नवम्बर 08-फरवरी 09 ------- बुन्देलखण्ड विशेष ---------------------------------------------------------------- आलेख ------------- श्याम बहादुर श्रीवास्तव ‘श्याम’ |
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अपँए देस भारत के उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड भाग में अलग-अलग जगाँ अलग-अलग तरीकां से होरी को त्यौहार मनावे की परम्परा देखबे कों मिलत है।
फागुन महीना में लगतई खैम यानी कै होरी को डाँड़ो धरवे सें लैकें फागुन के अन्त लौं बल्कि चैत की ओंठें-नौं लोग लुगाईं, बूढे़-बारे सबईं एक रंग में रंगे दिखाई देत और बो रंग है होरी को उन्मादी प्रेम रंग, जीको रूप उजागर होत है आपुस में एक-दूसरे के गालन में मले गये रंग-अबीर सें। गाँवन में देखत हैं मान लें कौनउँ भौजाई गोबर पाथ रइ या अपँए द्वारें गोबर सें चैंतरा लीप रइ और गाँव-मुहल्ला के कौनउँ देवर लला ढिंगा सें निकर भर गए तौ समजो नजर बरकाकें उनकी पीठ पै गोबर को लौंदा छप्पइ हो जानें, भौजी के हाँत में पानी भरी गड़ई पर गइ तौ पिछाउँ से उनके ऊपर पानियँइँ लौंड़ दओ जात, कछू नइयाँ तौ देउर पै धूरइ उल्ला दई। ऐसे में बिचारे देउर लला कों हँस-मुस्क्या कें भगबे के सिवा कौनउँ रस्तइ नइँ सूझत। सारी-सरजें, जीजा-सारे फागुन के महीना में गाँव में चायँ जाके घरै आ जायँ, फिर तौ समजो बिनकी कुगतइ हो जानें। जित्ते जाने लागती के लगत और उन्नें देख लओ तौ समझो जित्ते मौं उत्तिअइँ छुतयानी बातें, उत्तेइ हातन रँग-अबीर-कारोंच आदि उनहें अपँए स्वागत-सत्कार में मिलनेंइँ मिलनें हैं।
चैत की फसल ठाड़ी है। नुनाई हौनें है। पकी फसल सें भरे लैलहात खेतन कों देख किसानन को मन एक नई उमंग में भरो रहत है। खुशी के मारें गाँवन में रातन ढोल और झाँझन के बीच रस भरी फागें और तरा-तरा के रसीले गीत सब मिलकें गाउत हैं। फागुन की पूनों कों बाजे-गाजे के साथ होरी गीत गाउत भए गाँव के बाहर सबरे होरी उराउत हैं और कण्डा-लकड़ियाँ-गोबर के बल्ला जरत होरी में डार के गोजा-गुजियाँ आदि पकवान और रंग-अबीर चढ़ा कें होरी की पूजा करत हैं। बाके बाद बई में सें आगी ल्याकें अपने-अपने घरन में सब परिवार के संगै होरी जराउत हैं। सब एक दूसरे कें रंग-अबीर लगाउत हैं। गले मिलत हैं, छोटे अपने बड़िन के पाँव छू कें आशीर्वाद लेत हैं। बस होरी जरबे के टैम सेंइँ रंगा-रंग सुरू हो जात। जितै देखों उतइँ रंग-अबीर। छोटे-बड़े औरत-मर्द सबई बंदरा-लँगूरन जैसो मौं बनाय दिखाई देत। सबइ नर-नारी आपुस के ईरखा-द्वेष, भेदभाव कों भूल कें एक-दूसरे के गरे मिलत हैं। कोउ काउ की गारियन को या उल्टी-सीदी कही बातन को बुरो नइँ मानत। जा है इतै की होरी जो आपुस में प्रैम और भाईचारा को सँदेसो आजउँ दै रइ।
होरी के त्यौहार पै घर-घर में कम से कम दो-चार दिना पैले सें तरा-तरा कीं मिठाईं, गोजा-गुजियाँ, झार के लड़ुआ, ऐरसे आदि बनबो सुरू हो जात है। होरी कों गाँव भर में मिठाइयन की, पुआ-पुरीं, कचैरियन आदि पकवानन की मँहक सबकों बिनइँ खायँ छका देत है। घर-गांव सें दूर नौकरी और ब्यौपार-बंज क्रबे बाले लोग अपने बाल-बच्चन समेत अपने गाँव आकें घर-परिवार के संगै ई पावन त्यौहार मनाउत हैं। आपुस में एक-दूसरे के घर की भौजाइयें देवरन को नौता करकें अपने हाँत सें बनाए पकवान खबाउतीं हैं और उनके रंग-अबीर, लगाउतीं हैं, काजर-बूँदा टिकली-माहुर लगा कें आशीर्वाद देतीं हैं। देवर भी भौजाई कों मिठाई और उपहार बगैरा भेंट करत हैं। ऐसो प्रैम-आनन्द सब जगाँ मिलबो दुरलभ है।
गाँव खिली होरी की एक झाँकी हम अपँए गीत के माध्यम से अपुन औरन कों दिखा रए। बिल्कुल आँखन देखी है, देखो-एक जीजा जू होरी पै अपनी ससुरार में आन फंसे। उनपै कैसें होरी खिली, उनपै का बीती, सो देखो-
होरी को हुरदंग
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नन्दबाइ ने चिठिया लिख दइ, होरी पै जिन अइयो।
इतै कुधर हो जै है बालम! चार दिना गम खइयो।।
जीजा-जू आये तै तौरस, गत-उनकी देखी ती,
घर-घर से आये ते नोंता, होरी ऐन खिली ती,
माहुर-बूँदा-टिकुली रुच-रुच कर गइँ तीं भौजाई,
माँग भरी सेंदुर से, ओंठन लाली चटक लगाई,
ऐसे फँसे भगउ नइँ पाये, तुमउँ न आ फस जइयो।। इतै कुधर हो जै है..
गाँव भरे की भौजाइन ने करी कुगत सो छोड़ो,
भओ अँगाई का-का साजन। ध्यान उतै कों मोड़ो
द्वारें कढ़े कि चार मुचण्डा भइयन नें गपया लयो,
घात लगायें बैठे ते सब, उन्नें गधा मँगा लयो,
फिलट रंगों तो मौं जीजा को, होसयार तुमं रहयो।। इतै कुधर हो जै है..
उन्ना सब उतार कें, उनकों लँहगा पैराओ तो,
अँगिया बाँधी ती छाती पै, जम्फल हिलगाओ तो,
उढ़ा चुनरिया, मौं पै हल्को डार दओ तो घूंगट,
मौंर बाँध दइ ती खजूर की उनके माथे पै झट,
जबरन दव बेठार गधा पै, तुमउँ न हँसी करइयो।। इतै कुधर हो जै है..
बजन लगे ते ढोल-झाँझ ढप, आये तबई गबइया,
फागें गब रइँ तीं छुतयानी, का बतायँ हा दइया,
भीड़ गबउआ-हुरियारिन की चली नचत गाउत भइ,
जीजा जू की चली सबारी पाछूँ सें मटकत भइ,
सबई लगत ते रीछ-लँगूरा, तुमउँ न हुरया जइयो।। इतै कुधर हो जै है..
राई-नोंन उसारें कोऊ, बिजना कोउ डुलाबैं,
द्वारिन-द्वारिन जीजा जू को टीका बे-करवाबै,
गुजिया ख्वाय, मार कें गुल्चा हँस रइँ तीं भौजइयाँ,
जीजा जू जब नजर लेत ते, भकुर जात ती मुँइयां,
होरी को हुरदंग बुरो है, ससुरारै जिन अइयो।
इतै कुधर हो जैहे बालम! चार दिना गम खइयो।
रजिस्ट्रार शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय, ग्वालियर म0प्र0 |
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