल्य, आतंकवाद, गरीबी, भुखमरी, भ्रष्टाचार जैसे जीवन से जुड़े यक्ष प्रश्नों को भी बहुत मार्मिकता और बारीकी से उकेरा है। दुनिया है तो उसमे हर्ष-विषाद, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रेम-विरक्ति, आशा-निराशा, दुःख-सुख जैसे कारक तो रहेगे ही। इन सबको स्वीकार करने में ही जीवन की मुक्ति है। कवि का ये मंत्र उनकी कविता ‘बुद्धा स्माइल’ में दृष्टव्य है-‘वो मुस्कुराये थे तब भी/जब हुआ था आत्मबोध/बुद्ध मुस्कुराते थे पीड़ा में भी/बुद्ध मुस्कुराते थे हर्ष में भी.../क्योंकि दोनों थे सम उनको...।’ आम आदमी के लिए दुःख और सुख में सम अनुभूति सहज नहीं है लेकिन इस तरह की प्रेरणा आम आदमी को पीड़ा सहन करने के लिए मानसिक रूप से सुदृढ़ तो करती ही है। यह उपलब्धि भी अपने आप में कम नहीं है ये काव्य संग्रह कम से कम एक पाठ की माँग तो करता ही है।

समीक्ष्य कृति - अनुभूतियाँ (काव्य-संग्रह)
रचनाकार - दीपक चौरसिया ‘मशाल’
प्रकाशक - शिवना प्रकाशन, सीहोर म0प्र0
पृष्ठ - 104
मूल्य - रु0 250/
समीक्षक - डॉ0 सुरेन्द्र नायक, प्रतापनगर, कोंच (जालौन)

कैसें सुदरै दसा गाँव की ---- श्याम बहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली गीत ---- कैसें सुदरै दसा गाँव की
श्याम बहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’



तुमनें लला! दिबारी की पौंचाई हमें बधाई।
तुमें का पतो इतै गाँव में कैसें कटत हमाई।।
बड़े दरोगा ऐंन अमाउस को बेटा! आ धमके,
करन लगे तपतीस काउ की ऐनइँ अकड़े-बमके,
कागजन पै गिचपिच कर लइ उर छानी ऐंन मलाई।।1।।
जगाँ-जगाँ फड़ लगत जुआ के, अब तौ रोजइँ खिल रओ,
मुखिया-म्हाते सबई खेल रए, कोउ कछू ना कै रओ,
सिगई ग्रान्ट सिरपंच हार गव, काँ से होय भलाई।।2।।
हारै गओ सरजुआ धानुक, करन पेट को हिल्लो,
मौड़ी-मौड़ा खेलें द्वारें बाके नन्दू-गुल्लो,
घरै घुसे दिन-दुफरें ज्वारी, सटर-पटर गठयाई।।3।।
लीप पोत कें घर अपने सब घी के दिया जराबैं,
द्वारे पनरा बजबजात जिनमें कीरा बिल्लाबैं,
डेंगू बीमारी में छै पट्ठन ने, जान गँमाई।।4।।
कइयक लोफर नौकरयन संग जब तौहार मनाबैं,
घूमैं पी सराब गलियन में, बापन को गरियाबैं,
कैबे कों तो दिआ खुशी के, छाती जरत हमाई।।5।।
बैरादारी इत्ती बढ़ गई, कोउ काउ को नइयाँ,
नैकउँ कै दो खरी काउ की, उल्टी करत पनहियाँ,
कैसें सुदरै दसा गाँव की, ऐसी मति बौराई।।6।।

रजिस्ट्रार, शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय, ग्वालियर (म0प्र0)

विस्मयकारी हर्ष का अनुभव ---- डॉ0 दिनेशचन्द्र द्विवेदी



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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मुखर स्वर ---- विस्मयकारी हर्ष का अनुभव
डॉ0 दिनेशचन्द्र द्विवेदी



अक्टूबर 2009 का ‘स्पन्दन’ अंक देखने का अवसर मिला। डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर द्वारा सम्पादित चतुर्मासिक पत्रिका का यह अंक डॉ0 लखनलाल पाल के सम्पादन में लोकार्पित हुआ है। उरई जैसे कम सारस्वत सुविधाओं वाले स्थान से ऐसी पत्रिका का प्रकाशन विस्मयकारी हर्ष प्रदान करने वाला है। आलेख, कहानी, संस्मरण व्यंग्य तथा कविता को स्थान देकर इस पत्रिका ने विस्तृत साहित्यिक धरातल का स्पर्श करना चाहा है।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी ‘पोस्टमास्टर’ को स्थान लेकर उच्च साहित्यिक चेतना के प्रति आग्रह प्रदर्शित करती यह पत्रिका समकालीन सरोकारों से लैस डॉ0 सुरेन्द्र नायक की ‘एहसान’ कहानी के माध्यम से उपभोक्तावादी मानसिकता में छिपे वासनामूलक सूक्ष्म एहसासों को निरूपित करने की चेष्टा है। कथाकार ऐन्द्रिय गंध की प्रतीति करवा सका है किन्तु इससे कहीं अधिक उसने मानवीय संवेदनाओं के अकाल के समकाल में उच्चतर मूल्यों से विलोपित संवेदनाओं के प्रति रुचि प्रदर्शित कर युगीन खण्डित न्यूनताओं को खारिज करने की कोशिश की है। ‘संघर्ष हमारा नारा है’ व्यंग्य के माध्यम से व्यंग्यकार ने आज की जिन्दगी की आपा-धापी को बिम्बात्मक परिदृश्यों से रेखांकित करके प्रस्तुत किया है। जो अखर रहा है उसे प्रस्तुत करने का प्रभावशाली प्रकार व्यंग्य है। रसोई गैस आज के जीवन की अनिवार्यता बन गई है। इसे प्राप्त करना उतना ही कठिन हो गया है। जितना कभी द्रोणचल पर्वत से संजीवनी बूटी लाना। यह व्यंग्य सामाजिक, प्रशासनिक तथा घरेलू विसंगतियों पर तिहरी चोट पहुँचाता है। अमित मनोज की ‘सच’ कहानी में एक शहीद पर प्रशासनिक और राजनीतिक कारगुजारियों के विक्षोभकारी परिदृश्य हैं। लगता है कि हर घटना, परिदृश्य तथा जीवन-पथ पर साहित्यकार की नजदीकी नजर है।
इस अंक की रूपनारायण सोनकर की ‘दूध का दाम’ कहानी अपने कलेवर में पत्रिका की सामर्थ्य से बड़ी कहानी में एक उपन्यास का वस्तु-विन्यास धारण किए हुए है। मिसेज सी-जार्ज जोजेफ की दैहिक बनावट को वासनात्मक लिखावट में प्रस्तुत किया गया है। नपुसक पति की असमर्थता का दाह किसी नारी को कितना तड़पाता है इसका जीवन्त चित्रण है। एक बच्चे को गोद लिया जाना फिर नाटकीय ढंग से एक बच्चा और एक बच्ची का जन्म होना। ये बच्चे बड़े होकर कथानक को दूरदर्शन के धारावाहिकों जैसा रूप प्रदान करने लगे। फिर गोद लिया बेटा सी-जार्ज जोजेफ के नपुसक संदेश से माँ मिसेस जोजेफ की जान बचाने के लिए नाटकीय प्रकार से शहीद होने की चेष्टा करता है। कथानक की आवश्यकता न होते हुए भी जोजेफ सन्तान पीटर के बैक-ओपेन प्रसंग को फूहड़ता से जोड़ा गया है। घटना पर घटना जोड़ने वाले की प्रवृत्ति से कथाकार जज की वासना को कथानक के साथ जोड़कर उसके आदेश पर दीवान सिंह द्वारा लारेन्स को सूट करवा देता है। कहानीकार के पास शब्दशक्ति, कल्पनाशक्ति तथा कथा-विन्यास को रूपायित करने की शक्ति दिखती है किन्तु कम पन्नों एवं कम समय में समाज की प्रत्येक विकृति को चित्रांकित करने का उसका प्रयास कहानी को विचित्र, फूहड़ तथा बेढब बना देता है।
‘धुँआ उठने लगा है’ के0पी0 मीणा के संस्मरण में आदिवासी जिन्दगी को निहारने की प्रशंसनीय चेष्टा की गयी है। ऐसी सामग्री पत्रिका को बहुआयामी तथा जनवादी बनाती है। मानव श्रम को क्षरित, सीमित तथा समाप्त करने का दर्द भरा सत्य ‘करघों से रिक्शों के हैंडिल तक’ आलेख में विवक्षित है। इस प्रकार के आलेख यान्त्रिक युग की अपेक्षा मानव-श्रम-युग की महत्ता को महत्व देकर वस्तुतः ओस की बूँदों पर पड़ रही सबेरे के सूरज की रोशनी को बनाये रखने की कोशिश को बरकरार रखना चाहते हैं। इस अंक का ‘काव्य प्रसून’ सोच और संवेदना के पक्ष की प्रभावशाली प्रस्तुति कर सका है। एतदर्थ इन कविर्मनीषियों को साधुवाद। सम्पादक और रचनाकारों को बधाई।

221 ‘स्वस्तिप्रस्थ’ सुशीलनगर
उरई (जालौन) मो0 9506030433

चाहना हो रोशनी की ---- हितेश कुमार शर्मा



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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गीत ---- चाहना हो रोशनी की
हितेश कुमार शर्मा



शक्ति जब होने लगे कम आदमी की।
तब सही पहचान होती है सभी की।।
दर्द घुटनों में बढ़े चलना कठिन हो,
दस दफा कहना पड़े जब, क्या, कहिन हो,
देखना सुनना बहुत दुस्तर बने जब,
चाहना हो साथ चलने को किसी की।
तब सही पहचान होती है सभी की।।
हो सहज हर वस्तु रखकर भूल जाना,
सोचने पर भी, न कुछ भी याद आना,
स्मृति हो क्षीण माजी याद आये,
आईना बन जाये भाषा बेबसी की।
तब सही पहचान होती है सभी की।।
हाँपनी चढ़ जाए गर्मी में जरा सी,
और सर्दी में उठे दिन रात खाँसी,
दिया बाती के लिए उट्ठे नहीं तन,
और मन में चाहना हो रोशनी की।
तब सही पहचान होती है सभी की।।
पास में कोई न हो जब बोलने को,
और साहस हो न साँकल खोलने को,
अपना साया भी लगे विश्वासघाती,
करें किससे बात अपने मन सरीखी।
तब सही पहचान होती है सभी की।।

गणपति भवन, सिविल लाइन्स, बिजनौर-246701

अपनी नोनी बुन्देली बोली ---- पं0 बाबूलाल द्विवेदी



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली कविता ---- अपनी नोनी बुन्देली बोली
पं0 बाबूलाल द्विवेदी



हिन्दी सें मौं लगी बुन्देली सबसे करत किलौली।
जनवा जियै देश कौ जिउ कत, ऊ जिउ की जा बोली।।
आये गंगापुरी-कुढार सें, रुद परतापजू राव।
ओर छोर गंगा सी बै रहॅ धरो ओरछा नाव।।
पडिहारन कौ राज हतौ, जब कम हो गव पर्भाव।
किलो बनावे खौं निउ डारी, करो शेर ने घाव।।
बारा कुंवर हते राजा के बड़े भारती चन्द।
जैजाक भुक्ति (दशार्ण) नाव खौं बदलो उन ने बुन्देलखण्ड।।
ई अपने बुन्देलखण्ड में खेलत रंग रेंगोली।
जनवा जिये देश कौ जिउ कत, ऊ जिउ की जा बोली।।
भये सरगराजा भारती (चंद) के भैया मंझले राजा।
मधुकर शाह ने राज संभारो कालिंजर जस छाजा।।
तिलक लगावे जब अकबर ने लगादई पावंदी।
मानीनई, कत मधुकर शाही आजउ रामानन्दी।।
उनकी रानी कुंवरि गनेश ने देखो काम अधूरो।
ओरछा नाव ससुर दव इनने धाम बना दव पूरो।।
पुक्खन पुक्खन आए राम सुनि जा बोली हमजोली।
जनवा जियै देश कौ जिउ कत, ऊ जिउ की जा बोली।।
जमना सें नरवदा-टोंस, चम्बल नदिया के बीच।
ग्यारा हजार छः सौ पैंसठ गांव, परगना चवालीस।।
आव ककाजू, हवजू, कवजू, बोलत महल मड़ैया।
कोंड़न किसा कानियां के सुन खेलत चैयॉ मैंयॉ।।
गुईंयां गुईंयां चाय चरावें छिरियां, भैंसे, गंईयां।
नोनी बोली सुगर सलौनी और कितउ जा नइयां।
छत्तिस गढ़ी मराठी मालइ, ब्रज भाषा रस घोली।।
जनवा जिये देश कौ जिउ कत, ऊ जिउ की जा बोली।।
जिला सात उत्तर प्रदेश के झांसी और ललितपुर।
चित्रकूट, जालौन, महोबा, बांदा और हमीरपुर।
मध्य प्रदेश के चउदा-दतिया, रायसेन, जब्बलपुर।
गुना, हुसंगाबाद, शिवपुरी, ग्वालियर और छतरपुर।।
पन्ना, सागर, टीकमगढ़, विदिशा, दमोह, नरसिंगपुर।
भारत को जिउ-जो बुन्देलखण्ड-जिला इकईस मिलाकर।
सब के ओंठन ओंठन खेलत हँस-हँस करत ठिठौली।।
जनवा जिये देश कौ जिउ कत, ऊ जिउ की जा बोली।।
कोउ कत जा सिरमौन सवन में, कोउ बेलन की बेली।
हिन्दी के माथे की बिंदिया, कोउ कत इयै सहेली।।
परम रसीली, गुन गरवीली-है एकइ अलबेली।
मिसरी सी मीठी नौनी जा मनहर नई नवेली।।
सब भाषन की बर कैं सेली-पैरा राम ढकेली।
बाँके बोल बुन्देली के जे-‘मधुप’ की मधुर बुन्देली।।
पली, पुसी, खेलत, बड्डी, भइ सन्सकिरत की ओली।
जनवा जिये देश कौ जिउ कत, ऊ जिउ की जा बोली।।

मानसमधुप, साहित्यायुर्वेद रत्न,
ग्राम छिल्ला बानपुर, ललितपुर, उ0प्र0

बुन्देली गारी ---- पुष्पा खरे



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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बुन्देली गारी/पुष्पा खरे



चाय पी पी के दूध घी की कर दई मंहगाई।
बड़ी आफत जा आई।
बेंचे दूध घरे न खावें, लड़का वारे बूंद न पावें।
चाहे पाहुन तो आ जावें
देवी-देवता लौ होम देशी घी के न पाई। बड़ी आफत जा आई।।
घर को बेचे मोल को धरते, रिश्तेदारों से छल करते,
जे नई बदनामी से डरते,
डालडा से काम चले हाल का सुनाई। बड़ी आफत जा आई।।
घी और दूध के रहते भूखे, जब तो बदन परे है सूखे,
भोजन करत रोज के रूखे
स्वाद गोरस बिन भोजन को समझो न भाई। बड़ी आफत जा आई।।
देशी घी खों हेरत फिरते-चालीस रुपया सेर बताते,
डालडा तो खूब पिलाते,
बेईमानी की खाते हैं खूब जे कमाई। बड़ी आफत जा आई।।
जब से चलो चाय को पीना, जिनखों मिले न धड़के न सीना
आदत बालों का मुश्किल है जीना,
सुबह शाम उनको परवे न रहाई। बड़ी आफत जा आई।।
अपना बने चाय के आदी, चालू स्पेशल को स्वादी,
कर दई गोरस की बरबारी।
बीच होटल में देखो जहाँ चाय है दिखाई। बड़ी आफत जा आई।।

7, राजेन्द्र नगर, सतना (म0प्र0)

पत्री (कुण्डली) --- राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी'



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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लघुकथा --- पत्री (कुण्डली)
राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी'



रमेश के ब्याव कै समय पत्री (कुण्डली) को एनई अच्छी तरह से मिलाबे के बाद ही पंडित जू ने कई ती कि इनके तो सबई गुन मिलत हैं। राम-सीता सी जोड़ी रये। पंडित के जा कैबे भर की देर हती, रमेश को ब्याव कर दओ गओ। कछु दिनन तो नई बहू को पाकै सबई जने खुश रये, फिर नई बहू ने अपनौ असली रूप दिखावों चालू कर दओ। अपने घमंडी एवं लड़ंकू स्वभाव के कारण घर में रोज चैं-चैं मची रत्ती, बहू रमेश से जा घर से अलग रहे के लाने कतती। रमेश जा के लाने राजी न हतो, सो वा तो रमेश से भी रात में लड़त हती। रोजई की किलकिल से रमेश को जी उनई भर गओ हतो। सौ रमेश ने ऊकी छोर-छुट्टी (तलाक) कर दई। अब रोज की दांती से घर को चैन मिल गओ।
एक दिना घर के सब जने दलान में बैठे हते तो दद्दा ने कई की जाने कौन घरी हती जब जा नई बहू अपने इतै आयी हती। इनै तो नकुअन में दम कर दई हती। तो वईं बैठो एक छोटो मोड़ा बोलो-‘‘दद्दा, जब अपुन ने चाचा को ब्याव करो हतो तो अपुन के पंडित कक्का ने जा कई ती कि जा जोड़ी तो राम-सीता सी रये। इनके तो सबई 36 गुण मिलत है फिर जा कैसी पत्री पंडित जू ने मिलाई?’’
दद्दा को जबाब में कछु कतन न बनो।

संपादक-आकांक्षा, नई चर्च के पास,
शिवनगर कालोनी, टीकमगढ़ (म0प्र0)

फूल और बच्चा ---- कुँवर प्रेमिल



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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लघुकथा --- फूल और बच्चा
कुँवर प्रेमिल


एक बड़ी सी कोठी थी। उसमें एक बड़ा सा अहाता था। अहाते में एक छोटा किन्तु सुन्दर सा बगीचा था। बगीचे में रंग-बिरंगे फूल थे। बेहद सुन्दर-सुन्दर अनगिनत फूल कोई दूर से टिमटिमाते तारे जैसा तो कोई गोल-मटोल सूरज जैसा। उज्ज्वल-उज्ज्वल प्यारे चाँद जैसा तो कोई चमकते जुगनू जैसा। कहीं-कहीं तो फूलों की आतिशबाजी हो रही थी मानो फूलों का एक मेला सा भर गया था। वहाँ फूलों को तोड़ना तो अलग उन्हें छूने की भी सख्त मुमानियत थी। उन्हें चारों तरफ से एक काँटेदार बाड़ द्वारा घेर दिया गया था, ऊपर से एक चौकीदार भी सुरक्षा हेतु नियुक्त कर दिया गया था।
कोठी वाले फूलों की सुरक्षा से खुश थे। कोई परिन्दा भी वहाँ पर नहीं मार सकता था। सब कुछ पूरे नियंत्रण में था। एक दिन चौकीदार की आँखें दोपहरी में क्या झपकी कि गज़ब हो गया। उसका फायदा उठाकर एक सुन्दर सा गोल-मटोल बच्चा उस बगीचे में आ घुसा। फूल जो एक अरसे से अनमने थे, उदास-उदास ऊँघते रहते थे, बच्चे को देखकर एकदम चैतन्य हो गये। उनके अधरों पर मुस्कुराहट तैरने लगी। वे सब अधीर हो चले बालक को अपनी ओर आता देखकर आनन्द से झूमने लगे।
सहमा-सहमा सा बच्चा आगे बढ़ने लगा, उसे चौकीदार का भय सता रहा था। पूरी सतर्कता से वह एक-एक कदम आगे बढ़ा रहा था। ज्यों-ज्यों बालक फूलों के पास पहुँचने लगा, त्यों-त्यों फूलों के दिल खुशियों से धड़कने लगे। वे इशारा करने लगे, बच्चा फूूलों का स्नेह निमंत्रण पाकर उनके पास दौड़कर जा पहुँचा।
बच्चा फूलों को छू-छूकर देखने लगा। उन्हें बेतहाशा चूमने लगा। बच्चा और फूल आलिंगनबद्ध होकर एकरस हो गये थे। बच्चा और फूल, फूल और बच्चा एक दूसरे को पाकर खुशियों से भर गये थे। अब फूल तोड़कर बच्चा अपनी जेबें भरने लगा। फूल उसे और फूल तोड़ने के लिए उकसाने लगे। वे झुक झुककर स्वयं उसकी ओर खिंचे चले आने लगे। एक दूसरे को पाकर दोनों फूले नहीं समा रहे थे। तभी मानो एक तूफान आ गया। बच्चा, चौकीदार द्वारा देख लिया गया।
‘‘औ....ऐ...निखट्टू....बड़ा आया फूल तोड़ने वाला। मुझे नौकरी से निकलवायेगा क्या ...चल भाग...फूट यहाँ से।’’ चौकीदार बच्चे पर बुरी तरह गुस्सिया रहा था। बच्चा घबराया, फूल भी घबराये। छोटे फूल ने बड़े फूल से कहा -‘‘दादा! कहीं ये बागड़बिल्ला इस मामूम को सचमुच मार ही न बैठे।’’
‘‘तब तो बहुत बुरा होगा....बच्चा भूलकर भी हमारी ओर फिर कभी नहीं आयेगा।’’ छोटा फूल चिंचित हुआ जा रहा था। चौकीदार ने बच्चे के कान गरम किये तो बड़े फूल का गला भर आया। नन्हा फूल भी रुंआसा हो गया। बड़े फूल ने कहा-‘‘नन्हे, ये आदमी इस बात को क्यों भूल जाते हैं कि बच्चे ही फूलों के सच्चे कद्रदान हैं। बच्चे फूलों के साथ नहीं खेलेगे तो उनके फूलों जैसे मन कैसे होंगे। बच्चे फूलों से ही तो हँसना सीखते हैं, गुनगुनाते हैं, अपनी कल्पना के महल खड़े करते हैं। काश! हमें बच्चों के साथ ही रहने दिया जाता तो कितना अच्छा होता।’’
‘‘दादा देखो तो उस बदमाश चौकीदार ने बच्चे को एक चाँटा भी जड़ दिया है। उसके गाल पर पाँचों अंगुलियाँ उछल आई हैं। यह तो पूरा कसाई निकला।’’ कहते-कहते नन्हा फूल भय से पीला पड़ गया। वह कँपकँपाकर डाल से नीचे गिर गया। नन्हे पुष्प को शाखा से गिरते देख एक-एक कर सारे फूल अपनी शाखाओं से टूटकर नीचे जा गिरे। वे सब जमीन पर पड़े-पड़े अंतिम साँसें ले रहे थे। वह बच्चा चौकीदार द्वारा बाहर खदेड़ दिया गया था।
उधर मार खाकर भी वह बच्चा खुश था, उसकी जेब में रंग-बिरंगे फूल जो भरे थे।


एम0आई0जी0 - 8 विजयनगर, जबलपुर - 482002

धिक्कारता हुआ चेहरा --- युगेश शर्मा



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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कहानी --- धिक्कारता हुआ चेहरा
युगेश शर्मा



दो स्थान ऐसे होते हैं जहाँ शोरगुल और आवाजाही को कभी विराम नहीं मिलता, फिर चाहे दिन हो या हो रात। ये दो स्थान हैं -रेल्वे प्लेटफार्म और अस्पताल। जब यह बाहरी शोरगुल इंसान की भीतरी उथल-पुथल के साथ मिल जाता है, तो उसके मन-मस्तिष्क में एक अजीब सी बेचैनी व्यापने लगती है। तब उसको भीतर ही भीतर छटपटाहट की अनुभूति होती है और अंतर्मन में प्रश्नों की बेमौसम बरसात सी होने लगती है।
बॉम्बे हास्पिटल की तीसरी मंजिल के प्रायवेट वार्ड नं0-10 में अनुपम ऐसी ही झंझावातों के बीच फँसा हुआ है। सुबह और शाम के समय तो परिवार के लोगों और मुलाकातियों की आवाजाही लगी रहती है, पर दोपहर बाद के तीन-चार घंटे तो वह लंबे-चौड़े़ प्रायवेट वार्ड में अकेला ही रहता है। नहीं.....नहीं......एकदम ‘अकेला’ कहना तो ठीक न होगा। एक और भी शख्स उस वार्ड में है-अनुपम के बीमार पिता, नामचीन लेखक पंडित हरिचरण ‘प्रचंड’, प्रचंड तो उपनाम है जो उनको साहित्य ने दिया है। मूल नाम तो पंडित हरिचरण चतुर्वेदी है। साहित्य की दुनिया में ख्याति बढ़ी तो ‘चतुर्वेदी’ को अनंत वनवास देकर ‘प्रचंड’ ने उनके नाम के साथ अटूट गठजोड़ कर लिया।
कहने के लिए तो उस प्रायवेट वार्ड में उस वक्त दो इंसान थे पर दूसरे इंसान अर्थात् हरिचरण ‘प्रचंड’ का वहाँ रहना, न रहने के बराबर ही था। पाँच दिन पहिले जब उनको अस्पताल में दाखिल किया गया था, तब से वे लगातार बेहोशी की हालत में पलंग पर हैं। न उनको रात के आगमन से कोई फर्क पड़ता है और न सबेरा होने से। महंगे से महंगा इलाज चल रहा है उनका। दुनिया भर के बड़े डॉक्टर आकर उनको देख चुके हैं पर पलंग पर लेटे उनके शरीर में एक क्षण के लिए भी जीवन के चिन्ह प्रकट नहीं हुए। जब से वे अस्पताल में दाखिल किये गये हैं, तभी से लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम के भरोसे हैं।
देश भर में एक लेखक के बतौर बड़ा नाम है प्रचंडजी का। बिक्री में कीर्तिमान रचने वाली 50 पुस्तकें उनके खाते में हैं। आधा दर्जन कहानियों पर फीचर फिल्में बन चुकी हैं। उनके उपन्यास पर बने पाँच टी0वी0 सीरियल भी खूब चर्चित रहे हैं। लंबी सृजन-यात्रा में उनको मिले सम्मान और पुरस्कारों की तो कोई गिनती ही नहीं।
परिवार के मुखिया प्रचंड जी के स्वास्थ्य की इस हालत को लेकर उनका परिवार दो भागों में बँट गया है। कुछ सदस्यों का कहना है कि इस सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए कि बाबू जी के प्राण अब उनके पार्थिव शरीर में नहीं हैं। लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम की झूठी आस के सहारे बैठे रहना तो खुद को धोखा देना है... शेष सदस्य चमत्कार की उम्मीद लिए जो कुछ चल रहा है, उसको जारी रखने के पक्ष में थे।
अनुपम प्रचंडजी का बड़ा बेटा है। वह एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बड़े ओहदे पर है। छोटा बेटा शहर का रसूखदार बिल्डर है। भवन निर्माण के करोड़ों के ठेके लेता है। तीसरे बेटे की पास के औद्योगिक क्षेत्र में बिजली का सामान बनाने की अच्छी-खासी फैक्ट्री है।
प्रायवेट वार्ड के दरवाजे पर खट-खट की आवाज़ ने बाहरी और भीतरी शोरगुल में फँसे अनुपम को कुछ उबारा। उसने स्वयं को सम्हालते-सहेजते हुए दरवाजा खोला। बाहर अरुण कुमार था उसकी कंपनी का कानूनी सलाहकार। हरफनमौला, फितरती इंसान। आड़े-तिरछे सरकारी-गैर सरकारी काम कराने में अच्छी महारत हासिल है। उसको रेत से तेल निकालने का हुनर भी खूब आता है। ‘सोर्स’ का पता लगाकर उसका दोहन करने की उसकी कला का तो कोई जवाब नहीं है।
अरुण कुमार आज पहली बार तो वहाँ आया नहीं था। पिछले 5 दिनों में कम से कम तीन बार वह यहाँ आ चुका है। उस दिन अनुपम और अरुण कुमार के बीच बातचीत कंपनी के मामलों से होते हुए हरिचरण ‘प्रचंड’ की हालत पर आ टिकी। अरुण कुमार सहसा बोल पड़ा-‘‘अनुपम जी, आज मैं एक खास मशविरा देना चाहता हूँ आपको। मानो तो बात आगे बढ़ाऊँ।’’
‘‘हाँ-हाँ कहो न। इसमें संकोच करने और मुझसे पूछने जैसी भला कौन सी बात है।’’ अनुपम ने बात को आगे बढ़ाते अपनी सहमति दी।
‘‘बात यह है अनुपम जी कि मेडिकली तो चाहे बाबूजी जिंदा न हों, किन्तु जब तक डॉक्टरों ने लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम पर उनको रखा हुआ है तब तक टेक्नीकली तो वे जीवित हैं ही’’-अरुण कुमार ने सकुचाते हुए अपनी बात कही-‘‘डॉक्टरों द्वारा इस लाइफ सपोर्टिग सिस्टम को हटाने के पहिले आप कुछ कर लें, तो ठीक रहेगा।’’
अनुपम को अरुण कुमार की बात ठीक-ठीक समझ में नहीं आई। पूछ बैठा-‘‘कुछ कर लेने का मतलब मुझे ठीक से समझ में नहीं आया। साफ-साफ कहिये न, आखिर आप चाहते क्या हैं?’’
‘‘देखो मित्र, आपके पिताजी एक मशहूर हस्ती हैं। देश और प्रदेश में उनका बड़ा मान-सम्मान है। उनके लिटररी कन्ट्रीब्यूशन से यहाँ से वहाँ तक कोई अनजान नहीं हैं। आज जो लोग मंत्रियों की कुर्सियों पर बैठे हैं, वे सब किसी न किसी समारोह में बाबूजी को सम्मानित कर चुके हैं। मैं चाहता हूंँ कि आप समय रहते उनके इस सम्मान और उनकी प्रसिद्धि की कीमत वसूल लें। ऐसा मौका आपको दुबारा हाथ लगने वाला नहीं है।’’
‘कीमत....कैसी कीमत!’’ अनुपम आश्चर्य चकित हो पूछ बैठा।
‘‘अरे भाई, आजकल सरकार नामचीन साहित्यकारों और कलाकारों को इलाज के वास्ते लाखों रुपये मदद के रूप में बाँटती है, वह भी उनके परिवार की माली हालत को नज़रअंदाज करके। आपने अखबारों में कुछ महीने पहिले पढ़ा ही होगा कि सरकार ने एक बड़े कलाकार को बड़ी रकम आर्थिक सहायता के बतौर दी है, जबकि उस कलाकार का परिवार करोड़पति से कम हैसियत नहीं रखता। उस कलाकार ने अपनी कला से देश-विदेश में खूब कमाई की थी। अच्छी प्रापर्टी भी वह अपने पीछे छोड़ गया है, वह नामचीन कलाकार।’’
‘‘याने आप यह चाहते हैं कि हमें भी बाबूजी के इलाज के बहाने सरकार से मोटी रकम ऐंठ लेनी चाहिए.....।’’
‘‘हाँ, बिल्कुल सही समझा आपने। मैं बस यही तो चाहता हूँ। आखिर आपका दोस्त हूँ यार! गलत मशविरा थोड़े ही दूँगा।’’
‘‘अरुण कुमार जी, आपका यह मशविरा मेरे गले नहीं उतरा। मैं एक खुद्दार लेखक का बेटा हूँ। मेरी अंतरात्मा ऐसा करने की मुझे अनुमति नहीं देती फिर भगवान का दिया हमारे पास सब कुछ तो है। हम तीनों भाई लंबे समय तक बाबूजी का महंगे से महंगा इलाज कराने में समर्थ हैं।’’
तब तक अस्पताल के कैण्टीन से कॉफी आ चुकी थी। कुछ मिनट तक वातावरण में चुप्पी पसरी रही। अरुण कुमार कॉफी खत्म कर उठ खड़ा हुआ। वह दरबाजे की तरफ बढ़ते हुए अंततः कहने से नहीं चूका-‘‘मेरी बात पर एक बार फिर ठंडे दिमाग से विचार कीजिए मित्र। मैं परसों फिर आऊँगा।’’
अरुण कुमार जाते-जाते अनुपम को असमंजस के भँवर में फँसा गया। एक पराये संजीदा आदमी के हितोपदेश को वह एकदम नकार भी नहीं सका। अनुपम को इस मशविरे में अरुण कुमार का कोई निहित स्वार्थ भी नहीं दिखा।
पैसों का आगमन अच्छे-अच्छों की त्याग-तपस्या को हवा में उड़ाने की ताकत रखता है। अनुपम ने बारी-बारी से अरुण कुमार के सुझाव पर परिवार के सदस्यों की प्रतिक्रिया मालूम की। आधे से ज्यादा सदस्य चाहते थे कि जब सरकार आर्थिक सहायता देती ही है, तो लेने में शर्म या अड़चन कैसी। लेकिन बात थी कि अनुपम के गले उस समय उतर नहीं रही थी।
दूसरे दिन रात के वक्त जब अनुपम डिनर के लिए घर पर था, उसी समय प्रचंडजी के सहपाठी रजनीकांत जी वहाँ आये। प्रचंडजी के बच्चे उन्हें ‘रजनी अंकल’ कहकर पिता जैसा ही मान-सम्मान देते हैं। वे तो प्रचंड परिवार के एक सदस्य की मानिंद हैं, उस परिवार के सुख-दुख के साथी। उनकी बातों को भी परिवार में गंभीरता से सुना-माना जाता है। इन दिनों तो प्रचंड जी की अनुपस्थिति में परिवार में मुखिया जैसी हैसियत रजनीकांत जी को मिली हुई है। कुछ देर प्रचंडजी के स्वास्थ्य के बारे में चर्चा के बाद अनुपम ने अरुण कुमार के सुझाव के बारे में रजनी अंकल को सब कह सुनाया।
रजनीकांत जी तो सुनकर हक्के-बक्के रह गए। अनुपम के चेहरे के भावों को पढ़ते हुए बोले-‘‘मेरे मित्र के साथ इससे बड़ा क्रूर मजाक तो दूसरा कोई हो नहीं सकता।...मेरा मित्र संघर्षों से जूझते हुए बड़ा लेखक बना है।...शुरू में तीखे तेवर वाली उसकी कहानियों को गिनी-चुनी पत्रिकाएँ ही छापती थीं, प्रकाशक भी उसकी किताबों की पांडुलिपियाँ बेरहमी से लौटा दिया करते थे। लेकिन तब भी उसने न तो अपने स्वाभिमान को बेचा और न ही प्रकाशकों की ओछी शर्तें स्वीकार कीं।’’
रजनीकांत जी के मार्मिक कथन को सुन अनुपम अतीत की स्मृतियों में खो गया। एक प्रकाशक एक बड़े राजनेता पर लिखी गई किताब की भूमिका प्रचंड जी से लिखवाना चाहता था। बड़ी रकम का ऑफर भी दिया था उसने। ऊपर से भारी दबाव भी डलवाया गया था लेकिन उन्होंने भूमिका नहीं लिखी। तब से उस बड़े प्रकाशक ने उनकी किताबें छापना ही बंद कर दिया था। हजारों की रॉयल्टी भी उसने हजम कर ली थी। प्रचंड जी जानते थे कि जिस राजनेता पर वह किताब थी, वह नंबर एक का पापी और भ्रष्ट है। कोई ऐसा दुष्कर्म नहीं था, जो उसने सत्ता में रहते न किया हो।
अनुपम की स्मृतियों में वह वाकया भी ताज़ा हो उठा-जब प्रचंडजी की एक किताब से एक सच्चा किन्तु कुछ बड़े लोगों के लिए अप्रिय बना प्रसंग न हटाने पर उनको साहित्य के एक बड़े सरकारी पुरस्कार से वंचित कर दिया गया था। तब प्रचंड जी ने साफ कह दिया था-‘‘मैं अपनी ही शर्तों पर जीना और अपनी ही शर्तों पर लिखते रहना चाहता हूँ। समझौता करके और सरकार या अन्य किसी के सामने हाथ फैलाकर मैं कभी कुछ नहीं माँगूँगा।’’
अनुपम को यूँ विचारों में खोया-खोया सा देख रजनीकांत जी भी थोड़ी देर के लिए चुप्पी साध गए। जब लगा कि वह सामान्य स्थिति में लौट आया है तो उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा-‘‘हरिचरण चाहता तो अपने लेखन के तेवरों में ठंडापन लाकर तब बहुत कमाई कर सकता था। सच बात तो यह है कि किसी के सामने हाथ फैलाना उसको तनिक भी नहीं भाता था। बेटा, उसी हरिचरण के स्वाभिमानी हाथों को वह अरुणकुमार, सरकार के सामने फैलवाना चाहता है। मैं तो इसके लिए अपनी सहमति कदापि नहीं दूँगा।...हाँ, तुम लोग फैसला लेने के लिए पूरी तरह आज़ाद हो। मैं उसमें कोई दखल नहीं दूँगा।’’
उस समय अनुपम की जबान तो जैसे तालू से ही चिपक कर रह गई थी। उससे कुछ कहते नहीं बन रहा था।
‘‘देखा बेटा’’, रजनीकांत जी ने अपने मन की बात जाहिर करते हुए कहा-‘‘प्रथम तो हरिचरण ने तुम तीनों भाइयों को इस लायक बना दिया है कि उनके इलाज पर तुम लोग भरपूर पैसा खर्च कर सकते हो। आज तुम लोगों के पास जो कुछ भी है वह तुम्हारे बाबूजी की कठिन तपस्या और उनके परिश्रम का ही प्रतिफल है। यदि फिर भी कोई कमी है, तो तुमको हरिचरण की किताबों के प्रकाशकों से पैसा जुटाना चाहिए क्योंकि उन्होंने उसकी बेस्ट सेलर किताबों को बेचकर करोड़ों कमाये हैं।एक लेखक जब अपना खून-पसीना एक करता है तब ही वह कोई अच्छी किताब लिख पाता है। यदि प्रकाशक उनके इलाज के लिए कुछ देंगे भी तो वह तुम्हारे बाबूजी के हक़ का ही होगा, उनके खून-पसीने की वह क्षतिपूर्ति मात्र होगी।’’
‘‘अंकल बात तो आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। प्रकाशकों ने बाबूजी की किताबों की पूरी रॉयल्टी कभी नहीं दी। उनका तो चालाक प्रकाशकों ने भरपूर शोषण ही किया है।’’ अनुपम भी अपने मन की बात कहे बिना न रह सका। वह तो इस शोषण लीला का चश्मदीद गवाह है।
रजनीकांत जी का मन-मस्तिष्क उद्विग्नता से भर उठा। वे बोले-‘‘एक साहित्यकार को जिंदगी भर उसके प्रकाशक और परिवार वाले मनमाना निचोड़ते हैं, लेकिन जब उसकी चलाचली की बेला आती है तो उसको निराश्रित सा बनाकर समाज और सरकार की दया पर छोड़ देते हैं। यह तो वैसा ही निर्मम कृत्य हुआ, जैसा कृत्य बूढ़े नकारा बैल को जंगल में हलाल कर एक स्वार्थी किसान करता है।’’ रजनीकांत जी के तन-मन में गहरी पीड़ा की लहर सी दौड़ गई थी। वे अधिक देर वहाँ नहीं रुक सके और अनुपम को कुछ ज़रूरी हिदायतें दे वहाँ से चल दिये।
अनुपम को तब एक धर्मसंकट ने घेर लिया था। उस वक्त ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं था जो उसको इस धर्मसंकट से उबारने की कूबत रखता हो। उसने अस्पताल में बाबूजी की सेवा-टहल के लिए उस समय मौजूद छोटे भाई से मोबाइल पर दवा आदि के बारे में पूछताछ की और फिर सोने के लिए अपने कमरे में चला गया। उसकी नींद को आज की रात कई बेमुरव्वत प्रश्नों ने घेर लिया था। लाख कोशिशों के बाद भी नींद उसकी आँखों तक नहीं पहुँची। उसकी सारी रात आँखों में ही कट गई।
प्रश्नों का बोझ भी कम जानलेवा नहीं होता। वह अच्छे-खासे बलवानों का हौसला भी पस्त कर डालता है। इस बोझ के नीचे दबे इंसान की सोचने-विचारने की शक्ति तो जैसे गायब ही हो जाती है।
अरुण कुमार वादे के मुताबिक तीसरे दिन लंच से कुछ पहिले ही अस्पताल में अनुपम के पास पहुच गया। वार्ड में प्रचंड जी पूर्ववत लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम पर थे। शरीर में तनिक भी हलचल नहीं थी। तरह-तरह की दवाइयों की गंध से वार्ड भरा हुआ था। अनुपम के चेहरे पर चिंता और अनिर्णय के मिश्रित भाव पसरे हुए थे। रजनी अंकल की खरी-खरी बातों ने उसको भीतर तक झकझोर दिया था।
‘‘बोलिए अनुपम जी, सरकार से मदद लेने के बारे में आपने क्या सोचा?’’ अरुण कुमार ने कुर्सी पर बैठते-बैठते बिना भूमिका के पूछ लिया।
दो मिनट यूँ ही चुप्पी में निकल गये।
अनुपम को जब यह अहसास हुआ कि अरुण कुमार के प्रश्न पर कोई न प्रतिक्रिया तो देनी ही होगी, तो बेमन से बोला-‘‘हम लोग अभी कोई निर्णय नहीं कर पाये हैं...।’’
‘‘आपको कोई ताजमहल का सौदा थोड़े ही करना है मित्र। बाबूजी के इलाज के लिए सरकार से 3-4 लाख रुपयों की आर्थिक सहायता ही माँगनी है, बस...। संकोच और आदर्शवाद को गोली मारो और आने वाली लक्ष्मी का स्वागत करो। मौका भी है और दस्तूर भी।’’
‘‘अरुण जी, यह तो स्वाभिमानी प्रकृति के हमारे बाबूजी के सिद्धांतों के एकदम खिलाफ होगा।’’-अनुपम ने चुप्पी तोड़ी।
‘‘मेरे दोस्त आजकल स्वाभिमान और सिद्धांत केवल कपड़े धोने के साबुन की गुणवत्ता बढ़ाते हैं। इन फालतू की बातों को छोड़ो। मैंने संस्कृति महकमे के लिए आवेदन पत्र टाइप करवा लिया है। सिग्नेचर करो और डॉक्टर का सिफारिशी पत्र नत्थी कर कल दोपहर तक मेरे पास पहुँचा दो। बाकी काम मैं कर लूँगा।’’ अरुण कुमार ने दो टूक शब्दों मे अपनी बात कही और अनुपम को आवेदन पत्र पकड़ा दिया।
अनुपम ने आवेदन-पत्र को अपने हाथों में तत्काल नहीं सहेजा, तो अरुण कुमार को आखिरकार कहना ही पड़ा-‘‘आवेदन-पत्र पर सिग्नेचर करने के बाद आपको आर्थिक सहायता का चैक प्राप्त करने के अलावा कुछ भी नहीं करना पड़ेगा। सरकारी धन रूपी नदी के जल को इस या उस बहाने से अपने खेत में उलीचने के लिए किसी न किसी गोरखधंधे की मदद तो लेनी ही पड़ती है, वह सब मैं कर लूँगा। मित्र, अब इन सबसे परहेज करने वाले पछताते देखे जाते हैं। हम रोज देखते हैं कि जरूरतमंद तो सरकारी मदद की बाट जोहते ही ईश्वर या अल्लाह को प्यारे हो जाते हैं और बेज़रूरत लोग लाखों की रकम हथिया लेते हैं। ये सब भीतर की बातें हैं, उनके बारे में ज्यादा बताना ठीक भी नहीं। गुठलियाँ गिनने में वैसे रखा भी क्या है।’’ यह कहते-कहते अरुण कुमार के चेहरे पर व्यंग्यात्मक हँसी खिल उठी।
अरुण कुमार के वज़नदार तर्कों और अपने मन में अंकुरित लालच के वशीभूत होकर अनुपम ने आवेदन-पत्र पर एक नजर डाली और उस पर हस्ताक्षर के लिए वह जैसे ही उद्यत हुआ, पेन को पकड़ा हुआ उसका हाथ स्थिर हो गया। जैसे किसी ने उसको जबरन जकड़ लिया हो। उसने अपने हाथ में हल्की सी कँपकपी भी महसूस की। उस समय मन में ऐसा कचोटता सा भाव भी जागा जैसे वह कोई बड़ा अनर्थ करने जा रहा है।
अरुण कुमार की उपस्थिति के अहसास ने अनुपम को इस अप्रत्याशित स्थिति के दौर से जल्दी ही उबार लिया। उसने तन-मन की सारी ताक़त जुटायी और आवेदन-पत्र पर हस्ताक्षर कर अरुण कुमार को सौंप दिया। उसने उसको आश्वस्त भी कर दिया कि डॉक्टर का सिफारिशी पत्र वह उसके घर कल भिजवा देगा।
अरुण कुमार विजयी भाव लिए अस्पताल के वार्ड से बाहर हो गया। कुछ देर बाद डॉक्टर राउण्ड पर आया तो अनुपम ने सारी बात उसके सामने रखी और सिफारिशी पत्र लिख देने की गुजारिश की। डॉक्टर को भला इसमें क्या एतराज हो सकता था। सिफारिशी पत्र तैयार कर उसने वह अनुपम को सौंप दिया।
अनुपम ने जब डॉक्टर को धन्यवाद दिया, तो डॉक्टर अपने मन में छिपी बात को कहने से स्वयं को न रोक सका-‘‘मिस्टर अनुपम, आप इस समय शायद यह सोच रहे होंगे कि यह सिफारिशी पत्र मैंने इतनी आसानी से कैसे लिख दिया। दरअसल बात यह है कि पेशेंट जब अस्पताल में एक्सपायर हो जाता है, तो उसके रिश्तेदारों से इलाज की मोटी रकम वसूल कर पाना कई कारणों से बड़ा कठिन काम हो जाता है, फिर चाहे रिश्तेदार करोड़पति ही क्यों न हों। ऐसे भी मौके आये हैं जब पैसों की वसूली के लिए हमें डेड-बॉडी को सड़क पर रखना पड़ा है। सरकार से या किसी बड़े दानदाता से सहायता मिल जाती है, तो अस्पताल के बिल का पेमेंट आसान हो जाता है।’’
अनुपम ने संकोच भरे शब्दों में पूछा-‘‘डॉक्टर साहब सहायता का यह चैक मिलने में एक हफ्ता तो लग ही जायेगा। आप बाबूजी को लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम पर अब कितने दिन और रख सकते हैं?’’
‘‘देखिये, मेडिकली ही इज आलमोस्ट डेड। हम लोगों ने भ्रमजाल को 8 दिन खींच लिया। अधिक से अधिक 4 दिन हम और खींच सकते हैं, लेकिन प्रकरण की विशेष स्थिति को देखते हुए हम मरीज को एक हफ्ते और सिस्टम पर रख लेंगे। इसमें हमारा भी तो भला है।’’ डॉक्टर रहस्यमय ढंग से हल्का सा मुस्कुराया। डॉक्टर की ऐसी मुस्कुराहटों के सही-सही अर्थ कुछ ही चतुर लोग समझ पाते हैं।
संस्कृति महकमे को आर्थिक सहायता के लिए आवेदन पत्र भेजने के सातवें दिन की शाम के यही कोई पाँच बजे थे। अनुपम चिन्ता में डूबा हुआ था, उसी समय वार्ड के दरवाजे पर किसी के आने की आहट हुई। दरवाज़ा खोला तो बाहर चपरासी-सा दिखने वाला सरकारी कर्मचारी खड़ा था।
‘‘सर, क्या आप ही श्री अनुपम चतुर्वेदी जी हैं?’’ कर्मचारी ने पूछा।
‘‘हाँ, मैं ही अनुपम चतुर्वेदी हूँ। कहो क्या बात है?’’
‘‘लीजिये, यह लिफाफा। आपके लिए ही है।’’ कह कर चपरासी ने लिफाफा अनुपम को सौंप दिया।
अनुपम ने लिफाफा खोला। भीतर से 3 लाख रुपये के वेयरर चैक के साथ रेवेन्यू स्टैम्प लगी रसीद भी थी। उसने रसीद पर हस्ताक्षर कर वह कर्मचारी को तुरत-फुरत लौटा दी और जाते-जाते उसको 50 रुपये का एक नोट भी थमा दिया। कर्मचारी खुश हो ‘नमस्ते’ कहकर चला गया। अनुपम को लगा उसने आज सफलता का एक बड़ा किला फतह कर लिया है। बिना देर किये मोबाइल पर सूचित कर उसने डॉक्टर को वार्ड में बुलवा लिया।
‘‘बहुत-बहुत बधाई, मिस्टर अनुपम।’’ डॉक्टर भी अपनी प्रसन्नता को छिपा नहीं पा रहा था।
डॉक्टर से प्रसन्न मन हाथ मिलाते हुए अनुपम बोला-‘‘यह तो मिस्टर अरुण कुमार की मेहनत और आपकी मेहरबानी का नतीजा है डॉक्टर साहब।...आपके सारे बिल्स का भुगतान कल कर दिया जायेगा।...मैं समझता हूँ आपका भुगतान एक-सवा लाख का होगा।’’
‘‘हाँ, इतना ही होगा। बोलिए, अब क्या करना है?’’
‘‘मैं परिवार के लोगों को अभी यहाँ बुलवा लेता हूँ। आप आधे घंटे बाद बाबूजी के पलंग से लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम हटवा दीजिये। उनके पार्थिव शरीर को अब इस सिस्टम पर रखने का कोई औचित्य शेष नहीं रह गया है। अच्छा हुआ सहायता का यह चैक हमारे अनुमान के मुताबिक सात दिन में मिल गया।’’
‘‘ठीक है, मैं एक सीरियस पेशेट को देखकर अभी 20-25 मिनट में लौटता हूँ। तब तक आप अपने फैमिली मेम्बर्स को यहाँ बुलवा लीजिए।’’
लेखक हरिचरण ‘प्रचंड’ का सारा परिवार प्रायवेट वार्ड नम्बर 10 में इकट्ठा था। ऐसा लग नहीं रहा था, जैसे एक जिंदगी के साथ मौत के मिलन की अन्तिम बेला आ गई है। डॉक्टर ने प्रचंड जी के पलंग से लाइफ सपोर्टिंग सिस्टम खुद हटा दिया। तत्क्षण प्रचंड जी के शरीर में कोई हलचल नहीं हुई। पिछले 15 दिनों की तरह ही वह पार्थिव शरीर तब भी निस्तेज पलंग पर पड़ा था।
अनुपम ने गौर से अपने पिता के चेहरे को देखा। वह एकदम चौंक पड़ा। स्वाभिमानी लेखक हरिचरण ‘प्रचंड’ के चेहरे पर उस क्षण गुस्से से भरे धिक्कार के ऐसे प्रखर भाव प्रगट हुए जैसे वे वहाँ उपस्थित सब लोगों से कह रहे हों-‘तुम लालचियों ने मेरी खुद्दारी और प्रसिद्धि की कीमत आखिर वसूल ही ली....लानत है तुम सब पर....दूर हटो मेरे पार्थिव शरीर के पास से....मुझे अकेला छोड़ दो....बसऽऽऽ ।’
प्रचंडजी का चेहरा फिर वैसा ही निस्तेज लगा, जैसा वह पिछले 15 दिनों से था।

‘व्यंकटेश कीर्ति’, 11, सौम्या एन्क्लेव एक्सटेंशन,
सियाराम कालोनी, चूनाभट्टी,
राजा भोज मार्ग, भोपाल-462016

बुन्देली जीवन-शैली में व्याप्त लोक विश्वास --- डॉ0 उपेन्द्र तिवारी



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख --- बुन्देली जीवन-शैली में व्याप्त लोक विश्वास
डॉ0 उपेन्द्र तिवारी



हमारे समाज में विपरीत परिस्थितियों में अथवा किसी विपदा के समय जनसामान्य द्वारा कई कार्य इस मान्यता के साथ किये जाते हैं कि इस कार्य से वो विपदा या परेशानी दूर हो जाती है। ऐसे कार्य चाहे वो पूजा पाठ से सम्बन्धित हों, तंत्र-मंत्र से सम्बन्धित हों या टोने-टोटके आदि से सम्बन्धित हों, यदि उस पर लोक की सहमति हो जाती है, उसे लोक से मान्यता मिल जाती है तो वे लोक विश्वास के अन्तर्गत आते हैं। बुन्देलखण्ड में लोक विश्वासों को मुख्यतः पाँच वर्गों में बाँटा जा सकता है।

(क) व्यक्तिगत विश्वास

(ख) सामाजिक विश्वास
(ग) धार्मिक विश्वास
(घ) कृषि आधारित
(ड़) टोने-टोटके

धर्म का जन्म भय की कोख से हुआ है। दैवी आपदा या रोग बीमारी से ग्रस्त होने पर कोई छोटा सा कार्य (भले ही उसका उस बीमारी से कोई सम्बन्ध न हो) होने पर वह आपदा समाप्त हो जाती है या रोगी को आराम मिल जाता है तो उसे उसी पर विश्वास होने लगता है। दूसरे व्यक्ति के पीड़ित होने पर वह उसी कार्य को करने की सलाह देता है। धीरे-धीरे यह समाज में प्रचलित हो जाता है उस पर लोक की सहमति होने पर वह व्यक्तिगत विश्वास, लोक विश्वास बन जाते हैं। कुछ लोक विश्वास बड़े ही वैज्ञानिक हैं, वह या तो धर्म से जुड़े हैं या केवल विश्वास हैं किन्तु लोक से मान्यता प्राप्त कर लोक विश्वास बन गये हैं। उदाहरणार्थ-प्रसूत-गृह के दरवाजे पर बराबर आग जलायी जाती है। जिसकी वैज्ञानिकता यह है कि गाँवो में चिकित्सा की सुविधा न होना तथा गाँव में इतनी सफाई भी नहीं होती, अतः कीटाणुओं से बचाने के लिए एक पात्र में आग जलायी जाती थी जिससे कीटाणु प्रसूति गृह में प्रवेश न करें तथा आग और धुँये से नष्ट हो जायें। यह लोक विश्वास बना कि प्रसूति-गृह ‘सौर’ के दरवाजे आग जलाने से ‘जमूले’ नहीं लगते हैं। ‘जमूले’ एक प्रकार का टिटनिस नुमा रोग है जो नवजात शिशु को हो जाता है। शिशु मृतप्राय हो जाता है या शिशु की मृत्यु हो जाती है जिसे लोक में कहा जाता है कि जमूले शिशु का खून पी गये। जब प्रसूति-गृह के दरवाजे पर आग जलने से जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ रहे तो प्रसूति-गृह के दरवाजे पर आग जलाने का प्रचलन समाज में प्रचलित हो गया तथा सम्पूर्ण लोक का हृदय जीतने के बाद प्रसविनी स्त्री एवं नवजात शिशु की रक्षार्थ प्रसूति-गृह के दरवाजे पर आग जलाना लोक विश्वास बन गया है।
लोक विश्वास में तंत्र-मंत्र, जादू, टोना-टोटका शामिल हैं। इस लोक जीवन के हर पहलू में कोई न कोई विश्वास देखने को मिल जाता है। जैसे नजर के लिए लोक में ऐसा विश्वास है कि नजर लगने पर बच्चे, युवा बीमार पड़ जाते हैं। नजर उतारने के लिए सबसे ज्यादा प्रसिद्ध तरीका है राई-नौन उसारना अर्थात् सरसों, गेंहू की भूसी, सूखी लाल मिर्च और नमक पीड़ित व्यक्ति के चारों तरफ फेरा लगाकर (उसार कर) उल्टा मुँह करके दोनों पैरों के बीच से जलती हुयी आग में फेंक दिया जाता है। दूसरी विधि में पत्थर का टुकड़ा उसार कर आग में डाल दिया जाता है। नजर अत्यधिक होने पर पत्थर लाल पड़ जाता है। उस पत्थर को निकाल कर पानी में डाल दिया जाता है। पत्थर टूट कर टुकड़े-टुकड़े हो जाये तो नजर जाती है। इसे पत्थरमारी नजर कहते हैं। तीसरे प्रकार के तरीके में चारपाई की मूँज में रुई लपेट कर बत्तीनुमा बना ली जाती है और इस पर सरसों का तेल लगा दिया जाता है। उसको उसार कर दरवाजे के कुंडे पर बाँध दिया जाता है तथा उसमें आग लगा दी जाती है। नीचे काँसे की थाली में पानी रख दिया जाता है। जले हुए सरसों के तेल की बूँदें नीचे थाली में पानी में गिरती हैं तो एक विशेष प्रकार की साँय-साँय की आवाज करती है। उस पानी को पीड़ित के माथे पर लगा दिया जाता है जिससे नजर उतर जाती है।
नवजात शिशु जिसका प्रसूति-गृह से निष्क्रमण संस्कार न हुआ हो उसके बीमार पड़ने पर दीपावली के एक दिन पहले अर्थात् चतुर्दशी-जिसको नरक चउदस या जमघंट बोलते हैं-के दिन जो दियाली जलायी जाती है उन दियाली को पानी में घिस कर पिलाने से वह रोग मुक्त हो जाता है। दूसरे प्रकार में सात छप्पर के फूस निकाल कर उसको जलाया जाता है। उसकी राख माथे पर लगाने से टोना दूर हो जाता है। दूध देने वाले जानवर नजर या टोने की वजह से दूध देना बन्द कर देते हैं तो उन्हें बया चिड़िया के घोंसले को जलाकर सेंक दिया जाता है। जिससे वह नजर या टोना से मुक्त होकर पुनः दूध देने लगते हैं।
बच्चे मुँह से लार गिराते हैं। ऐसी मान्यता है कि बच्चे की बुआ को लड्डू में लार खिला दी जाये तो बच्चे लार गिराना बन्द कर देते हैं। बच्चे को सूखा रोग होने पर उसे अलस्सुबह चिता पर कपड़े पहने हुए स्नान करा दिया जाता है। बच्चे के कपड़े वहीं उतार कर फेंक दिये जाते हैं तथा लौटते समय पीछे मुड़ कर नहीं देखते हैं। माना जाता है कि इस तरह सूखा रोग ठीक हो जाता है। दूसरे प्रकार में बच्चे को कपड़ों सहित ‘आक’ (अकौआ) के पेड़ पर स्नान करा दिया जाता है। बच्चे के कपड़े निकाल कर पेड़ के ऊपर डाल दिये जाते हैं। जिससे वह पेड़ सूखने लगता है और बच्चा ठीक हो जाता है।
यदि बुखार काफी समय तक ठीक न हो तो शनिवार या बुधवार का सुबह चूल्हे की राख दोनों हाथों में भर कर यह कहते हुए घर से चलें कि चलो गंगा स्नान कर आयें। तिराहे या चौराहा मिलने पर उस राख को वहीं छोड़ दिया जाता है और कहा जाता है कि तुम्हीं चले जाओ गंगा स्नान के लिए। इससे पुराना बुखार अथवा एक दिन छोड़ एक दिन आने वाला बुखार ठीक हो जाता है।
चेचक निकल आने पर शीतला माता की मनौती मानी जाती है। नीम के पेड़ की छोटी सी डाल (जिसे झौंका कहा जाता है) रोगी के पास रख दी जाती है। घर में छोंक, बघार, नहीं लगाया जाता है। मनौती मानने वाला व्यक्ति हजामत, बाल इत्यादि नहीं बनवाता; जूते, चप्पल नहीं पहनता है। प्रतिदिन मन्दिर जाकर शीतला माँ का जलाभिषेक करता है तथा चरणों से बह कर जो जल निकालता है उसे रोगी को पिलाया जाता है। रोगी के ठीक होने पर माँ की विधिवत पूजा की जाती है।
आँखों में इन्फैक्शन होने को ‘आँख आना’ कहा जाता है। इस समय नीम का झौंका सदैव अपने पास रखा जाता है क्योंकि लोक विश्वास है कि नीम में ‘देवी’ का वास होता है। इसीलिए नीम एवं पीपल के हरे पेड़ नहीं काटे जाते हैं।
विवाह के समय भी किये जाने वाले सैकड़ों विश्वास ऐसे ही हैं। मान्यता है कि बारात चली जाने पर सभी देवता, अच्छी आत्मायें बारात के साथ चली जाती हैं किन्तु अनिष्टकारी आत्माओं से निवेदन कर स्त्रियाँ उन्हें रोक लेती हैं। उनके लिए वे रीति-रिवाज रात में होने वाले ‘नकटौरा’ के अन्तर्गत करती हैं। इसमें द्वार-चार, बाजे बजना, पंगत होना, कन्यादान, भाँवर इत्यादि बारात जैसे कार्यक्रम सम्पन्न किये जाते है। इस कार्यक्रम में केवल स्त्रियाँ ही भाग लेती हैं जिनके बीच फूहड, अश्लील शब्द-बातें इत्यादि होती हैं। समझा जाता है कि इससे अनिष्टकारी आत्मायें जादू, टोना, टोटका यहीं रह जाता है तथा विवाह निर्विध्न सम्पन्न हो जाता है। विवाह समय में भाँवर के बीच बधू का भाई धान बोता है। लोक में ऐसा विश्वास है कि इससे बहन धनी होती है।
लोक आत्मा के पुनर्जन्म को मान्यता देता है। अतः जो व्यक्ति अल्पायु में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं या जिनको मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, वह भूत, प्रेत, पिशाच, चुडैल, मसान इत्यादि की योनि को प्राप्त हो जाते हैं। इनके सम्पर्क में आने पर वह उसे परेशान करते हैं। तांत्रिक, गुनिया, ओझा, भगत आदि की विशिष्ट क्रिया के द्वारा उनसे निजात दिलाने का भी लोक में विश्वास किया जाता है।
जीवन के अन्य कार्यों में लोक स्थापित है यथा बुध का बरोसी, मंगलवार को चारपाई तथा छत या छप्पर नहीं डाला जाता है। इस सम्बन्ध में कहावत है कि ‘बुघ बरोसी मंगल खाट, मरै नहीं तो आवै ताप।’
अथवा ‘मंगल मगरी (छत) बुधै खाट, मरै नहिं तो आवे ताप।’
सावन में चारपाई में मँूज नहीं भरवाई जाती है। कहा जाता है कि सावन के महीने की भरी चारपाई पर साँप चढ़ जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसके अतिरिक्त साँप चारपाई पर नहीं चढ़ता क्योंकि वह चारपाई की आन मानता है।
त्यौहार वाले दिन किसी की मृत्यु होने पर उस परिवार में वह त्यौहार खोटा हो जाता है, मनाया नहीं जाता है। उसी दिन पुत्र पैदा हो या गाय बछड़े को जन्म दे तो पुनः उस त्यौहार को मनाने लगते हैं।
लोक में विश्वास है कि शगुन-अपशगुन अपना फल अवश्य देते हैं। यात्रा में निकलने पर नेवला, वेदपाठी ब्राम्हण, दही, मछली, नीलकण्ठ, बालिकायें, मंगल घट रखे स्त्री, सधवा स्त्री, मुर्दा या बछड़े को दूध पिलाती हुई गाय, मेहतरानी, वेश्या देखना शगुन है। कहा भी गया है कि ‘सन्मुख गऊ चुखाबे बच्छा, ई है सगुना सबसे अच्छा।’ इसके विपरीत खाली बर्तन, निपूता इंसान, बाँझ स्त्री, विधवा स्त्री, गधा, काना व्यक्ति या जिसकी एक आँख में कुछ खराबी हो, जिसके वक्षस्थल पर बाल न जमे हों, बिल्लौरी आँखों वाला व्यक्ति या छींक होना अपशगुन माना जाता है। यथा ‘सवा कोस तक मिलै जो काना, लौट आये वह परम सयाना।’
इसके अतिरिक्त अंगों के फड़कने से होने वाले शगुन-अशगुन भी लोक विश्वास हैं। पुरुषों की दाहिनी आँख, दाहिनी भुजा फड़कना शुभ होती है।
यथा- ‘भरत नयन भुज दक्षिण फरकहि बारंहि बार।
जान सगुन मन हरष अति लागे करन विचार।।’ इसी तरह स्त्रियों की बाँयी भुजा, बाँयी आँख फड़कना शुभ होता है।
यथा- ‘मिलन खौं तो बहियाँ फरकै, बहियाँ फरकै।
दरस खों फरक रये दोई नैन।।’
पुरुषों की बाँयी आँख तथा बाँह, स्त्रियों की दाहिनी आँख तथा भुजा फड़कना अपशगुन समझा जाता है।
कृषि सम्बन्धी भी लोक के अनुभव और विश्वास हैं। जैसे ओले पड़ने पर गर्म तवा आँगन में डाल देना ऋतु की आँधी को झाड़ू दिखाना, कुऋतु की वर्षा होने पर बादल को उल्टा मूसल दिखाने पर इस तरह की अनिष्टकारी प्राकृतिक विपदा रुक जाती है। यह भी लोक का कृषिपरक विश्वास है कि अकउवा (मदार) ज्यादा होने पर, कुदवा (धान्य) नीम ज्यादा फलने पर जौ, बबूल के ज्यादा फलने पर धान अच्छा पैदा होता है। यदि कहीं आम में बौर अच्छा आये तो पूरे संवत अर्थात पूरे वर्ष सभी फसलें अच्छी होती हैं।
धार्मिक लोक विश्वासों में सभी धार्मिक कार्य सम्मिलित है। गाय और गंगा मोक्षदायिनी है। मान्यता है कि दान सभी विधि कल्याण करता है। यह लोक का परम विश्वास है कि ईश्वर द्वारा बताये गये पुण्य कार्य करना, ईश्वरवादी या ईश्वर के अधीन रहना, जो ईश्वर की शरण पकड़े रहेगा वह दो पाटों के बीच में नहीं पिस पायेगा अर्थात मोक्ष को प्राप्त कर लेगा।
ये सभी लोक विश्वास हमें समाज में रहकर एक दिशा प्रदान करते हैं और जीने की प्रेरणा देते हैं। हम संघर्ष करते हुए सुख-दुख में साथ रहकर और एक दूसरे को शारीरिक व मानसिक सहारा देकर समाज में परिवार की भावना को सुदृढ़ बनाते चलते हैं।

संगीत,
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई

बुन्देली लोकगीतों में लयात्मक नाद-सौन्दर्य --- डॉ0 वीणा श्रीवास्तव



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख --- बुन्देली लोकगीतों में लयात्मक नाद-सौन्दर्य
डॉ0 वीणा श्रीवास्तव



नाद ब्रह्म है, ब्रह्म ही जीव है। जीवन में सभी कुछ लय के अन्तर्गत निहित है। बिना लय या गति से सब कुछ निर्जीव है।
विराट प्रकृति लय, ताल, छंद पर नर्तन करती गतिमान है। मनुष्य जीवन संगीतमय हैं। संगीत की इस चतुर्दिक परिव्याप्ति में वाद्य का स्थान सर्वोपरि है, क्योंकि वाद्य की अनुपस्थिति में गायन तथा नृत्य क्रियायें प्रायः पंगु हो जाती हैं। सच तो यह है कि संगीत के इन अवयवों में वाद्य का प्रादुर्भाव हुआ होगा।आदि मानव ने जब बादलों की गम्भीर गड़गड़ाहट, वर्षा की बूंदों की झमझमाहट, तेज हवाओं की सनसनाहट तथा समुद्री लहरों की छपछपाहट आदि सुनी होगी तब ध्वन्यानुकरण पर उसने अपनी तालियों को, लकड़ी अथवा पत्थर के टुकड़ों को बजाया होगा, उस ध्वनि में तन्मय होकर गुनगुनाया होगा तथा प्रसन्न होकर नाचने लगा होगा।
लोक संगीत में लोकवाद्यों की प्राचीनता तथा लोकप्रियता स्वयं सिद्ध है। डमरू देवाधिदेव भगवान शिव की पहचान है। विष्णु शंखधारी हैं। प्रजापति ब्रह्मा ढोल के निर्माता हैं। मुरली कृष्ण की पर्याय है। वाग्देवी वीणापाणि हैं। नारद वीणा, करताल वादक हैं। महाभारत के महासमर का प्रतिदिन आरम्भ तथा अन्त शंख-ध्वनि से किया जाता था फलतः वाद्यों की चिरन्तन धारा अनादिकाल से चली आ रही है और इसका आविष्कार तथा विकास लोक जीवन में ही हुआ है।
लोक जन जीवन सीधा सादा सरल, सहज भाव से एवं निश्चल रूप से गतिमान या प्रवाहित होता रहता है। लोकमन के जीवन से जुड़ी हुई प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति उसके कार्य-विचार यहाँ तक कि प्रकृति भी उसके मन-मस्तिष्क को उद्वेलित करती रहती है और यह सब किसी न किसी रूप से उसे प्रभावित भी करती है, इसीलिए जब मानव निश्चिन्त होकर कुछ गाता-गुनगुनाता है तो उसके गीतों में स्वतः ही यह सब समाहित हो जाता है। वह कभी मिलन के गीत गाता है, तो कभी विरह के, कभी शृंगार के तो कभी आध्यात्म के, कभी सावन-वर्षा तो कभी बसंत के, कभी उत्सवों के तो कभी त्योहारों के, कभी-झरनों व नदियों की बात तो कभी विन्ध्य पहाड़ियों का शौर्य न जाने कितने ही प्रसंग उसके गीतों की बानगी हुआ करते हैं।
लयात्मकता इन सभी की विशेषता है और इस लय से नाद-सौन्दर्य को द्विगुणित करते हैं लोकवाद्य।
बुन्देलखण्ड अपने लोकगीतों, लोकवाद्यों तथा लोकनृत्यों के लिए प्रसिद्ध रहा है। यहाँ लोकवाद्यों का प्रयोग लोकगीतों, नृत्यों में संगत देने तथा स्वतंत्र रूप से वादन के लिए किया जाता है। लोकनायक स्वरों को सम बनाने, गीतों को तन्मयता से गाने, गायन के बीच साँस भरने (भाव) तथा श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करने के लिए लोकवाद्यों का उपयोग करते हैं।
लोकसंगीत सहज एवं प्रकृतितः होता है। इसमें स्वर और ताल प्रधान न होकर लय तथा धुन प्रधान होती है। यह शास्त्रीयता के बन्धन को स्वीकार नहीं करता। यही स्थिति लोकवाद्यों की भी है। लोकजन बाह्याडम्बरहीन बजाने की दृष्टि से उपेक्षित तथा सहज उपलब्ध वस्तुओं से ही बजाने का कार्य ले लेता है। यहाँ तुम्बी से बीन, गोल तुम्बे से इकतारा, बांस, नरकुल से बांसुरी, आम की गुठली से पपीहा, ताड़ या बरगद के पत्तों से पिपहरी आदि बना लिये जाते हैं। यहाँ तक कि थाली, लोटा, कटोरा, सूप, चालन, चिमटा, घड़ा, मटका, ताली एवं चुटकी आदि सभी वाद्य के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं। जहाँ चक्की की घरघराहट तथा चूड़ियों की खनखनाहट के समवेत स्वर में गाती बुन्देली बालाओं की धुनें अन्तर्मन को स्पर्श कर लेती हैं, वहीं ढेकी, ऊखल-मूसल की धमक तथा चूड़ियों की खनक के बीच गाए जाने वाले गीत किसी अन्य वाद्य यंत्र की अपेक्षा नहीं रखते हैं। जलाशयों से पानी लाते जाते समय स्त्रियों के पैर की पैंजनी तथा बिछुआ की रुनझुन की ध्वनि ही उनके गीतों में वाद्ययंत्र होते हैं।
पुत्र जन्मोत्सव की खुशी का इज़हार वे थाली बजाकर कर लेती हैं। ग्र्रामीणजन बैलों के गले में बँधी घंटी, घुँघरू तथा उनके खुरों की टपटपाहट की लय, ढेकली चलाने वाले पानी की सरसराहट तथा ढेकली की चरचराहट, तेल या रस पेरने वाले कोल्हू की मचमचाहट, नाविक के पतवार की छपछपाहट तथा धोबी के कपड़े धोने से उत्पन्न ध्वनि की लय पर मस्ती से गीत गाते देखे सुने जाते हैं। इसके अतिरिक्त बुन्देली लोकवाद्यों में मुख्य रूप से ढोलक, ढप, ढाक, ढपली, मृदंग, अलगोजा, रमतूला, तुरही, शहनाई, बाँसुरी, मंजीरा, झाँझ, करताल, लोटा, चिमटा, एकतारा, केंकडिया, तम्बूरा एवं सारंगी आदि वाद्यों का प्रयोग किया जाता है। इनमें से कुछ तो स्वतंत्र वाद्य के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं और अधिकतर लोकगीतों, लोकगाथाओं एवं लोकनृत्यों के साथ संगत के रूप में प्रयोग किये जाते हैं। इन सभी के साथ प्रयुक्त संगत वाद्यों का नाद-सौन्दर्य लोकगीतों आदि में चार चाँद लगा देता है।
बुन्देलखण्ड के लोकजीवन में गीतों के अनुरूप काल, स्थान एवं जाति के अनुसार भी वाद्यों का प्रयोग किया जाता है। कुछ तो वाद्य ऐसे हैं जिनका प्रयोग स्थान विशेष तथा समय विशेष पर ही किया जाता है। उदाहरण के तौर पर ‘गोटें’ (लोकगीत का एक प्रकार) प्रत्येक समय, काल तथा स्थान पर नहीं गाई जातीं। यह भादौं महीने की चौथ को देव-चबूतरे पर ‘ढाक-वाद्य’ के साथ पूजा के समय ही गाई जाती हैं।
कहना न होगा कि बुन्देली लोक जीवन में हमें वाद्यों के मुख्य दो स्वरूप मिलते हैं-प्रथम मनुष्य की क्रियायें वाद्य का स्वरूप धारण कर लेती हैं जैसे ढेकली चलाने से उत्पन्न ध्वनि या चकिया की घरर-घरर की ध्वनि। इन क्रियागत ध्वनियों को हम क्रिया-वाद्य का नाम दे सकते हैं। दूसरे प्रकार के वाद्यों को हम वाद्यों के स्वरूप से ही सामने लाते हैं, उदाहरण के लिए ढोलक, ढाक, मंजीरा आदि।
प्रत्येक क्रिया-वाद्य का अपना एक स्वर होता है जिसको आधार स्वर मानकर बुन्देली जन अनायास गीत गाने लगते हैं। इन सरल एवं सहज ग्रामीणजन को तो स्वर और लय का ज्ञान ही नहीं होता परन्तु प्रकृति एवं पीढ़ियाँ इनके मानस, हृदय एवं संस्कारों में कब प्रवेश कर जाती हैं पता ही नहीं चलता। चक्की चलाते समय, बैलों की चाल पर उनके गले में बँधी घंटी की लय पर, धोबी के कपड़े धोने की आवाज की लय आदि पर बुन्देली जन लोकगीत गाते हैं। जब इसे ग्रामीणजन नियमित लय में बाँध लेते हैं तब इन लोकगीतों का लयात्मक नाद-सौन्दर्य देखते ही बनता है।
‘चक्की’ का लोकवाद्य के रूप में प्रयोग कितना सार्थक है, इसका उदाहरण एक जनश्रुति के रूप में मुझे मिला है-
बुन्देलखण्ड के पन्ना राज्य के राजा अमान सिंह एक बार भेष बदलकर अपने राज्य में प्रजा के हाल-चाल लेने के उद्देश्य से घूमने निकले। एक महिला अपने घर में चक्की चला रही थी साथ ही गा भी रही थी-‘‘ढुंढवा दियो राजा अमान हमाई खेलत बेंदी गिर गई।’’
राजा ने सुना, उन्हें वह गीत बहुत पसन्द आया। राजा ने उस मकान के बाहर एक चिन्ह बनाया और वापस चले आए। सबेरे उन्होंने अपने सिपाही भेजे और कहा कि जिस मकान पर ऐसा चिन्ह बना हो, उस घर की महिला को ले आओ। सिपाही तुरन्त गए और यह मानकर कि इस महिला ने जरूर कोई अपराध किया है, उसे जबरन पकड़ कर ले आए। महिला आते ही गिड़गिड़ाने लगी, बोली ‘‘मराज, हमसैं का गलती भई जो हमैं पकरवा लओ।’’ राजा बोले, ‘‘बाई हमनैं तुमै पकरवाओ? अरे हमनै तो तुमै बुलाओ तो। खैर! इन सिपाइयन सें तो हम बाद खां निपटैं। और बाई गलती तो तुमसैं भई हय। पैलें जा बताइए तैं रातैं का गा रई ती?’’ ‘‘मराज, हम तो फाग गा रए ते।’’ ‘‘अरे फागैं तो हमने बौत सुनी, फागैं तो ऐसी नई गाई जात। जे कितै की है?’’ ‘‘मराज, जा डिड़खरयाऊ फाग आय। एक दायं आपकै इतैं सैं चैतुआ चैत काटबे हमाए उतै ‘उबौरा’ गाँव गए ते। हमाओ आदमी हतो नईं सो हमनै जाय राख लओ और बई के संगैं हम इतै आ गए। जा फाग हमाए उतई ‘बीजौरबाघाट’ के ओरईं की हय, उतई जाको जनम भओ।’’ महाराज बोले ‘‘तो जा बता, तैं हमाओ नाँव लै के काय गा रई ती।’’ ‘‘आंहां मराज! हम आप खों नाँव लै के काय खां गा रए ते।’’ ‘‘काय हमईं तो राजा अमान सिंह हैं।’’ ‘‘मराज, हमैं का पता, हम तो अपएं आदमी खों नाँव लय रए ते। हमाए आदमी को नाँव ‘अमना’ है हमने बाय थोड़ो नैक सुदार लओ और अपएं आदमी से सैंया, बलमा, राजा कत हईं हैं, सो बोई हम गा रए ते।’’
राजा मन ही मन उसके गाने से प्रसन्न तो थे ही और यह बात वह महिला भी समझ रही थी। राजा बोले, ‘‘तोय सजा तो मिलहै।’’ वह बोली, ‘‘ठीकई है मराज, तो जौन सजा दैनी होय हमें मंजूर हय।’’ राजा बोले, ‘‘जौन फाग तैं रातें गा रई ती, बई फिर सैं सुनाउनै परहै। महिला बोली, ‘‘ठीक है मराज तो हमाईयु एक सर्त है-चकिया मंगाउनी परहै, तबही हम गा सगत।’’ राजा बोले, ‘‘काय, का बिना चकिया के तैं नईं गा सकत?’’ ‘‘आंहां मराज, चकिया तो मँगाउनैइ परहै।’’ राजा ने तुरन्त चक्की व अनाज मँगवाया। एक पिछोरा की आड़ की गई। फिर उसने चक्की के स्वर और लय पर वही फाग राजा को सुनाई। राजा बहुत प्रसन्न हुए बोले, ‘‘बाई हम तुमाए गाबैं से बहुतईं खुस हैं। तुम हमाई प्रजा हो, बताओ तुमाई बैंदी काए की हती, हम बाय ढुँढबाबैं की कोसिस करहैं।’’ महिला सहज हो बोली, ‘‘मराज हमाईं बैंदी तो लाख की हती।’’ राजा बोले, ‘‘ठीक है बाई तुम पन्द्रह दिन बाद आइयो हम तुमाईं बैंदी ढुँढवा दैंहैं।’’
पन्द्रह दिनों बाद राजा ने महिला को स्वयं बुलवाया और कहा, ‘‘बाई! हमनै तुमाई बैंदी ढुँढबाबै की बहुतई कोसिस करी। तुमाईं बा लाख की बैंदी तो मिली नहीं, हमने ‘सवा लाख’ की बनवा दई।’’ और राजा ने सवा तोले सोने की बैंदी जिसमें बीच में ‘हीरा’ जड़ा था तथा हीरे के चारों ओर ‘पन्ना’ की रवार लगी थी, उस महिला को भेंट की।

रीडर एवं विभागाध्यक्ष, संगीत,
दयानन्द वैदिक स्नातकोत्तर महाविद्यालय, उरई

बुन्देली बाल लोक साहित्य में मामुलिया --- डॉ0 हरीमोहन पुरवार



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख --- बुन्देली बाल लोक साहित्य में मामुलिया
डॉ0 हरीमोहन पुरवार



ज्येष्ठ की तपती दोपहर और उसके बाद असाढ की उमसभरी सड़ी गर्मी, परिवार, समाज के वातावरण को कुछ ऐसा गरमा देती है कि सब कुछ उजड़ा सा हो जाता है और फिर श्रावण में वर्षा की फुहार से सभी का मन-मयूर नृत्य करने लगता है। वर्षा आई और बुन्देलखण्ड की पथरीली भूमि में हँसी-खुशी की एक ऐसी सरिता प्रवाहित होती है जिसकी निर्मल शान्त धारा में परिवार एवं समाज रसमय मधुर एवं प्रेम से सराबोर हो, निर्मल, स्वच्छ वातावरण का सृजन करती है। इसी निर्मल स्वच्छ वातावरण के सृजन में अपनी विशिष्ट भूमिका निभाता बुन्देली ललनाओं का सुप्रिय खेल ‘मामुलिया’ प्रारम्भ हो जाता है।
‘मामुलिया’ के इस खेल में बालिकायें बेर अथवा बबूल की एक कँटीली टहनी लेती हैं और उसे किसी लीप-पोत कर स्वच्छ पवित्र किये हुए स्थान पर रखती है। इस कँटीली टहनी से ही ‘मामुलिया’ की स्थापना होती है और उस समय सभी बालिकायें समवेत् स्वर में गाती हैं-
‘‘छिटक मोरी मामुलिया
मामुलिया के दो दो फूल, छिटक मोरी मामुलिया।
कहाँ लगा दऊं मामुलिया, छिटक मोरी मामुलिया।
अंगना लगा दऊं मामुलिया, छिटक मोरी मामुलिया।’’
कँटीली टहनी की स्थापना के बाद उसका अलंकरण किया जाता है। उस टहनी पर जितने भी काँटे होते हैं उन सब पर तरह-तरह के फूल लगाये जाते हैं और देखते ही देखते उस कँटीली टहनी का कँटीलापन समाप्त हो जाता है और वहाँ मन मोहने वाले विभिन्न प्रकार के पुष्पों की अलौकिक छटा बिखर जाती है। मामुलिया के अंलकरण के समय सभी बालिकायें फूल सजाते गाती हैं-
‘‘ल्याइयो ल्याइयो रतन जड़े फूल, सजइयो मोरी मामुलिया
ल्याइयो गेंदा हजारी के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो चम्पा चमेली के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो घिया तुरैया के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।
ल्याइयो सदा सुहागन के फूल, सजइयो मोरी मामुलिया।’’
जब मामुलिया सज जाती है फिर रोरी अक्षत चन्दन से उसका पूजन किया जाता है। सभी बालिकायें बारी-बारी से जल छिड़क कर, प्रसाद चढ़ाकर पूजन करती हैं और मिलकर गाती हैं-
‘‘चीकनी मामुलिया के चीकने पतौआ
बरा तरें लागली अथैया
कै बारी भौजी, बरा तरें लागी अथैया
मीठी कचरिया के मीठे जो बीजा
मीठे ससुर जू के बोल
कै बारी भौजी, मीठे ससुर जी के बोल
करई कचरिया के करए जो बीजा
करये सासू के बोल
कै बारी भौजी, करये सासू के बोल।’’
पूजन के पश्चात फिर मामुलिया की परिक्रमा करते हुए बालिकायें गाती हैं-
‘‘चली चकौटी चली मकौटी, चंदन चौका करियो लाल
ऊ चौका में बैठे बीरन भइया, पागड़िया लटकावैं लाल
उन पागड़ियन के फूल मुरत हैं, बीनत हैं भौजइयां लाल
झिलमिल झिलमिल दिया बरत है, परखत है भौजइयां लाल
एक रुपइया खोंटो कड़ गओ, मार भगाई भौजइयां लाल।’’
और परिक्रमा करते हुए मामुलिया को हाथ में उठाकर फिर नृत्य प्रारम्भ हो जाता है और लोकवाणी का प्रस्फुटन बालिकाओं की बोली में मुखरित हो उठता है-
‘‘मामुल दाई मामुल दाई
दूध भात ने खायें
बतुरी के धोखे
बिनौरा चबायें।’’
मामुलिया नृत्य के समय कई गीत गाये जाते हैं। एक बानगी इस प्रकार भी है -
‘‘नानों पीसों उड़ उड़ जाय
मोटो पीसों कोऊ न खाय
नई तिली कै तेल, तिलनियां लो लो लो
नये हंडा कौ भात, बननियां लो लो लो।’’
मामुलिया के खेल की समाप्ति के बाद उसे तालाब, पोखर अथवा नदी में विसर्जित करने के लिए सब लड़कियाँ जाती हैं और जल में प्रवाहित करते समय गाती हैं-
‘‘जरै ई छाबी तला कौ पानी रे
मोरी मामुलिया उजर गई।’’
इन पंक्तियों में भारतीय वेदान्त का सार तत्त्व निहित है। जीवन जल के समान है जिसमें नहाकर मामुलिया रूपी आत्मा और अधिक निखर उठती है। मामुलिया विसर्जन के पश्चात सभी लड़कियाँ अपने-अपने घरों को बापस लौटते हुए गाती जाती हैं-
‘‘चंदा के आसपास, गौओं की रास
चंदा के आसपास, मुतियन की रास
बिटिया खेले सब सब रात
चंदा राम राम लेव
सूरज राम राम लेव
हम घरैं चलें।’’
और ये लड़कियाँ आपस में विदाई के समय भी ठिठोली करते हुए गाती हैं-
‘‘चूँ चूँ चिरइयां, बन की बिलैया
ताते ताते माड़े, सीरे सीरे घैला
सो जाओ री चिरैंया
उठो उठो री चिरैंया
तुमाये दद्दा लड़ुआ ल्याये।’’
मामुलिया देखने में बड़ा सहज और साधारण सा खेल दिखता है परन्तु इस खेल का मनोविज्ञान अति सुन्दर है। इस खेल के माध्यम से लड़कियों को जो शिक्षा दी जाती है वह लड़कियों के जीवन को सुखी बनाने एवं समाज में आनन्द की सरिता बहाने का कार्य करती है।
परिवार में, समाज में नित, निरन्तर नयी नयी कठिनाईयाँ, मुश्किलें, परेशानियाँ, उलझने आदि आती रहती हैं। इन सबको काँटों की संज्ञा यदि दे दी जाये तो हम पाते हैं कि मामुलिया में प्रत्येक काँटे को पुष्प द्वारा सजाया जाता है अर्थात् स्त्री अपने व्यवहार, कर्म, आदि से परिवार व समाज की सभी कँटीली समस्याओं को पुष्परूपी समाधानों द्वारा सजाकर, सुखमय, आनन्दमय वातावरण की सृष्टि करती है।
इसी मामुलिया का एक अन्य विश्लेषण भी दर्शनीय है। जब कन्या का विवाह होता है तब उसे यह शिक्षा दी जाती है कि -
‘‘सम्राज्ञी श्चशुरे भव सम्राज्ञी श्रृश्वां भव।
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषुं।’’
वधू! तुम घर में सास, ससुर, ननद और देवर सबके हृदय की महारनी बनो। सबको अपने प्रेम, सेवा और सद्व्यवहार से जीत लो।
मामुलिया सजाना, मामुलिया सजाने का भाव मन में होना और सजावट का कृत्य करना, यही प्रेम, सेवा और सद्व्यवहार की शिक्षा प्रदान करता है। मनुस्मृति में यही व्यवस्था दी गई है-
‘‘अन्योन्यस्याव्यभीचारा भवेदामरणान्तिकः।
एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्री पुसंयो परः।।
अर्थात् स्त्री पुरुष मरणपर्यन्त धर्म, अर्थ आदि में परस्पर अभिन्न होकर रहे। यह स्त्री-पुरुष का श्रेष्ठ धर्म संक्षेप में जानना चाहिए और यही मामुलिया का स्वरूप है। मामुलिया का सत्त्व वास्तव में बड़ा ही प्रेरणास्पद है। इसके विषय में कहा जाता है-
‘‘बीन बीन फुलवा लगाई बड़ी रास
उड़ गये फुलवा रै गई बास।’’
मामुलिया मात्र एक खेल ही नहीं है वह तो सम्पूर्ण सामाजिक अनुष्ठान है। तभी तो कहा गया जाता है-
‘‘मौत में मुसकाबो सिखाबै
सिसकावै सैं छुटकारो गुआवै
जौ मामुलिया कौ अनुस्टान।’’
मामुलिया का भौतिक स्वरूप भी दर्शनीय है। आजकल शहरों के बड़े बड़े ड्राईगरूमों में ‘मामुलिया’ एक सजावट का साधन बनी दिखलाई पड़ती है परन्तु बुन्देली भावनाओं के अनुरूप मानव का प्रकृति के साथ तारतम्य के अनुपम कड़ी के रूप में मामुलिया की प्रतिष्ठा आज भी माननीय है। फूलों को कोटों के ऊपर सजाने की विश्वप्रसिद्ध जापानी कला ‘इकेबाना’ शायद इसी मामुलिया का परिमार्जित स्वरूप है।
इन्हीं सब बातों से मामुलिया का खेल सभी खेलों में सिरमौर हो जाता है। बुन्देली कवि माध्ाौशुक्ल मनोज सागर ने तो यहाँ तक कहा है-
‘‘मामुलिया तोरे आज हिमालय की चिट्टानें दिरकीं
देश की आजादी ने जिन पै खून की बूँदैं छिरकीं
देश की जनता चली बरसने, बदरा वन के मामुलिया
दुश्मन के सिर पै ओरे बन, टपक चली मोरी मामुलिया
मामुलिया तोरे आ गये लिबौआ, ढुड़क चली मोरी मामुलिया।’’
और मामुलिया केवल बालिकाओं के मनोरंजन का साधन ही नहीं बनती बल्कि वह तो समस्त मानव-समाज के लिए प्रेरणा का कारण बनती है।

निदेशक बुन्देलखण्ड संग्रहालय,
बलदाऊ चौक, उरई जालौन

बुन्देलखण्ड का लोकसाहित्य -- अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’



नवम्बर 09-फरवरी 10 ------- बुन्देलखण्ड विशेष
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आलेख --- बुन्देलखण्ड का लोकसाहित्य
अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’



बुन्देलखण्ड में लोक साहित्य की समृद्ध वाचिक परम्परा है। बुन्देली भाषा की रचनाओं का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। इस सहस्त्राब्दी के कालखण्ड में लोक साहित्य की विभिन्न विधाओं का सृजन और विकास हुआ है। मूल रचनाकारों द्वारा रचा गया साहित्य अपनी प्रासंगिकता तथा लोकाभिरुचि के कारण लोककंठ में बसकर लोक की थाती बनता गया। काल के प्रवाह में लोक की सीमाओं और परिवर्तित परिस्थितियों के परिणामस्वरूप मूलरचना में परिवर्तन होते रहे। इसी लिए विभिन्न स्थानों पर एक की रचना के अनेक पाठान्तर मिलते हैं। लोक साहित्य की इस वैविध्यपूर्ण विरासत में लोकगीत, लोकगाथायें, लोककथायें एवं लोकसुभाषित (लोकोक्तियाँ अर्थात कहावतें, मुहावरे तथा बुझौअल अर्थात पहेलियाँ) सम्मिलित हैं।
लोकगीत
जनमानस अपना उल्लास और कसक लोक गीतों कें माध्यम से व्यक्त करता है। सौन्दर्य, मधुरता, करुणा और वेदना से सराबोर ये गीत सैकड़ों वर्षों की परम्परा में जनमन में इतने बस गये हैं कि किसी को इन गीतों में ‘उत्स’ का पता नहीं होता है। यदि किसी गीत का रचनाकार ज्ञात होता है तो उसे लोकगीत की श्रेणी में परिगणित नहीं किया जाता है।
इन गीतों का लोकत्व यह है कि इनकी अपनी विशिष्टि धुनें यमुना से नर्मदा तक और चम्बल से टौंस तक सम्पूर्ण बुन्देलखण्ड में एक जैसी गायी जाती रही हैं, गायी जाती हैं, और गायी जाती रहेंगी। स्थान दूरी पर होने वाले भाषागत या उच्चारणगत परिवर्तनों के अलावा उनमें कोई विशेष अन्तर नहीं होता है। स्वर, रागरागिनी वही रहती है, केन्द्रीय भाव वही हैं, एक दो पंक्तियों को छोड़कर गीत ज्यों के त्यों मिलते हैं।
यह गीत लिखित में कम, वाचिक परम्परा में अधिक हैं। इस क्षेत्र में सर्वेक्षण करते समय मुझे यह सुखद आश्चर्य हुआ कि यह गीत उन महिलाओं के कंठों में सबसे अधिक सुरक्षित हैं, जिन्होंने न तो पोथी पढ़कर अक्षर ज्ञान पाया और न जो कागज का एक अक्षर बाँच सकती हैं परन्तु उनमें स्मरण शक्ति गजब की है। उन्होंने परम्परा से इसे सुना, सुनकर यदि किया और वे अपनी पीढ़ियों को देने को तैयार हैं किन्तु आज के कथित शिक्षाधारी युवक/युवतियाँ इस सांस्कृतिक विरासत को ग्रहण करने से कतरा रहे हैं। इस विलुप्तोन्मुखी विरासत को जितने शीघ्र लिपिबद्ध, स्वरबद्ध तथा अन्य तरीकों से संरक्षित किया जा सके वह लोक संस्कृति के हित में है।
बुन्देलखण्ड में घर-घर होने वाले पारिवारिक समारोह तथा मांगलिक आयोजन इन्हीं गीतों और संगीत के साथ आयोजित होते हैं। हृदय की कोमल भावनायें इन गीतों में सहजता के साथ व्यक्त हुई हैं। इस क्षेत्र में प्राप्त लोकगीतों को निम्न कोटि में विभाजित किया जा सकता है -
1 देवी देवताओं के पूजा विषयक गीत
2. संस्कार गीत

3. बालक/बालिकाओं के क्रीड़ात्मक उपासना गीत

4. ऋतु विषयक गीत

5. शृंगार गीत

6. श्रमदान गीत

7. जातियों के गीत

8. शौर्य /प्रशस्ति गीत

9. स्फुटगीत


देवी-देवताओं के पूजा विषयक गीत
बुन्देलखण्ड आस्था और भक्ति का प्रदेश है। यहाँ आदर्शों के प्रति आस्था ने लाला हरदौल जैसे मनुष्य को देवत्य प्रदान किया है। विष पीकर भी भावज के चरित्र की निष्कलंकता उन्होंने प्रमाणित की, बहिन की याचना की रक्षा की और इसने उन्हें अमरत्व दिया। हरदौल यहाँ के लोकदेवता हैं। गीत हर विवाह का मांगलिक कार्य में गाये जाते हैं। हनुमान जी पवन के पुत्र हैं, आँधी-अंधड़ से विनाश को रोकने वाले हैं, उनकी निर्विध्नता के प्रति यह आस्था लोकगीतों में मुखरित हुई है। राम और कृष्ण तो यहाँ घर-घर बसे हैं। हर कार्य अवसर पर उनकी पूजा का विधान है, उनके जीवन का अनुरक्षण है। कार्तिक-स्नान पर्व में महिलायें उनके चरित्र विषयक गीत प्रभात बेला में झुण्डों में निकलकर गाती है।
महिषमर्दिनी माँ दुर्गा तथा शारदा यहाँ की अधिष्ठात्री हैं। महिषासुर को लोकभाषा में मइखासुर या मइकासुर भी कहते हैं। उनका मर्दन करने वाली माँ यहाँ विपत्तियों से रक्षा के लिए विशेष पूज्य हैं। देवी के प्रति यह आस्था ‘अचरियों’ में व्यक्त होती हैं। अचरियाँ धुनों के आधार पर छह प्रकार की मिलती हैं। झूला की अचरी, शब्द बानी, (भजन) डंगइया, अमान, जिकड़ी तथा माँ वाली अचरी। शारदीय तथा बासंतिक दोनों नवरात्रियों में हर गाँव नगर अचरियों के इस मंगल गायन से भक्तिमय हो जाता है।
अचरियाँ केवल दुर्गा माँ की ही नहीं, सीता माँ, राधाजू, कालका माँ और उनके आगे चलने वाले भैरव बाबा की भी मिलतीं हैं। इसी क्रम में लांगुरिया गीत आते हैं।
शक्ति पूजा में ‘माई का मार्ग’ पूजने का विधान है। इस पूजा में शक्ति और गणेश के ‘मायले’ गाये जाते हैं। कारसदेव की गोटें भी पशुरक्षा की पूजा में कथा के रूप में गाई जाती हैं। इन गीतों पर पुरुषों तथा महिलाओं का समान अधिकार है। ‘कार्तिक गीत’ केवल महिलायें गाती हैं। गोटें केवल पुरुष गाते हैं।

संस्कार गीत
बुन्देलखण्ड का लोक जीवन सुसंस्कृत है। हिन्दू शास्त्रों में वर्णित सभी संस्कार यहाँ विधिविधानपूर्वक करके जातक (व्यक्ति) को संस्कारित किया जाता है। यह मांगलिक संस्कार संगीत की लय और ताल पर लोकगीतों के साथ होते हैं। संस्कार निम्नलिखित हैं-
1 गर्भाधान संस्कार
2 पुंसवन संस्कार

3 सीमन्तोन्नयन (सीमन्त संस्कार)
4 जातकर्म संस्कार

5 नामकरण संस्कार
6 निष्क्रमण संस्कार

7. अन्नप्राशन संस्कार
8. चूड़ाकर्म संस्कार

9. वेदारंभ संस्कार
10. उपनयन संस्कार

11. कर्णवेधन संस्कार
12. समावर्तन संस्कार

13. विवाह संस्कार
14. वानप्रस्थ संस्कार

15. संन्यास संस्कार
16. अन्त्येष्टि संस्कार


उक्त संस्कारों में प्रथम तीन जन्म-पूर्व के हैं। अतः इनके अन्तर्गत माता का संस्कार किया जाता है। शेष संस्कार जन्मोपरान्त जातक के किये जाते हैं। किसी माता की कितनी भी संतानें हों, उसका संस्कार प्रथम संतान होने के पूर्व होता है। परवर्ती संतानों के होने पर माता के यह संस्कार नहीं कराये जाते हैं। इन सभी संस्कारों के अवसर पर अनेक प्रकार के लोकगीत गाये जाते हैं। यह गीत प्रायः महिलायें गातीं हैं। अन्य लोकवाद्यों के साथ ढोलक का प्रयोग प्रचुरता के साथ होता है।
महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस क्षेत्र में राम और कृष्ण का प्रभाव इतना व्यापक है कि अधिकांश संस्कार राम-सीता और राधा-कृष्ण के जीवन प्रसंगों पर आधारित हैं। हर परिवार में जन्मा बालक ‘राम’ या ‘नंदलाल’ होता है और कौशल्या या जशोदा की कोख से जन्मता सा लगता है। उसके जन्म पर वही उल्लास और हर्ष पाया जाता है जो कभी अवध और ब्रज में छाया था। यह कहा जा सकता है कि इन संस्कारों में लोक-गायन के क्षणों में बुन्देली धरती पर ब्रज और अवध उतर आता है।
अनेक संस्कार कर्मकाण्डी पण्डितों के बजाय कोकिलकण्ठी महिलाओं के पावन स्वरों से अभिसिंचित होते हैं। आश्चर्य यह है कि इन गीतों के गायन में रुचि रखने वाली महिलायें और पुरुष निरक्षर या अल्पशिक्षित हैं किन्तु यह लोकगीत उनकी स्मृतियों में इस तरह बस गये हैं कि पढ़े लिखे व्यक्तियों की स्मरण शक्ति पराजित हो जाती है। आप सिर्फ उनके तार छेड़ दीजिए फिर उनके बोल अपने आप फूट पड़ेंगे। स्मृतियों की यह अविचल और लोक व्याप्त परम्परा ही लोक संस्कृति को जीवित रखे हैं। इन संस्कारों गीतों में आधार-विधान भी व्यक्त होता चलता है।

बालक-बालिकाओं के क्रीड़ात्मक-उपासना गीत
बालक-बालिकाओं में प्रारम्भिक अवस्था में ही जीवन-यात्रा की दीर्घकालिक तैयारी, कला और संगीत के प्रति अभिरुचि सौन्दर्य बोध का विकास, संघर्ष के साथ भी मृदुल समरसता एवं समृद्धि का समन्वय तथा जीवन के अनेक भावी कार्यों के क्रीड़ात्मक ढंग से प्रशिक्षण की भावना से कुछ खेल बुन्देली लोक जीवन का महत्वपूर्ण अंग बन गये हैं। इनमें अकती तथा सुआटा विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
अकती, अक्षय तृतीया के रूप में पूरे देश में पूजित है किन्तु उस दिन बुन्देली बालक-बालिकाओं द्वारा कलात्मक ढंग से बनाई गई पुतरा पुतरियाँ सौन्दर्य बोध, सृजन-क्षमता, कलाप्रियता का अद्भुत उदाहरण है। आजकल ‘डॉल मेकिंग आर्ट’ का फैशन आ रहा है किन्तु बुन्देलखण्ड में यह कला युगों-युगों से विकसित हो चुकी है। इस अवसर पर अक्ती के गीत गाये जाते हैं-वे विवाहोन्मुख कुमारियों की सलज्जता, शालीनता तथा प्रिय के प्रति सर्वाधिक अनुराग का प्रतिबिम्बन करते हैं।
सुआटा एक दीर्घकालिक क्रीड़ात्मक उपासना विधान है। यह भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन पूर्णिमा तक चलता है। मामुलिया, नौरता सुआटा, टेसू तथा झिंझिया के पाँच अंगों से समन्वित यह खेल बालकों में उनकी कल्पनाशीलता विकसित करने, प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न करने, सौन्दर्य बोध तथा कला प्रेम बढ़ाने का उपक्रम है। बेर की कँटीली टहनी को भी नारी के रूप में सजाने का प्रयास-जापान के इकेबाना की शैली का है। इसमें काँटे, फल और फूल संघर्ष, सृजनात्मक उपलब्धि तथा अनुरागात्मक माध्यम का प्रतीक है। एक ओर यह खेल प्राचीन कथा पर आधारित है, जिसका पुष्ट ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है, दूसरी ओर यह अंधविश्वासों में जकड़ी मान्यताओं की ओर संकेत करता है। यह बुन्देलखण्ड का विशिष्ट लोकोत्सव है। इसमें लोकगाथात्मक तथा सामान्य, दोनों प्रकार के गीत मिलते हैं।

ऋतु विषयक गीत
लोक जीवन में हर मौसम का अपना आनन्द है...बरसात, जाड़ा, फगुनाई भरा बसंत या ग्रीष्म; हर माह के अपने त्यौहार हैं, अपने सुख-दुख हैं। सावन तो बहिनों का माह है, बहिनों के लिए भाई की प्रतीक्षा का माह। बहिन की हर टकटकी भाई के आने की बाट जोहती है। घर के बाहर या बाग बगीचों में झूलों पर पैंगें मारती बहिनों को भी अपना परदेश में रहना अखरता है। वे भाई के आगमन की प्रतीक्षा करती हैं।
फागुन प्रेम का उत्कर्ष काल है। बसंत की बहार, फगुनाई का मौसम एक विशेष भावोद्रेक करता है। बुन्देलखण्ड में हर स्थान पर फागें और रसिया गाने का रिवाज है। यह फागें शृंगार और आध्यात्मिकता का अद्भुत काव्य हैं। फागें छन्दयाऊ, खड़ी तथा चौकड़ी तीन कोटियों में विभक्त होती हैं। इन संवेदनाओं से जुड़े गीत मनोरम होते हैं।

शृंगार गीत
बुन्देलखण्ड के लोक साहित्य में शृंगार की समृद्ध परम्परा है। मनोभावों की सरस अभिव्यक्ति इन गीतों में हुई है। ये गीत तन्मयता का अद्भुत उदाहरण हैं। बुन्देली बालायें अपने प्रिय के साथ इतनी तन्मय हैं कि उन्हें ‘भुनसारे चिरैयों’ का बोलना प्रेम में व्यवधान लगता है।
नारी नहीं चाहती है कि उसका प्रिय किसी और को चाहे। कुँए पर, बाग में, चौपर में वह हर स्थान पर प्रिय के साथ रहना चाहती है। वह तो ढिंमरिया और मलिनियाँ तक बनने को तैयार है। पारस्परिक समर्पण का कैसा भावपूर्ण संयोग है-‘नजरिया मोई सों लगइयों।’
प्रेम आर्थिक सीमायें नहीं देखता। वह गरीब है तो क्या हुआ? वह अपने पति को संदेश भेजना चाहती है। कागज, स्याही और कलम नहीं तो छिंगुरिया को कलम बनाकर संदेश भेजने को व्याकुल रहती है। उसकी इच्छा है कि वह भी ‘लिखदऊं दो दस बोल’। प्रेयसी कितनी आशावान और मानिनी है उसे प्रिय के आगमन से खेतों में दूबा हरी होती दिखती है, रीते कुँआ भरते नजर आते हैं। यह प्रतीक विलक्षण है। वह मोतियों का चौक पूरकर और स्वर्ण कलश की मांगलिकता के साथ प्रिय का स्वागत करने को उत्सुक है।
यहाँ की नारी अपने पति को परेशान नहीं देखना चाहती है। चाहे वह अपनी लाखों की इज्जत गिरवी रख दे किन्तु सीधेपन के कारण कोई उसके पति को परेशान न करे। यह बुंदेली बाला का आदर्श ‘जो ररिया हमसे कर लेऔ’ गीत में व्यक्त हुआ। नायिका प्रिय के लिए जो खेत में कृषि कार्य कर रहा है, कलेवा लेकर जाती है किन्तु उसकी तन्मयता इतनी है कि उसे कलेवा देखने की फुरसत नहीं। यहाँ नायिका की अधीरता दृष्टव्य होती है।
बुन्देलखण्ड में महिलायें बाँहों में ‘गोदना’ गुदवाकर तथा हाथों में मेंहदी रचाकर सौन्दर्य वृद्धि करती हैं। गोदना गुदवाने में बड़ी पीड़ा होती है किन्तु सुन्दर बनने की ललक उन्हें यह करने को भी मानसिक रूप से तैयार करती है। इस पीड़ा को कम करने में गुदना गीत सहायक होते हैं।

श्रम के गीत
व्यक्ति चाहे हल चलायें, बुआई करें, फसल काटें, कोल्हू में तेल पेरंे या चक्की पीसें, इन क्षणों में उसकी तन्मयता के लिए गीत सहायक होते हैं। स्वरलहरी में तन्मय होकर वह अपनी थकान भूल जाता है। इन्हीं व्यस्त क्षणों में, खेती में, कटाई या अन्य कृषि कार्य करते समय, बिलवारी तथा दिनरी और महिलाओं द्वारा चक्की पीसते समय ‘जंतसार’ के गीत लोकजीवन में रच-बस गये हैं। इनकी अपनी धुनें हैं और अपनी संगीतात्मकता।

जातियों के गीत
विभिन्न जातियों, विशेषकर अति पिछड़ी जातियों में विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले अपने लोकगीत तथा उनकी लोकधुनें हैं। उन्हें उनके जातिगत गीत या गारी के नाम से जानते हैं। यथा-ढिमरियाऊ गारी, कछियाऊ गारी, धुवियाऊ गारी, गड़रियाऊ गारी, कहरवा (कहार गीत) आदि। इन जातियों के लोग प्रायः अपने पारम्परिक लोकगीतों, गोटें आदि को न तो लिपिबद्ध करने देते हैं और न उन्हें रिकॉर्ड करने देते हैं। सर्वेक्षकों द्वारा आग्रह करने के बावजूद उसे लिपिबद्ध कराने को तैयार नहीं होते हैं। उनकी मान्यता है कि ऐसा करने से कारसदेव नाराज हो जायेंगे किन्तु उन्हीं जातियों के शिक्षित या शोधोन्मुख युवक-युवतियों के माध्यम से वे गीत प्रकाश में आ रहे हैं।

शौर्य/प्रशस्तिगीत
समकालीन महापुरुषों ऐतिहासिक पात्रों, आंचलिक ख्याति के व्यक्तियों की प्रशंसा में अथवा उनके शौर्य को बखानते हुए अनेक गीत मिलते हैं। यह गीत शौर्यपरक होने पर रासो परम्परा में गिने जाते हैं। राछरे तथा पंवारे बुन्देलखण्ड में गाये जाने वाले ऐसे ही लोकगीत हैं। इनमें कथात्मक गीतों को तकनीकी दृष्टि से लोकगाथा की श्रेणी में गिना जाता है।

स्फुट गीत
इसके अतिरिक्त विविध विषयों पर जो गीत मिलते हैं उन्हें इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

लोकगाथायें
लोक जीवन में लोकगाथायें बड़े प्रेम और तन्मयता से गाईं तथा सुनीं जाती हैं। ये कथापरक गीत होते हैं। इनमें कहानी गीत के माध्यम से आगे बढ़ती है। इस प्रकार लोकगाथाओं को इतिवृत्तात्मक लोक काव्य कहा जा सकता है। इनका आकार सामान्य लोकगीतों से अधिक बड़ा होता है। अनेक लोकगाथायें तो महाकाव्य की भाँति 600-700 पृष्ठों में मिलती हैं। आल्हा बुन्देलखण्ड में गायी जाने वाली सर्वप्रिय लोकगाथा है। जगनिक ने जब आल्हखण्ड लिखा होगा तब वह सीमित पृष्ठों का रहा होगा किन्तु समय की गति के साथ गायकों ने उसमें क्षेपक जोड़कर उसे इतना विस्तृत कर दिया कि खेमराज श्रीकृष्ण दास द्वारा प्रकाशित आल्हखण्ड 940 पृष्ठों में छपा है किन्तु बुन्देलखण्ड क्षेत्र में गाया जाने वाला आल्हा उससे भी बृहत् है। इसमें आल्हा ऊदल द्वारा लड़ी गई 52 लड़ाइयों की विस्तृत कहानी है। बरसात के दिनों में कृषि कार्य से निश्चिन्त होकर ग्रामवासी हर गाँव में आल्हा गाते सुनते मिल जायेंगे। कई लोकगाथायें छोटे आकार में भी मिलती हैं।
बुन्देलखण्ड की प्रमुख लोकगाथाओं में, अमान सिंह की राछरा, प्रान सिंह का राछरा, जागी का राछरा, भरथरी, सरवन गाथा, सीताबनवास, सुरहिन गाथा, हरिश्चन्द्र गाथा, सन्तवसन्त की गाथा, रमैनी आदि चालीस से अधिक लोकगाथायें प्राप्त होती हैं।

लोककथायें
लोक कथायें लोक जीवन का अभिन्न अंग है। घर के भीतर बूढ़ी महिलायें या मातायें परिवार के बच्चों को रात में कहानियाँ सुनाती हैं। घर के बाहर चौपालों मंे अग्नि जलाकर अलाव के सामने कहानियाँ सुनाने की परम्परा है। प्रत्येक व्रत, त्योहार या पूजन के समय पंडित जी या परिवार की वरिष्ठ महिलाओं द्वारा कहानियाँ कही जातीं हैं। यह सभी कहानियाँ लोक कथा के रूप में जानी जाती हैं। इनमें पौराणिक प्रसंगों से लेकर उपदेशपरक तथा मनोरंजक कथानक होता है। कई कथायें तिलस्म या रोमांच से भरपूर होती है। अनेक में लड़ाइयों का विवरण होता है। अधिकांश में समाज कल्याण का जीवंत चित्र बड़ी स्वाभाविकता के साथ बखाना जाता है।
इस क्षेत्र की लोक कथाओं के संकलन तथा अध्ययन से इस क्षेत्र के सामाजिक परिवेश का पूरा चित्र समझा जा सकता है। व्रतकथाओं का विषय प्रायः यह होता है कि अमुक ने यह व्रत किया तो उसे क्या लाभ हुआ? अमुक ने नहीं किया तो उसे क्या कष्ट सहना पड़ा? इस प्रकार वे कथा सुनने वालों को व्रत तथा धार्मिक आचरणों के प्रति आकृष्ट करने वाले होते हैं। घर के भीतर बच्चों को सुनाई जाने वाली या अलाव पर कही जाने वाली लोक कथाओं की विशेषता यह है कि उनमें मर्यादित शब्दावली में ज्ञानवर्द्धक सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है। कहानियों के अंत में लोकमंगल की भावना इन शब्दों में व्यक्त होती है -
‘जैसी भगवान ने इनकी सुनी, तैसी सबकी सुनै’, ‘सबकौ भलौ करै’, ‘सुख में रख्खै’ और ‘दूधन भरौ, पूतन फरौ’ आदि। इन लोककथाओं को कहने के पूर्व उनकी भूमिका भी बड़े रोचक ढंग से प्रस्तुत की जाती है।

लोकसुभाषित
लोकोक्तियाँ
बुन्देलखण्ड निवासियों का वाग्चातुर्य यहाँ प्रचलित लोकोक्तियों, मुहावरों तथा बुझौअलों (पहेलियों) में झलकता है। किसी भी सुन्दर कथन के लिए सूक्ति या सुभाषित शब्द का प्रयोग मिलता है। जब यह सूक्ति या सुभाषित लोकव्याप्त होकर जन-जन में प्रचलित हो तो उसे ‘लोकोक्ति’ कहते हैं। इन लोकोक्तियाँ की सबसे बड़ी विशेषता संक्षिप्तता होती है, जिसमें बड़ी से बड़ी बात को कम शब्दों में कहने का सामर्थ्य है। इनमें गागर में सागर भरा है।
यह कहावतें ग्राम्य-कथन या ग्राम्य-साहित्य नहीं हैं। यह लोकजीवन का नीतिशास्त्र हैं। यह संसार के नीतिसाहित्य का विशिष्ट अध्याय हैं। विश्व-वाड़गमय में जिन सूत्रों को प्रेरक, अनुकरणीय तथा उद्धरणीय माना गया है, उनका सार प्रकारान्तर से इनमें मिल जायेगा। समान अनुभव से प्रसूत इन कहावतों से अधिकांश सूत्र सार्वभौमिक सत्य होते हैं। कुछ सूत्र स्थानीय या आंचलिक वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालते हैं।
यह कहावतें जनमानस के लिए आलोक स्तम्भ हैं। इनके प्रकाश में हम जीवन के कठिन क्षणों में लोकानुभव से मार्गदर्शन प्राप्त कर सफलता का मार्ग ढूढते हैं। यह वह चिनगारी है जिनमें अनन्त ऊष्मा है जो जनमानस को मति, गति और शक्ति प्रदान करती है। हम किसी भी प्रसंग की चर्चा छेड़ दें, उससे जुड़ी कहावतें लोगों की जुबान पर आ जाती हैं। यही इनकी लोकव्याप्ति का प्रमाण है। इन्हें पढ़कर इनके गढ़ने वालों की सूझबूझ, सूक्ष्म पर्यवेक्षण क्षमता तथा वाक्विदग्धता पर आश्चर्य होता है। वे सचमुच जीवनदृष्टा थे।
यह कहावतें नदी के उन अनगढ़ शिलाखण्डों की तरह हैं जो युग युगान्तर काल के प्रवाह में थपेड़े खा-खाकर शालिग्राम बन शिवत्व को प्राप्त करते हैं। इनमें लोक का बेडौलपन है, छन्दों की शास्त्रीयता नहीं है तथापि इनमें काव्य का सा सहज प्रवाह है, वे सहज स्मरणीय हैं।

बुझौअल
सांकेतिक ढंग से रहस्यात्मक बात कहना तथा दूसरे से पूछना और सही अर्थ जानना, यह बुन्देली में बुझौअल कहलाता है। बुझौअल बूझने (पूछना) से बना है। यह संस्कृति के प्रहेलिया शब्द का पर्यायवाची है। हिन्दी या अन्य लोकभाषाओं में इसे पहेली भी कहते हैं।

मुहावरे
वाक्य को आकर्षक एवं चुस्त बनाने के लिए विलक्षण अर्थपरक वाक्यांश प्रयोग करते हैं, यह मुहावरे कहलाते हैं। मुहावरेदार भाषा का प्रयोग व्यक्ति की विद्वता तथा वाग्चातुर्य का प्रतीक है। यह वाक्य का अंश होता है, अतः इसका स्वतंत्र प्रयोग नहीं किया जा सकता है किन्तु किसी वाक्य में यथोचित स्थान पर रख देने से उसका अर्थ महत्व बढ़ जाता है। बुन्देली लोकजीवन में मुहावरों का प्रयोग बहुतायत में होता है।
इस प्रकार बुन्देलखण्ड का लोक साहित्य बहुआयामी है तथा हमें इसमें बुन्देलखण्ड की संस्कृति के विविध पक्षों की झलक देखने को मिलती है। सांस्कृतिक अनुशीलन हेतु यह महत्वपूर्ण आधारभूत सामग्री है।

मण्डपम्, राठ रोड, उरई (जालौन)