Tuesday, March 31, 2009

अंक-8 जुलाई-अक्टूबर 2008


अंक - 8 जुलाई-अक्टूबर 2008
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बात दिल की
सार्थक प्रयास करना होगा
धरोहर कहानी
ईदगाह/प्रेमचन्द
आलेख
बाल साहित्यःदशा और दिशा/कृष्ण कुमार यादव
बाल साहित्य की यात्रा/डा0 हरि सिंह
बाल साहित्य और उसकी प्रासंगिकता/चरण सिंह जादौन
संस्मरण
बचपन की मीठी यादें/निर्मल कौर संधू
कहानी
सच्चे साथी/कुसुमांजलि शर्मा
मैं अकेला/शामलाल कौशल
संगणक/डा0 मधु संधू
लघुकथा
भिखारी बालक/ओमप्रकाश ‘मंजुल’
कवरेज कम्पलीट/डा0 पूरन सिंह
फोड़ा/कमल चोपड़ा
उल्लू कौन?/विष्णु कुमार चतुर्वेदी
काव्य-प्रसून
सूरज उगाना चाहता हूँ/डा0 मोहन ‘आनन्द’
हाइकु/कुन्दन पाटिल
अब भारत की बात करो/दीपावली/हितेश कुमार शर्मा
शिक्षा/प्रकृति की बारात/अंजु दुआ जैमिनी
विशेष
बाल डायरी के कुछ पन्ने/सुधा भार्गव
दोहा छन्द का भेदपरक अध्ययन/प्रवीण कुमार सक्सेना ‘उजाला’
लग कोना
आत्म-संतुष्टि/रूपाली दास ‘तिस्ता’
युवा स्वर
वह नन्हा/हेमंत

बचपन की मीठी यादें

संस्मरण / जुलाई-अक्टूबर 08
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निर्मल कौर संधू




वो भी कितने अच्छे दिन थे, जब हमारा बचपन था। उन दिनों बाबू जी जोधपुर जंकशन में गार्ड की पदवी पर थे। मैं कक्षा चार में थी। नई क्लासें शुरू होने वाली थी। मैं माँ से रोज नई क्लास की किताबे मंगवाने को कहती। कई बच्चे किताबें कापियाँ ले भी आए थे। आखिर नई क्लासों की पढ़ाई शुरू हो गई। हम छै भाई बहन थे, चार बहनें व दो भाई। सभी सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। जब मैं नई किताबें लेने की जिद करने लगी तो माँ ने सिर पर हाथ फेरते हुए कहा कि ‘आज तेरे बाबू जी किताबें जरूर लेकर आएंगे, क्योंकि परसो वो बीकानेर ट्रेन लेकर गए हैं। वहाँ किताबों वाला दुकानदार तेरे बाबू जी का दोस्त है।’ माँ बाबू जी वाली टेªन आज कितने बजे आएगी’, मैंने माँ से पूछा।
माँ ने कहा ‘रात को ग्यारह बजे स्टेशन टेªन आकर रुकती है, तेरे बाबू जी को स्टेशन मास्टर के रूम में जाकर रजिस्टर पर साइन करके घर आते-आते साढ़े ग्यारह बजेंगे ही। तुम सो जाना और सुबह नई किताबें स्कूल ले जाना।’ मुझे बहुत खुशी हुई। मैं पढ़ने की बहुत शौकीन थी। सदा क्लास में फस्र्ट आती थी। सभी लोग यानी बहिनें भाई सो गये थे मगर मेरी आँखों में नींद नहीं थी। बार-बार करवटें बदलती आखिर माँ ने डाँटा ‘सोती क्यों नहीं, सुबह स्कूल नहीं जाना क्या? देर से सोकर जल्दी कैसे उठोगी।’ मैं चुपचाप आँखे मूँदकर सोने का प्रयास करने लगी मगर असफल रही। कुछ देर बाद मुझे माँ के हल्के हल्के खर्राटे सुनाई पड़ते और कुछ ही देर बाद माँ उठकर घड़ी देखने लग जाती। माँ की आँख फिर लग गई पर अभी दरवाजे पर थाप सुनाई दी। माँ उठी पर मैंने जल्दी से दरवाजे के बीचोबीच में लगा सांकल खोला व पूछा, ‘बाबूजी मेरी किताबें लाए?’ ‘हाँ सबकी लाया हूँ। जाओ सो जाओ सुबह लेना।’ आखिर मैं सो गई। सुबह जल्दी ही आँख फिर खुल गई। तब माँ सिगड़ी सुलगा रही थी। मैं धीरे से उठी और किताबें ढूँढने लगी। मेरी नजर एक बड़े से बंडल पर पड़ी। मैंने कैंची से किताबों पर बंधा सुतली का धागा काट डाला और जल्दी-जल्दी चैथी क्लास की किताबें अलग करने लगी। मुझे उन कोरे कागज पर लिखे सवाल, कविता, इतिहास, भूगोल, हिन्दी किताबों की महक बहुत भा रही थी जो आज भी महसूस करती हूँ। मैंने जल्दी-जल्दी अपनी किताबें व कापियाँ समेटी और माँ ने बाबू जी की पुरानी पैंट में से मजबूत मजबूत कपड़ा निकाल कर हम बहनों के जो बस्ते घर में सिले थे, उस बस्ते में अपनी किताबें कापियाँ सजा कर डाल दीं।
इस बात को आज भी याद करके एक मीठी सिरहन पूरे तन पर दौड़ जाती है। इसी तरह अपने बचपन की एक बात को तो जब भी याद करती हूँ तो हँसे बिना नहीं रह पाती। मुझे याद है उन दिनों सन् 1955 में जब पन्द्रह अगस्त या छब्बीस जनवरी का दिन होता तो हमें हर एक बच्चे को चार-चार लड्डू स्कूल से मिलते थे। एक बार हम सभी भाई बहन अपने अपने लड्डू घर ले आए। मैं मीठा खाने की बहुत शौकीन थी। सभी ने लड्डू लाकर माँ को दिये मगर मैंने घर में, गुसलखाने में घुसकर चारों बड़े-बड़े लड्डू खा लिये तब कमरे में आई। माँ ने पूछा ‘तेरे लड्डू कहाँ है बेटी? सभी दो-दो लड्डू खा रहे हैं।’ मैने फट से जबाव दिया ‘तभी तो मैंने चारों खा लिए हैं।’ लेकिन एक घंटे बाद मेरा पेट खराब हो गया था। अब तो सभी ने मेरा जो मजाक बनाया कि बस पूछो नहीं।
इसके कुछ दिन की ही बात थी मैंने स्कूल में जाने से पहले माँ से आँख चुरा कर आम के अचार की बर्नी से जल्दी जल्दी हाथ से ही एक खाली रोटी के डिब्बे में अचार भर लिया और जल्दी से बस्ते में छुपा लिया। जब मैं स्कूल पहुँची तो सभी बच्चे हँसने लगे। मैंने जल्दी से कंधे से बस्ता उतारा और देखा अचार का तेल नुचड़ नुचड़ कर मेरे बस्ते और पीछे से कमीज को तेल से भिगा चुका है। असल में वो अचार मैं अपने साथ पढ़ने वाली एक चपरासी की बेटी ‘नारंगी’ को देने के लिए लायी थी। हुआ यह था कि इस बात के एक दिन पहले मैंने जब अपना परांठा अचार के साथ उसे खाने को दिया तो उसे बहुत स्वादिष्ट लगा। मैंने उसे अचार देने का वादा किया था। उस दिन माँ से डाँट तो पड़ी थी पर आज ये डाँट मीठी डाँट लगती है।
मुझे बचपन से ही गाने व नाचने का बड़ा शौक था। जब भी किसी के घर शादी, ब्याह या उत्सव आदि होता तो राजस्थान में कई दिनों पहले ही गीत गाए जाते हैं। मैंने उस समय की सभी हिट फिल्मों के गीत याद कर लिए थे। मैं शादी वाले घर में माँ से छुपकर जाती और कह आती कि मैं खूब नाचूँगी और गाऊँगी भी लेकिन आप मेरी माँ को कह आना कि निर्मल को जरूर साथ लाना। किसी कार्यक्रम में जाने, नाचने, गाने पर माँ हमें कह देती है अभी तुम लोगों के पढ़ाई करने के दिन हैं, गीत गाने के नहीं। मैं मन मार कर रह जाती पर गीत गाने की इसी लगन ने मुझे गीतकार और कहानीकार बना दिया। बहुत साल पहले बाबूजी और फिर माँ भी सितारों में शामिल हों गईं पर आज भी बचपन की यादें, माँ-बाबूजी का प्यार, मीठी डाँट, नसीहतें सभी कुछ आँखों को नम कर जातीं हैं।



224 बसन्त एवेन्यू,
अमृतसर-143001 (पंजाब)

बाल डायरी के कुछ पन्ने

विशेष / जुलाई-अक्टूबर 08
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सुधा भार्गव



माँ आप सुबह सात बजे ही अपने आफिस के लिए घर से निकल पड़ती हो। केवल चाय पी पाती हो। लौटती हो बहुत थकी हुई। मुझे आप पर बहुत तरस आता है। जी चाहता है भाग-भाग कर आपके काम करूँ। लेकिन कर नहीं पाता। करूँ कैसे? जानता ही नहीं उन्हें करना। कल मेरा गृह कार्य कराते समय आप बहुत झल्ला रहीं थीं। मैंने सोचा आपके आने से पहले सुलेख तो लिख ही सकता हूँ। बहुत ध्यान से धीरे-धीरे लिखा। घर में आपके घुसते ही मैं इतराते बोला था ‘मैंने अपना गृह-कार्य खत्म कर लिया। देखो....माँ!’
‘क्या माँ...माँ की रट लगा रखी है। एक मिनट तो साँस लेने दे।’ गुलाब सा खिला मेरा चेहरा मुर्झा गया। मैं गुमसुम बैठ गया ....शायद मनाने आओ....नहीं आईं। चाय पीने के बाद सो गईं। शाम को उठीं। उस समय मैं खेलने बाहर जा रहा था। आपने मुझे रोक लिया। ‘कहाँ चले नवाब, लाओ, जरा देखूँ क्या किया है?’
सुलेख पर नजर पड़ते ही तमतमा उठीं-‘अरे! यह क्या? ज्यादातर शब्द लाइन से बाहर निकले हैं। कोई अक्षर छोटा है कोई बड़ा। कितनी बार कहा है कि ठीक से लिखा कर पर नहीं, ना सुनने की तो कसम खा रखी है।’ मुझे डाँट कर तुम चली गईं। मेरी सारी खुशियाँ भी अपने साथ ले गईं। माँ, आप दुनिया में पहले आईं मैं बाद में आया। आपके हाथ बड़े-बड़े हैं मेरे छोटे-छोटे हैं। तुम्हें लिखने का जो अनुभव है वह मुझे नहीं। क्यों आशा करती हो कि मैं आपकी तरह मोती से अक्षर बनाऊँ। मुझे कुछ समय दो और अभ्यास करने दो।

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मैं एक-एक दिन उँगलियों पर गिनता रहता हूँ सोमवार, मंगल, बुध, ब्रहस्पति, शुक्र; शनिवार पर आकर रुक जाता हूँ। शनिवार को आपकी छुट्टी होती है। आज भी तो शनिवार है। आपके साथ बाहर घूमने जाऊँगा, अपनी मनपंसद आइसक्रीम खाऊँगा। खुशी के मारे हवा में उड़ा जा रहा हूँ। ओह यह क्या हुआ? आपकी तो किटी पार्टी निकल आई। आपको तो जाना ही पड़ेगा। लेकिन पार्टी तो 3 बजे से शुरू है। आप कहाँ हो? माँ-माँ....।
दिव्या से मालूम हुआ आप बाजार गई हो साड़ी खरीदने। साड़ी.....साड़ी से तो आपकी दो अलमारियाँ भरी पड़ी हैं। पापा ने एक बार टोक दिया था-‘जब भी कहीं जाती हो नई साड़ी खरीदती हो। एक साड़ी दो बार भी पहन सकती हो।’ आपने छूटते ही कहा-‘आप नहीं समझेंगे यह मेरी शान का सवाल है। फिर मैं कमाती हूँ तो अपने ऊपर खर्च भी कर सकती हूँ। आपको बुरा क्यों लगने लगा।’ पापा बहुत कम आपके मामले में बोलते हैं और बोलते हैं तो इसी तरह आप उन्हें चुप करा देती हो।
माँ, पापा भी तो धन कमाकर लाते हैं वे तो अपने पर कभी इतना खर्च नहीं करते हैं। वे सबका ध्यान रखते हैं और आप केवल अपना।
आप दो बजे लौटकर आईं। जल्दी-जल्दी तैयार होकर बोलीं-‘तुम्हें मिसेज सिन्हा के घर छोड़ देती हूँ। लौटते समय ले लूँगी।’
‘माँ, मैंने खाना भी नहीं खाया।’
‘क्यों नहीं खाया। एक दिन अपने आप खा लेता तो क्या हो जाता? दिव्या से ले लेता। अब तो वह चली गई। मुझे देर हो रही है। ऐसा कर बिस्कुट का पैकिट ले और आंटी के यहाँ खा लेना। आलू चिप्स भी हैं। पेट तो भर ही जायेगा।’
सिन्हा आंटी ने गर्म-गर्म फुल्के बना कर दिये। मैंने पेट भर कर खाया। वे बोली-‘खाने के समय बिस्कुट नहीं खाओ। बाद में खाना।’ उनकी बात ठीक लगी। मैं सो गया। सोकर उठा तो दूध का गिलास लिए खड़ी थीं। उनके प्यार में मैं नहा गया और गटगट दूध पी गया।
मैंने एक बार भी माँ को याद नहीं किया। जब तक आप नहीं आईं मैं सिन्हा आंटी के बेटे पप्पू के साथ खेलता रहा। आप आईं तो सोचा क्यों आ गईं और देर से आतीं तो अच्छा था?
घर पहुँचकर आपने मुझे दूध दिया। मेरे पेट में जगह ही नहीं थी। बड़े आश्चर्य से बोलीं-‘बिस्कुट खाने के बाद भूख नहीं लगी।’ ‘आंटी ने दाल रोटी खिलाई और दूध भी पिला दिया’, मेरे यह कहते ही आप गुस्सा हो उठीं।
‘नदीदा कहीं का, तुझे तो हम कुछ खाने को नहीं देते, टूट पड़ा भुख्खड़ की तरह सूखी रोटी पर। खाया तो खाया दूध भी पीकर आ गया। मिसेज सिन्हा भी क्या सोचती होगी हम तेरा ख्याल नहीं रखते।’
तुमने जितनी दुनिया देखी है उतनी मैंने नहीं। आप क्या सोचती हैं दूसरा क्या सोचता है मैं नहीं जानता। जो मेरा मन कहता है वह मैं कर लेता हूं। मुझे अपनी इच्छा के बारे में पहले से बता दिया करो मैं वही कर लिया करूंगा।


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यह दुनिया मुझे अद्भुत लगती है। रात में तारे चमकते देखकर मैं खुशी से खूब उछलता हूं। उन्हें पकड़ने की कोशिश करता हूं पर मेरे हाथ नहीं आते। दिन में तो न जाने वे कहाँ छिप जाते हैं। ढूँढते-दूँढते थक जाता हूँ। आपसे मैंने एक बार इनके बारे में पूछा भी था। हँसकर बोलीं-‘मैं फोन करके पूछ लूँगी वे कहाँ हैं?’ आज तक नहीं पूछा। पूछा भी होगा तो भूल गईं हो। स्कूल के बगीचे में लाल नीले पीले फूल खिले हैं। मैंने यह भी प्रश्न पूछा था आपसे-‘हम लाल पीले नीले क्यों नहीं होते?’ गम्भीरता से आपने जवाब दिया-‘इसका उत्तर तो भगवान ही दे सकते है। उसने ही हम सबको बनाया है। उसे भी फोन करना पड़ेगा।’
कुछ दिनों बाद मैंने फिर पूछा-‘माँ फोन किया था?’ ‘अरे फोन नहीं हो पाया। भगवान तो आकाश में रहते हें वहाँ की टेलीफोन लाइन खराब है।’
मुझे लगा मेरी बातों के लिए आपके पास समय नहीं। कुछ दिनों की ही बात है फिर तो मैं बड़ा हो जाऊँगा। जब तक छोटा हूं, मुझे अपना कुछ समय दे दो। दुनिया के रहस्य मेरे दिगाम में खलबली मचा देते हैं जो सोने नहीं देते। उनके बारे में बताकर मेरी जिज्ञासा शांत कर दो।


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माँ अक्सर आप सात बजे तक घर आ जाती है। आज तो रात के नौ बज गये। शायद आपके आफिस में मीटिंग थी। पापा टर्की गये हैं। आप भी बाहर, पापा भी बाहर। पापा यह नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते। एक महीने में 20 दिन अमेरिका, इटली न जाने कहाँ-कहाँ जाते रहते हैं। आपके पास मेरे लिए समय नहीं। पापा अवश्य मेरे साथ गप्पबाजी करेंगे। मुझे बाजार से मेरी इच्छा के जूते, टाफियाँ दिलायेंगे। एक बार आपने शायद पापा से कहा भी था-‘बाहर जाने से अच्छा है अपने देश की ही नौकरी।’
पापा तो भड़क उठे-‘तुम नौकरी क्यों नहीं छोड़ देती। घर को कुशलता से चलाना भी बहुत बड़ा काम है। तुम्हें कितना पैसा चाहिए? मैं दूँगा। घर को बर्बाद होने से बचा लो।’ पापा की आवाज रोनी सी हो गई थी। मैं बहुत घबरा गया। पापा से लिपट गया। पापा ने गोदी में लेकर मुझे चूम लिया। समझ में नहीं आया पापा मेरी तरह रोये रोये क्यों हो गये? वे तो मेरी तरह छोटे नहीं है फिर भी कोई बात मिलती है हम दोनों की।
समय काटे नहीं कट रहा है। हवा से पर्दा भी हिलता है तो लगता है आप आ गईं। टी0वी0 देखते देखते दस बार नींद के झोंके ले चुका हूँ। वीडियो गेम खेला, मनपसन्द चाकलेट, केक भी खा लिया। आलू चिप्स के तो दो पैकिट खत्म कर दिये। डिनर हो गया समझो। सोना भी चाहता हूँ और नहीं भी। नींद का समय है नींद तो आयेगी पर आपसे बात नहीं हो पायेगी। कितनी देर से आपका चेहरा देखने को तरस रहा हूँ। सुबह उठकर वही भागदौड़। काम की भागदौड़ नहीं रहती। आपके मोबाइल टेलीफोन की भागदौड़ रहती है। नानी से आप बहुत देर तक बातें करती हो। कभी सोचा आप मेरी माँ हो। मेरा दिल भी आपके सामने खुल जाना चाहता है। माँ की खुशबू चाहता है। चाहता हूँ आप मेरे बालों में अपनी सुन्दर उंगलियाँ घुमाओ और मैं गहरी नींद में खो जाऊँ। मुझे अलग कमरे में सुलाती हो ताकि स्वस्थ रहूँ। ठीक ही सोचती हो मगर इस मन का क्या करूँ। रात में नींद खुलने पर बाथरूम जाता हूँ। नींद उचट जाती है। डर लगता है। किसी कोने जंगली बिल्ली नजर आती है। कहीं साँप देखता हूँ। काश आपकी गोद में छिप जाता। एक दिन आपके कमरे का दरवाजा खड़खड़ा दिया था तो मुझे ऐसा दुत्कार दिया जैसे गली के कुत्ते को भगाते हैं। लगता है मन से जरूर बीमार हो जाऊँगा।


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आज रात मौसी-मौसा जी मिलने आये थे। मैं गुमसुम बैठा उनकी बातें सुन रहा था। मैंने सोचा मुझे भी कुछ कहना चाहिए वर्ना मौसी समझेगी मैं गूँगा हूँ। मैंने डरते-डरते कहा ‘मौसी आप एक बात बतायेंगी-हवाई जहाज जमीन पर भी दौड़ता है हवा में भी उड़ता है। चिड़िया धरती पर फुदकती है आकाश में उड़ती है, तितली फूलों पर बैठती है और पंख फैलाये उड़ान भरती है मैं केवल जमीन पर चलता हूं उनकी तरह उड़ क्यों नहीं सकता?’
‘बेटे, तुम्हारे पंख नहीं हैं’
‘क्यों नहीं हैं?’
‘कितनी बार कहा है बड़े जब बाते करें तो बीच में नहीं बोलना चाहिए। फालतू की बात मत करो और जाओ अपने कमरे में।’
बड़ी बेरहमी से माँ तुमने मेरा गला घोंट दिया। तुम मुझसे ज्यादा शक्तिशाली हो। मुझ कमजोर ने घुटने टेक दिये। आँसुओं को संभालता वहाँ से उठ गया। मेरा भी तो सबसे मिलने का मन करता है। सबके साथ हँसने को व्याकुल रहता हूँ। अनुशासन ही सिखाना है तो आप प्यार से समझा देतीं। इस तरह मेरा अपमान करने की क्या जरूरत है। मेरी भी कोई इज्जत है। छोटा हूँ तो क्या हुआ? महसूस तो उसी तरह से करता हूँ जैसे आप करती हैं। मैं आपसे अच्छा व्यवहार करूँ इसके लिए आपको भी शिष्ट होना पड़ेगा।

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दादी माँ बताती हैं कि आप रोज मंदिर जाती थीं। भगवान से कहती थीं कि मुझे एक गुड्डा चाहिए। उसने गुड्डे के रूप में मुझे भेज दिया। उस समय मेरे दाँत नहीं थे, चल-फिर नहीं सकता था। आप मुझे दूध पिलातीं, नहलातीं, गोदी में लिए लिए घूमतीं। धीरे-धीरे दाँत निकल आये, चलने-फिरने लगा। खाना भी खुद खा लेता हूं। पर मां यह सब धीरे-धीरे ही तो हुआ। अभी तो मुझे बहुत कुछ सीखना है। आपको धैर्य तो रखना ही पड़ेगा। क्यों जल्दी-जल्दी अपनी आवाज कड़वी कर लेती हो? लगता है मुझसे तंग आ गई हो, पर मेरा क्या कसूर? मैं खुद आपके पास नहीं आया बल्कि बुलाया गया। मैं तो भगवान का दिया उपहार हूँ। इसकी देखभाल तो करनी ही पड़ेगी। चाहे खुश होकर करो, चाहे दुखी होकर। खुश होकर करोगी तो मैं भी खुश रहूँगा। दुखी होकर करोगी तो मुरझा जाऊँगा। प्यार भरी छुअन, प्यार भरी निगाहें तो मैं शुरू से ही समझता हूँ।

H-702,
Spring Seeds,
17/20 Ambalipura Village,
Bellandur Gate, Sarjapura Road,
Bangalore PIN- 560102

ईदगाह

धरोहर कहानी / जुलाई-अक्टूबर 08
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प्रेमचन्द




रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आई है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात है। वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है। आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुर्ते में बटन नहीं है। पड़ोस के घर से सुई-तागा लाने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गये हैं, उनमें तेल डालने तेली के घर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैल को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगा। तीन कोस की पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना। दोपहर के पहले लौटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे। आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिन्ताओं से क्या प्रयोजन। सेवैयों के लिए दूध और शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवैयाँ खायेंगे। वे क्या जाने कि अब्बाजान क्यों बदहवास चैधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चैधरी आज आँखे बदल लें, तो वह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस-बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास, एक, दो, तीन, आठ नौ, पन्द्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगे- खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या? और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पांच साल का गरीब-सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता न चला क्या बीमारी है। कहती भी तो कौन सुनने वाला था। दिल पर जो बीतती थी वह दिल ही में सहती और जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है। और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपये कमाने गये हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं। इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है और फिर बच्चों की आशा। उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर में एक पुरानी-धुरानी टोपी; जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी तो वह दिल के अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा महमूद, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिनी अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन और उसके घर में दाना नहीं। आज आबिद होता तो क्या इसी तरह ईद आती और चली जाती। इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इन निगोड़ी ईद को। इस घर में उसका काम नहीं; लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब! उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनन्द-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है - तुम डरना नहीं अम्मां, मैं सबसे पहले जाऊँगा। बिलकुल न डरना।
अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है। उसे कैसे अकेले मेले जाने दे, उस भीड़-भाड़ में बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्हीं-सी जान, तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में लेगी; लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा। पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। माँगे ही का तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिये थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए। लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती। हामिद के लिए कुछ नहीं है तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्योहार। अल्लाह ही बेड़ा पार लगाए। धोबन और नाइन और मेहतरानी और चूड़िहारिन सभी तो आयेंगीं। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी की आँखों नहीं लगता। किस-किससे मुँह चुरायेगी और मुँह क्यों चुराए! साल भर का त्योहार है। जिन्दगी खैरियत से रहे, उसकी तकदीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, ये दिन भी कट जाएंगे।
गाँव से मेला चला और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सब-के सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इन्तजार करते। ये लोग क्यों इतना धीरे चल रहे हैं! हामिद के पैरों में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ों में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशाना लगाता है। माली अन्दर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फलांग पर है। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है। बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे। सब लड़के नहीं हैं जी। बड़े-बड़े आदमी हैं सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछें हैं, इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं; बिलकुल तीन कौड़ी के, रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे और क्या। क्लबघर में जादू होता है। सुना है यहाँ मुरदे की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अन्दर नहीं जाने देते। और यहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूंछो-दाढ़ी वाले और मेमें भी खेलती हैं सच। हमारी अम्मा को वह दे दो, क्या नाम है, बैट तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क न जाएँ।
महमूद ने कहा-हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।
मोहसिन बोला-चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेंगी तो हाथ काँपने लगेंगे। सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती है। पाँच घड़े तो भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़ा तो आँखों तले अंधेरा आ जाए।
महमूद-लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकती।
मोहसिन-हाँ, उछल-कूद नहीं सकती, लेकन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चैधरी के खेत में जा पड़ी थी, तो अम्मा इतनी तेज दौड़ी कि मैं उन्हें पा न सका सच।
आगे चले। हलवाइयों की दुकाने शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न एक-एक दुकान पर मनों होगीं। सुना है रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है वह तुलवा लेता है और सचमुच रुपये देता है, बिलकुल ऐसे ही रुपये।
हामिद को यकीन न आया-ऐसे रुपये जिन्नात को कहाँ से मिल जाऐंगे!
मोहसिन ने कहा-जिन्नात को रुपये की क्या कमी। जिस खजाने में चाहें, चले जायें। लोहे के दरबाजे इन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहिरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहिरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुच जाएँ।
हामिद ने फिर पूछा-जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते होंगे।
मोहसिन-एक-एक आसमान के बराबर होता है जी, जमीन पर खड़ा हो जाये तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाये।
हामिद-लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे वह मन्तर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूं।
मोहसिन-अब यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन चैधरी साहब के काबू में बहुत जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाये, चैधरी साहब उसका पता लगा देंगे और चोर का नाम भी बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुये, कहीं न मिला। तब झक मारकर चैधरी के पास गये। चैधरी ने तुरन्त बता दिया कि मवेशीखाने में है, और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
अब उसकी समझ में आ गया कि चैधरी के पास क्यों इतना धन है, और क्यों उनका इतना सम्मान है।
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यही सब कानिस्टबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाम को! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जाएँ।
मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिस्टबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो। अजी हजरत यही चोरी कराते हैं। शहर के जितने चोर डाकू हैं, सब इनसे मिलते हैं, रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं कि चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं। जभी इन लोगों के पास इतने रुपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिस्टबिल हैं। बीस रुपये महीने पाते हैं; लेकिन पचास रुपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम। मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रुपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे-बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले-हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाएँ। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाये।
हामिद ने पूछा-यह लोग चोरी करवाते हैं तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं? मोहिसन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- अरे पागल, इन्हें कौन पकड़ेगा। पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं लेकिन अल्लाह इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर आग लग गई। सारी लेई-पूंजी जल गई। एक बर्तन न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे। फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाए तो बर्तन-भाड़े आये।
हामिद-एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं।
‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है सौ तो दो थैलियों में भी न आएँ।’
अब बस्ती घनी होने लगी थी। ईदगाह जाने वालों की टोलियाँ नजर आने लगीं। एक-से-एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तांगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल, अपनी विपन्नता से बेखबर, संतोष और धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थी। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
सहसा, ईदगाह नगर आया। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजिम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहां तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजिम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था। लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, और फिर सब-के-सब एक साथ खड़े हो जाते हैं। एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनन्तता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानन्द से भर देती थीं। मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।
नमाज खत्म हो गई है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दुकानों पर धावा होता है। ग्रामीणों का वह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है। एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होंगे, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट छड़ों से लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन नूरे और सम्मी इन घोड़ों और ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक-तिहाई, जरा-सा चक्कर खाने के लिए, वह नहीं दे सकता।
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दुकानों की कतार लगी हुई है। तरह तरह के खिलौने हैं-सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधू। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं! अब बोलना ही चाहते हैं। अहमद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ी वाला कन्धे पर बन्दूक रखे हुए। मालूम होता है, अभी कवायद किये चला जा रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई, ऊपर मशक रखे हुए, मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है। शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक में पानी उड़ेलना चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्धता है उसके मुख पर। काला चोगा, नीचे सफेद अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिए हुए है। मालूम होता है, अभी किसी अदालत में जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे में खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने मंहगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग धुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के?
मोहसिन कहता है-मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा, सांझ सबेरे।
महमूद-और मेरा सिपाही घर पर पहरा देगा। कोई चोर आयेगा, तो फौरन बन्दूक से फैर कर देगा।
नूरे-और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
सम्मी-और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।
हामिद खिलौने की निन्दा करता है-मिट्टी के ही तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ। लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते, विषेशकर जब अभी नया शौक हो। हामिद ललचाता रह जाता है।
खिलौनों के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन, किसी ने सोहनहलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई आँखों से सबकी ओर देखता है।
मोहसिन कहता है-हामिद, रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार हैं।
हामिद को संदेह हुआ, यह केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है; लेकिन यह जानकर भी उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
मोहसिन-अच्छा, अब की जरूर देंगे हामिद, अल्ला कसम ले जा।
हामिद-रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?
सम्मी-तीन ही तो पैसे हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?
अहमद-हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहसिन बदमाश है।
हामिद-मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
मोहसिन-लेकिन दिल में कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
महमूद-हम समझते हैं इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खाएगा।
मिठाइयों के बाद कुछ दुकानें लोहे की चीजों की हैं, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं। हामिद लोहे की दुकान पर रुक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती है तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होगी। फिर उनकी उँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में काम की चीज हो जायेगी। खिलौनों से क्या फायदा। व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। ये तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हे में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मा बेचारी को कहाँ फुसरत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं। रोज हाथ जला लेती हैं। हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते हैं मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूँछूँगा। खाएँ मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा फोड़े फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जवान चटोरी हो जायेगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जवान क्यों खराब होगी! अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथों से ले लेगी और कहेगी-मेरा बच्चा अम्मा के लिए चिमटा लाया है। हजारों दुआयें देगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी। सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी, हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा। बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरन्त सुनी जाती है। मेरे पास पैसे नहीं है। तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं। मैं भी इनको मिजाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खाएँ मिठाइयाँ। मैं नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूँ। मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बा जान कभी-न-कभी आयेंगे। अम्मां भी आयेगी। फिर इन लोगों से पूँछूँगा। कितने खिलौने लोगे! एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह सलूक किया जाता है। यह नहीं कि पैसे की रेवड़ियाँ लो तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सब-के-सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसे मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा-यह चिमटा कितने का है।
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा-यह तुम्हारे काम का नहीं है जी!
‘बिकाऊ है कि नहीं!’
‘बिकाऊ क्यों नहीं! और यहाँ क्यों लाद लाए हैं?’
‘तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
‘छः पैसे लगेगे।’
हामिद का दिल बैठ गया।
‘ठीक-ठीक बताओ।’
‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो?’
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा-‘तीन पैसे लोगे।’
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुनें। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दीं। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बन्दूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सब-के-सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं।
मोहसिन ने हँसकर कहा-यह चिमटा क्यों लाया पगले! इसे क्या करेगा!
हामिद ने चिमटे को पटककर कहा-जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायें बच्चा की!
महमूद बोला-यह चिमटा कोई खिलौना है?
हामिद-खिलौना क्यों नहीं है? अभी कंधे पर रखा, बन्दूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ तो तुम लोगों के सारे खिलौने की जान निकल जाये। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाएँ, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नहीं कर सकते। मेरा बहादुर शेर है-चिमटा।
सम्मी ने खंजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला-मेरी खंजरी से बदलोगे। दो आने की है।
हामिद ने खंजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खंजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, डब-डब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया। लेकिन अब पैसे किसके पास धरे हैं फिर मेले से दूर निकल आए हैं, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमूद, सम्मी और नूरे एक तरफ है, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो गया है। सम्मी तो विधर्मी हो गया। दूसरे पक्ष में जा मिला; लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है; वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए, तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायें, मियाँ सिपाही मिट्टी की बन्दूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जाएँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर रुस्तमे-हिन्द लपककर शेर की गर्दन पर सवार हो जायेगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।
मोहसिन ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर कहा-अच्छा पानी तो नहीं भर सकता।
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा-भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई-अगर बच्चा पकड़ जाये तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के ही पैरों पड़ेंगे।
हामिद इस प्रबल तर्क का जबाव न दे सका। उसने पूछा-हमें पकड़ने कौन आयेगा?
नूरे ने अकड़कर कहा-यह सिपाही बन्दूक वाला।
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा-ये बेचारे हम बहादुर रुस्तमे-हिन्द को पकड़ेगे? अच्छा लाओ; अभी जरा कुश्ती हो जाये। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगे क्या बेचारे।
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई-तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग से जलेगा।
उसने समझा था कि हामिद लाजबाव हो जायेगा लेकिन यह बात न हुई हामिद ने तुरन्त जबाव दिया-आग में बहादुर ही कूदते हैं। जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लेडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है जो रुस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
महमूद ने एक जोर और लगाया-वकील साहब कुर्सी-मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबर्चीखाने में पड़ा रहेगा।
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया। कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने। चिमटा बाबर्चीखाने में पड़े रहने के सिवा और क्या कर सकता है।
हामिद को कोई फड़कता हुआ जबाव न सुझा तो उसने धाँधली शुरू की-मेरा चिमटा बाबर्चीखाने में नहीं रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।
बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए। मानों कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट कर गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसका पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रुस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद, नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
विजेता को हारने वालों से जो सत्कार मिलना स्वाभाविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किये पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है खिलौने का क्या भरोसा? टूट-फूट जायेंगे। हामिद का चिमटा बना रहेगा, बरसों।
सन्धि की शर्ते तय होने लगी। मोहसिन ने कहा-जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें, तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।
हामिद को इन शर्तों के मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे-मैं तुम्हें चिढ़ा रहा था, सच। यह लोहे का चिमटा भला इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से सन्तोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
मोहसिन-लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा!
महमूद-दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मा जरूर कहेगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने तुम्हें मिले! हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौने को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होगी जितनी दादी चिमटे को देखकर होगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था और उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रुस्तमे-हिन्द है और सभी खिलौनों का बादशाह।
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद था।
ग्यारह बजे सारे गाँव में हलचल मच गई। मेले वाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहिन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जो उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर बहन-भाई में मारपीट हुई। दोनों खूब रोये। उनकी अम्मां यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।
मियाँ नूरे के वकील का अन्त उसके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में दो खूटियाँ गाड़ी गई, उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की पट्या और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो? कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायेगी कि नहीं। बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया। बड़े जोर-जोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया। लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो था नहीं, जो अपने पैरो चले। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उसके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरफ से ‘छोने वाले जागते रहो’ पुकारते हैं। मगर रात तो अंधेरी होनी ही चाहिए; महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिए जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है। महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिल गया है, जिसमें वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जोड़ दी जाती है, लेकिन सिपाही को ज्यों ही खड़ा किया जाता है, टाँग जबाव दे देती है। शल्यक्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टांग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टांग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपान्तर चाहो, कर सकते हो, कभी-कभी तो उससे वाट का काम भी लिया जाता है।
अब मियाँ हमीद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चैकी-‘यह चिमटा कहाँ था?’
‘मैंने मोल लिया है।’
‘कै पैसे में?’
‘तीन पैसे दिये।’
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा। सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?
हामिद ने अपराधी भाव से कहा-तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं इसलिए मैंने इसे लिया।
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्गद हो गया।
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई-हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

दोहा छन्द का भेदपरक अध्ययन


शोध आलेख / जुलाई-अक्टूबर 08
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प्रवीण कुमार ‘उजाला’



दोहा छन्द अर्धसम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा छन्द ने काव्य साहित्य के प्रत्येक काल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दी काव्य जगत में दोहा छन्द का एक विशेष महत्व है। दोहे के माध्यम से प्राचीन काव्यकारों ने नीतिपरक उद्भावनायें बड़े ही सटीक माध्यम से की हैं। दोहा छन्द के भेद का वर्णन इस प्रकार है-
(1) भ्रमर - 22 गुरु 4 लघु, कुल 26 वर्ण
‘‘सीता सीतानाथ को, गावौ आठौ जाम।
सव्र्वोच्छा पूरी करैं, औ देवैं विश्राम।’’1
(2) भ्रामर - 21 गुरु 6 लघु, कुल 27 वर्ण
‘‘माधो मेरे ही बसो, राखो मेरी लाज।
कामी क्रोधी लपटी, जानि न छांड़ो काज।’’2
(3) सरभ - 20 गुरु 8 लघु, कुल 28 वर्ण
‘‘हर से दानी कहुं नहीं, दीन्हें केते दान।
कैसे को भाषै तिन्हें, बानी एकै जान।’’3
(4) श्येन/सेन - 19 गुरु 10 लघु, कुल 29 वर्ण
‘‘चंदन, बेला, मौलिश्री, नाभि न लहे कुरंग।
सोंधी सोंधी गंध जो, लोने लोने अंग।’’4
(5) मंडूक - 18 गुरु 12 लघु, कुल 30 वर्ण
‘‘कैसी ऋतु कैसी हवा, बौरे आम बबूल।
कहीं डोलते शूल हैं, कहीं फूलते फूल।’’5
(6) मर्कट - 17 गुरु 14 लघु, कुल 31 वर्ण
‘‘तेरे मेरे प्यार का आज मचा है शोर।
हुआ जागरण चतुर्दिक देख नवेली भोर।’’6
(7) करभ - 16 गुरु 16 लघु, कुल 32 वर्ण
‘‘तुम आत्मा हर देह की, मन के जाननहार।
भूतात्मा कहता तुम्हें, इसीलिये संसार।’’7
(8) नर - 15 गुरु 18 लघु, कुल 33 वर्ण
‘‘डूब रहा जग जलधि में, कैसे पाऊँ कूल।
अर्पित युग पद पù में, यह पूजा के फूल।’’8
(9) मराल/हंस - 14 गुरु 20 लघु, कुल 34 वर्ण
‘‘तुम उलूक बैठे फिरौ, महिलन त्याग कुटीर।
तेरे हिय उपजै कहा, या गरीब की पीर।’’9
(10) मदकल - 13 गुरु 22 लघु, कुल 35 वर्ण
‘‘पालन पोषणहार तुम, लिये सत्व गुण साथ।
अतः ‘भूतभृत्’ नाम है, तब पुराण विख्यात।’’10
(11) पयोधर - 12 गुरु 24 लघु, कुल 36 वर्ण
‘‘तरुणाई पर निज तनिक, मतकर आज गरूर।
धीरे-धीरे उड़ रहा, टिकिया बना कपूर।’’11
(12) चल - 11 गुरु 26 लघु, कुल 37 वर्ण
‘‘पवन संचरण मंद है, सोंधी शीतल गंध।
पनघट-पनघट हो रहे, केसरिया अनुबंध।’’12
(13) वानर - 10 गुरु 28 लघु, कुल 38 वर्ण
‘‘चरण युगल चिन्ता हरण, सकल विभव सुख मूल।
ध्यान धरे जो हो अभय, मिटें ताप त्रय शूल।’’13
(14) त्रिकल - 9 गुरु 30 लघु, कुल 39 वर्ण
‘‘मेंटत विधि के अंक सब, दुख दारित छन माँहि।
सब भरोस तज, गुरु शरण, जो जन निश्छल आँहि।’’14
(15) कच्छ - 8 गुरु 32 लघु, कुल 40 वर्ण
‘‘श्री गुरु के पद कंज युग, भव वारिधि जलयान।
सुमिरि सुमिरि नर तरहिं भव होय तुरत कल्यान।’’15
(16) मच्छ - 7 गुरु 34 लघु, कुल 41 वर्ण
‘‘दीन वचन शुचि नम्रता निश्छल हृदय विशाल।
कमल पत्र-वत् रहत जग, सद्गुरु भक्त दयाल।’’16
(17) शार्दूल - 6 गुरु 36 लघु, कुल 42 वर्ण
‘‘वंदौ पद धरि धरणि शिर, विनय करहुं कर जोरि।
वरणहु रघुवर विशद यश, श्रुति सिघातं निचोरि।’’17
(18) अहिवर - 5 गुरु 38 लघु, कुल 43 वर्ण
‘‘कनक मरण तन मृदुल अति, कुसुम सरिस दरसात
लखि हरि दृग रस छकि रहे, सिरसाई सब बात।’’18
(19) व्याल - 4 गुरु 40 लघु, कुल 44 वर्ण
‘‘हम सन अधम न जग अहै, तुम सन प्रभु नहिं धीर।
चरन सरभ इहि उर गह्यो, हरहु सु हरि भव पीर।’’19
(20) विडाल - 3 गुरु 42 लघु, कुल 45 वर्ण
‘‘विरह सुमिरि सुधि करत नित, हरि तुव चरन निहार।
यह भष जलनिधि तें तुरत, कब प्रभु करिहहु पार।’’20
(21) सुनक/श्वान - 2 गुरु 44 लघु, कुल 46 वर्ण
‘‘तषु गुन अहिपति रटत नित, लहि न सकत तुव अंत।
जग जन तुल पद सरन गहि, किमि गुमि लकहिं अनंत।’’21
(22) इंदुर/उदर - 1 गुरु 46 लघु, कुल 47 वर्ण
‘‘कलुषहरण भवभयहरण, सदा सुजन सुख अयन।
नमहित हरि सुरपुर तजत, धनि धनि सरसिज नयन।’’22
(23) सर्प - सर्व लघु, कुल 48 वर्ण
‘‘अरुण चरण कलिमल हरण, भजतहिं रह कछु भयन।
जिनहिं नषत सुर मुनि सकल, किन भज पयनिधि सयन।’’23
सपुच्छ दोहा - यह सपुच्छ दोहा नामक विषम छन्द, 58, 59, 60, 61 मात्राओं का होता है। दोहे के अन्त में 10, 11, 12, 13 मात्रा का एक पुच्छ संलग्नक जोड़ दिया जाता है।
उदाहरण - 10 मात्रा का पुच्छ
‘‘विमल ज्ञान दाता सुगुरु, करूँ तव चरण ध्यान।
हनुमत पच्चीसी लिखूँ, राम मिलन विज्ञान -
रसायन भक्ति का।’’24
उदाहरण - 11 मात्रा का पुच्छ
‘‘कुरस खड़ी बोली कथन, सरस हृदय की बात।
तुम ही लिखना राम जी, मेरी कहाँ विसात -
सभी बला थक चुके।’’25
उदाहरण - 12 मात्रा का पुच्छ
‘‘जीवन के संघर्ष में जो देता है साथ।
हरीश्याम ’माया’ वही जगन्नाथ है हाथ -
सदा जो साथी संग।’’26
उदाहरण - 13 मात्रा का पुच्छ
‘‘जीवन के संघर्ष में जो देता है साथ।
हरीश्याम ’माया’ वही जगन्नाथ है हाथ -
सदा का साथी संगी।’’27
दोही (मात्रिकार्द्धसम) - इस छन्द के चारों चरण मिलाकर 52 मात्राएँ होती हैं। इसके विषम चरण (1 व 3) में 15 मात्राओं वाले एवं सम (2 व 4) 11 मात्राओं के होते है। अन्त में दोहे की भाँति लघु (।) वर्ण अनिवार्य है।
‘‘जगत नारि जीवन अति दुखी, है विचित्र संसार।
जन्म मिला जिसके उदर से, उस पर अत्याचार।।’’28
दोहा चण्डालिनी - यह दोहे की भाँति लिखा जाता है किन्तु जिस दोहे के प्रथम और तृतीय चरण में से किसी एक जगह जगण (।ऽ।) शब्द आ जाये तो वह दोहा चण्डालिनी होता है।
‘‘अजीत कोई वीर हो, टूट हृदय उदार।
हारा ही वह मान्य है, क्यों कि गया मन हार।’’29
दोहकीय (समभागवत) - 13, 13 मात्राओं के चार चरण तथा सम चरणों (2 व 4) के अन्त में गुरु लघु (ऽ।) वर्ण होने का अनिवार्य नियम है।
‘‘कविजन कोविद जन सभी, जो होते दिव्य चरित्र।
केवल उनका सृजन ही है, जग समाज का मित्र।’’30
दोहरा मात्रिकार्द्धसम - इसके चारों चरण में 46 या 47 मात्राएँ होती हैं। इसके प्रथम विषम में तो कभी तृतीय विषम में तो कभी प्रथम व तृतीय दोनों ही विषम चरणों में 12, 12 मात्राएँ होती हैं। सम चरणों में 11, 11 मात्राएँ होती हैं।
‘‘देखा एक सपेरा, पाले अनगिन नाग।
सब को वश में राखे, द्वेषादिक अरु राम।।’’31
विदोहा (मात्रिकाद्धसम) - इसके विषम चरणों (1 व 3) में 13, 13 मात्राएँ और सम चरणों (2 व 4) में 10, 10 मात्राएँ, कुल मात्राएँ 46 होती हैं। चरणान्त में लघु वर्ण नहीं होता है किन्तु गुरु वर्ण अनिवार्य होता है,
‘‘राम नाम जिसने लिया, दुख सुख उसे कहाँ।
बस्ती विजन कहीं रहे, सुख सम उसे वहाँ।।’’32

सन्दर्भ ग्रंथ सूची –
1- छन्द प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद भानु, पृ0 87
2- तदैव, पृ0 87
3- तदैव, पृ0 87
4- मौन की अर्गला, ओम नारायण चतुर्वेदी मंजुल, पृ0 16
5- तदैव, पृ0 16
6- आरजू (त्रैमासिक) अर्श अमृतसरी, अंक 2, 3 वर्ष 3, पृ0 17
7- नित्य पाठ्य स्त्रोत एवं पावन रूपान्तरण, मायाहरीश्याम पारथ, पृ0 36
8- पूजा के फूल, रामस्वरूप खरे, पृ0 1
9- मौन की अर्गला, ओम नारायण चतुर्वेदी मंजुल, पृ0 16
10- नित्य पाठ्य स्त्रोत एवं पावन रूपान्तरण, मायाहरीश्याम पारथ, पृ0 36
11- मौन की अर्गला, ओम नारायण चतुर्वेदी मंजुल, पृ0 16
12- तदैव, पृ0 16
13- पूजा के फूल, रामस्वरूप खरे, पृ0 2
14- तदैव, पृ0 21
15- तदैव, पृ0 2
16- तदैव, पृ0 13
17- छन्द प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद भानु, पृ0 88
18, 19, 20, 21, 22, 23 - तदैव, पृ0 89
24- नित्य पाठ्य स्त्रोत एवं पावन रूपान्तरण, मायाहरीश्याम पारथ, पृ0 10
25- तदैव, पृ0 10
26- छन्द माया (अप्रकाशित) माया हरीश्याम पारथ
27, 28, 29, 30, 31, 32 तदैव


शोध छात्र हिन्दी साहित्य,
सुशील नगर,
उरई (जालौन) पिन-285001

सच्चे साथी

कहानी / जुलाई-अक्टूबर 08
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कुसुमांजलि शर्मा





राजनगर के एक छोटे से घर में राघव अपनी बूढ़ी दादी के साथ रहता था। बहुत वर्षों पहले जब छोटा था, उसके माता-पिता प्लेग की बीमारी से मर गये थे। उसका एक मात्र सहारा उसकी बूढ़ी दादी थी। दादी गाँव में किसानों के घरों में मजदूरी करके अनाज का इन्तजाम कर लेती थी। झोपड़ी के चारों तरफ जो जमीन थी उस पर उसने फल के पेड़ व सब्जियों के पौधे लगा रखे थे। वह पेड़ पौधों की प्यार से देखभाल करती थी। उन्हें खाद पानी समय पर देती थी। फलों व सब्जियों को वह अपने मुहल्ला पड़ोस में बेचकर थोड़े रुपये भी कमा लेती थी परन्तु उसका खर्च इतनी कम आमदनी से पूरा नहीं होता था। उसे एक बात का भी दुःख था कि अपने पोते रघु को वह घी, दूध बिल्कुल नहीं दे पाती।
उसका पोता रघु जवान हो गया था। वह अपनी बूढ़ी दादी की परेशानियों को देखकर दुखी होता था। वह चाहता था कि वह दादी को अब आराम दे। दिन भर बेचारी मेहनत करती हैं, फिकर के कारण रात को ठीक से सोती भी नहीं है। मैं जवान लड़का हूँ, मुझे मेहनत करनी चाहिए परन्तु मुझे कौन देगा काम? वह चाहता था गाँव में रहकर पढ़े और काम भी करे जिससे नियमित आमदनी होने लगे। जब उसे गाँव में काम नहीं मिला तो उसने शहर जाने का विचार किया। वह रोज शहर जाने का प्रोग्राम बनाता, रोज उसकी बूढ़ी दादी उसे रोक लेती थी, तुझे अपने गाँव में ही काम मिल जायेगा। ‘‘कहाँ?’’ वह पूछता था ‘‘कौन देगा मुझे काम?’’ दादी बोली अपने गाँव के पटेल के पास बहुत जमीन है, वही तुझे कोई काम देगा।’’ एक दिन उसने रघु को पटेल के घर भेजा। पटेल अपने घर के आँगन में आराम से कुर्सी पर बैठा दो चार लोगों से बतिया रहा था। रघु ने उसे प्रणाम किया और खड़ा हो गया। पूरे दस मिनट तक वह गाँव वालों से बातें करता रहा। उनके जाने के बाद उसने रघु की ओर देखकर पूछा-‘‘क्या नाम है तुम्हारा?’’ ‘‘रघु’’ ‘‘हाँ याद आया, रघु ही बताया था तुम्हारी दादी ने।’’ पटेल ने पाँच मिनट चुप रहकर पुनः पूछा ‘‘क्या करोगे? मेरा मतलब है तुम्हें कौन सा काम पसन्द है?’’ रघु ने फट से उत्तर दिया ‘‘कोई काम सब काम कर लूँगा।’’ पटेल ने पूछा-‘‘कितना पढ़े हो?’’ ‘‘जी इण्टर पास हूँ’’-रघु ने बताया। पटेल बोला-‘‘ठीक है मेरे खेतों में जो मजदूर काम करते हैं तुम उनका हिसाब रखोगे। रोज शाम को तुम मुझे बताओगे कि किसने कितना काम किया? किसकी कितनी दिहाड़ी बनी। कर सकोगे ये काम?’’ रघु बोला-‘‘कर लूँगा। कब से करना होगा मुझे काम?’’ ‘‘अरे भाई कल से आ जाओ।’’ पटेल बोला। रघु उन्हें प्रणाम करके अपने घर लौट आया। घर आकर रघु ने अपनी दादी से कहा-‘‘दादी, काम तो पटेल ने दे दिया है लेकिन उसने यह नहीं बताया कि वह मुझे काम के बदले कितने रुपये देगा।’’ दादी ने उसे समझाया-‘‘तू रुपये की चिंता मत कर। पटेल अगर रुपये नहीं देगा तो नाज पानी देगा। हमारे लिए वही बहुत है।’’ रघु को दादी की बात पसन्द नहीं आई। वह काम के बदले नाज पाना नहीं बल्कि रुपये चाहता था।
दूसरे दिन से रघु काम पर जाने लगा परन्तु उसे अपना काम पसन्द नहीं आया। दस बारह घंटे प्रति दिन वह काम करता था। मजदूरों की हाजिरी लेकर उनके काम पर भी नजर रखता था। शाम को पटेल के घर जाकर दिनभर के काम की रिपोर्ट देता था। पटेल उसका हिसाब सही होने पर भी मजदूरों की मजदूरी के रुपये काट लेता था। इससे रघु को बहुत दुख होता था। इससे तंग आकर उसने पटेल का काम छोड़ दिया। उसने दादी से साफ-साफ कह दिया-‘‘दादी मैं शहर जरूर जाऊँगा। तुम मेरी चिन्ता मत करो। जवान लड़का हूँ, शहर में रहकर पढ़ूगा तथा कुछ रुपये भी कमा कर तुम्हारे खर्च पानी के लिए भी भेज सकूँगा।’’ रघु की जिद के सामने दादी को झुकना पड़ा। उसने रघु को सौ रुपये कहीं से लाकर दिये। नाश्ते के लिए थोड़ी रोटियाँ भी पोटली में बाँध दीं। चलने के पहले रघु ने दादी के पैर छूकर कहा-‘‘दादी तुम अपना ख्याल रखना। मैं तुम्हारे लिए जल्दी से रुपये भेजूँगा, उन रुपयों से तुम अपना खर्च चलाना।’’ दादी ने भीगी आँखों से उसे आशीर्वाद दिया।
रघु के जाने के बाद दादी उदास व अकेली हो गयी। उसने अपना मन बहलाने के लिए अपने पेड़ पौधों की सेवा में मन लगाया। कई नये पौध भी लगाये। उसके बगीचे में पेड़ों पर तोते, नीलकंठ, रंग बिरंगी चिड़ियाँ और मोर घोंसले बना कर रहते थे। वे जब आपस में लड़ते बोलते थे तो दादी को मजा आता था। दादी उनके स्वभाव व बोली को समझने लगी थी। वे सब उसके आस-पास निर्भीक होकर फुदकते एवं उसके हाथों पर बैठकर दाना चुगते, कन्धां पर बैठकर खेलते थे। कुछ दिनों बाद दादी के बगीचे में कही से एक बन्दर परिवार भी पीपल के पेड़ पर आकर रहने लगा। वह शुरू-शुरू में तो बन्दर के बच्चों के कारण परेशान होती थी। वे कच्चे फल तोड़कर जमीन पर फेंक देते थे। दादी ने दो चार बार उनको पके फल अपने हाथ से दिये। दादी का प्यार देखकर उन्होंने फल बर्बाद करने बन्द कर दिये।
रघु शहर में पहले बहुत परेशान हुआ। शहर का कोई आदमी उसे नहीं जानता था सो उसे कोई काम नहीं देता था। उसे रुपयों के अभाव के कारण कई बार रात को बिना खाना खाये सोना पड़ा। रात को वह किसी दुकान के चबूतरे या बेंच पर सो जाता था। बहुत कोशिश के बाद वह एक अमीर परिवार में रात का चैकीदार बन गया। वहीं उसे रहने के लिए एक कोठरी भी मिल गयी। रघु बहुत मेहनत से रात को अपनी ड्यूटी करता था और दिन में कालेज में पढ़ने जाने लगा। उसने दो महीने पश्चात रुपये बचाकर अपनी दादी को सौ रुपये मनीआर्डर से भेज दिये। उसने दादी को चिट्ठी लिख दी कि वह शहर में आराम से है। रुपये तथा चिट्ठी पाकर दादी बहुत प्रसन्न हुई। उसने पक्षियों का मन पसन्द दाना और बन्दर परिवार के लिए केले खरीदे। उसने कहा-‘‘रघु की नौकरी लग गयी है, लो तुम भी मेरे बेटे की कमाई का सुख लो।’’ जब पक्षियों ने दाना चुगा और बन्दरों ने केले खाये तो दादी को बड़ा मजा आया।
रघु दिन में कालेज जाकर पढ़ता और रात में अपनी ड्यूटी करता था। तनख्वाह मिलते ही दादी के नाम कुछ रुपये मनीआर्डर से भेज देता था। वह उसे चिट्ठी में लिखता था कि रोज दूध पिया करे, मेहनत मजदूरी छोड़कर घर में आराम से रहे और पेड़ पौधों की देखभाल करें। दादी अपने बगीचे में किसी पेड़ के नीचे बैठकर रघु की चिट्ठी जोर-जोर से पढ़कर अपने जंगली मित्रों को सुनाती थी। वे लोग खुश होकर उछलकूद करते थे, उसे घेर कर बैठ जाते थे। दादी उसे गाँव के किसी पढ़े-लिखे लड़के से चिट्ठी लिखवा कर भेजती थी। अपनी हर चिट्ठी में वह अपने मित्रों के बारे में लिखती थी। दादी ने उसे चिट्ठी में एक बार लिखा कि बन्दरिया का छोटा बच्चा कहीं भाग गया है, सो वह बहुत दुखी है। इस पर रघु को बहुत हँसी आई। उधर रघु को भी अपनी दादी बहुत याद आती थी। वह सोचता था कि दादी ने मजदूरी करना अब बन्द कर दिया होगा। दादी की याद आने पर वह अपने मन में समय का हिसाब लगाकर सोचता था कि मैं जल्दी अपने गाँव जाऊँगा दादी से मिलूँगा। बस परीक्षा खत्म होते ही जाऊँगा, दादी के लिए ढेर से रुपये लेकर।
रघु की परीक्षा समाप्त हो गई तब उसने अपने मालिक से कहा, ‘‘मालिक अगर आप हाँ कर दें तो मैं गाँव जाकर अपनी दादी से मिल आऊँ।’’ मालिक ने कहा, ‘‘चले जाओ, लेकिन जल्दी लौटना। हमें तुम्हारे बिना बहुत परेशानी होगी।’’ रघु ने गाँव जाने से पहले दादी के लिए कपड़े व खाने का सामान खरीदा। शाम को घर पहुँचते ही उसने दादी के पैर छुए और सामान का थैला उसे दे दिया। कुछ देर बाद रघु गाँव में अपने दोस्तों से मिलने के लिए चला गया। दादी ने खाना बनाकर सामान का थैला देखा और अपने मित्रों से कहा, ‘‘रघु शहर से खूब केले व अमरूद लाया है, कल मिलकर खायेंगे।’’
अगले दिन रघु ने थैले से चार केले निकाले और आँगन में बैठकर कहा,‘‘दादी आओ अपन यहाँ केले खायें।’’ दादी ने चैके में से उत्तर दिया ‘‘तू खा ले, मैं तेरे लिए खीर बना रही हूँ। बाद में खा लूँगी।’’ रघु ने आँगन में बैठकर जैसे ही केला छीला पेड़ पर खेलते बन्दर के बच्चे ने झपट कर उसके हाथ से केला छीन लिया। रघु को बहुत गुस्सा आया, वह एक मोटा डंडा लेकर उसे मारने दौड़ा। उसके हाथ में डंडा देखकर बन्दर परिवार के सभी सदस्य पेड़ की ऊँची डाल पर चढ़कर गुस्से से कूदने और चीखने लगे। डालियों पर बैठे पक्षी बन्दरों की खों-खों से डर कर आकाश में गोल-गोल उड़ने लगे। रघु डंडे को बरामदे में छोड़कर चैके में चला गया। वह आराम से दादी की बनाई खीर खाने लगा। दादी को कुछ पता नहीं चला। बहुत देर बाद वह अपना काम खत्म करके बगीचे में केले लेकर आई। उसने पक्षियों के लिए दाना डाला, बन्दरों को बुलाया उसकी आवाज सुनकर भी पक्षी और बन्दर नीचे नहीं आये। बन्दर तो उसे देखकर ऊँची डाल पर बैठकर खों-खों करने लगे। दादी को बहुत आश्चर्य हुआ।
दादी दिन भर काम में जुटी रही। वह मजदूरी करने भी गयी परन्तु उदास रही। अपने मित्रों की उपेक्षा का कारण वह नहीं जान सकी। वह सोचती कि ये लोग मेरे साथ हँसते खेलते क्यों नहीं। मेरे सुख-दुख के साथ आज इतने पराये क्यों हैं? दिन समाप्त हो गया, वह दुखी मन से चैके में रात का खाना बनाने लगी। रघु हाथ पैर धोकर खाना खाने बैठा। जिद करके दादी को भी अपने साथ खाना खाने के लिए बैठा लिया। खाना खाते समय वह दादी से बोला,‘‘दादी अपने पेड़ों पर कई बन्दरों ने अड्डा जमा लिया है। बहुत सारे पक्षी भी पेड़ों पर रहते हैं, ये लोग फलों को खाते बिगाड़ते हैं, तुमने देखा नहीं दादी वे हमारा कितना नुकसान करते हैं।’’ दादी खामोश रही तो वह पुनः बोला,‘‘तुम डरो नहीं दादी मैं इन सबको देख लूँगा।’’ दादी को रघु की यह चेतावनी अच्छी नहीं लगी। उसने सोचा सुबह मैं इसे सब समझा दूँगी।
सुबह दादी की नींद शोर सुनकर खुल गयी, देखा रघु मोटा डंडा लेकर बन्दरों को दौड़ा रहा है। बन्दर चिल्लाते हुए पेड़ की ऊँची डालियों पर कूद रहे हैं। वह रघु के हाथ में हाथ से डंडा पकड़ने के लिए दौड़ी तो देखा कि एक तोता गुलेल से घायल जमीन पर मरणासन्न पड़ा है। वह दुख के कारण वहीं जमीन पर बैठकर रोने लगी। रघु उसे चुप कराने के लिए आया तो उसने उससे कहा,‘‘रघु तू मेरी दुनिया मत उजाड़। जा तू अपने शहर चला जा।’’ रघु को आश्चर्य हुआ, उसने दादी से पूछा,‘‘दादी तुम नहीं जानती, मेरा तुम्हारे सिवा दुनिया में कोई नहीं है। शहर में भी मुझे तुम्हारे प्यार का सहारा था। तुम इन जंगली पशु पक्षियों के कारण मुझे घर से भगा रही हो।’’ दादी ने रोते हुए कहा,‘‘इन्हीं के सहारे मैं इतने दिन खाती पीती रही हूँ। ये लोग मेरे सामने खेलकर, ऊधम करके मेरा मन बहलाते रहे हैं और तूने इन्हें मारा।’’ रघु को दादी के दुःख का कारण समझने में थोड़ी देर लगी परन्तु जैसे ही वह समझा उसने दादी के सिर पर अपना हाथ रखकर कसम खाई और कहा,‘‘दादी मेरा ख्याल था ये तुम्हें परेशान करते होंगे। तुम्हारा नुकसान करते होंगे। बस इसीलिए .....अच्छा छोड़ो। मुझे माफ कर दो और इन्हें मेरा दोस्त बना दो।’’
दादी ने अंदर से पक्षियों का मनपसन्द दाना, बन्दरों के लिए चने, केले व अमरूद मंगवाये। रघु के हाथों में केले देकर कहा,‘‘तुम डरना नहीं। केले लेकर बगीचे में आराम से बैठ जाना’’ उसने अपने हाथों से जमीन पर दाने बिखेर कर प्यार से पक्षियों को पुकारा। दादी के सामने पक्षी निर्भीक होकर जमीन पर बिखरे दाने चुगने लगे। दादी आराम से उनके बीच बैठी थी। पेड़ पर बैठा बन्दर परिवार रघु के हाथ में केले देख रहा था। थोड़ी देर में एक बच्चा दबे पाँव आया और रघु के हाथ से झपट कर केले ले गया। दादी की मुट्ठी चनों से भरी थी, उसने खोली और बन्दरिया कूद कर उसके हाथ से चने खाने लगी। उसे और बच्चों को चना-केला खाते देखकर बन्दर भी नीचे आया। रघु ने उसके सामने केले रखे। वह भी आराम से केला खाने लगा। रघु शान्त बैठा था। उसके हाथ में कोई डंडा नहीं था। बन्दरों की चालाकी देखकर उसे हँसी आ गयी। दादी उनके साथ जैसे छोटी बच्ची बन कर हंस खेल रही थी। वे लोग उसे घेर कर उछल-कूद रहे थे; दादी ताली बजा कर उनका मन बहला रही थी। रघु बोला,‘‘लो दादी, तुम्हारे दोस्त अब मेरे भी दोस्त हैं।’’ दादी का चेहरा प्रसन्नता के कारण बच्चों जैसा चमक रहा था।


द्वारा श्री कंचन त्रिपाठी,
नया सरकंडा, सीपत रोड,
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)

मैं अकेला


कहानी / जुलाई-अक्टूबर 08
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शामलाल कौशल




मोहनलाल अपने कमरे में बिल्कुल अकेला बैठा है। सूना सूना घर उसे खाने को दौड़ रहा है कभी वह दीवार पर टँगी उस तस्वीर को देखता है जिसमें उसकी बूढ़ी माँ प्रकाशवती ने उसकी बेटी सरिता की गोद में उठा रखा है तो कभी वह अपनी उसी बेटी सरिता के विवाह की एलबम को देखता। उसने सरिता का विवाह अपनी जान पहचान के एक व्यापारी के बेटे क्षितिज के साथ कर दिया। लोग अच्छे हैं, उसकी बेटी का पूरा ध्यान रखेंगे, कोई भी तकलीफ न होने देंगे, इसी भरोसे के साथ ही मोहनलाल ने अपनी जान से भी प्यारी तथा फूलों से भी ज्यादा कोमल बेटी को विदा किया था। सरिता जन्म से ही अपनी माँ के दुलार-प्यार से वंचित रही थी। इसीलिए उसके पिता ने उसे बाप का प्यार देने के साथ-साथ माँ के लाड़ प्यार की कमी महसूस नहीं होने दी। उस दिन जब उसकी बेटी की डोली घर से विदा हुई थी। उसे लग रहा था जैसे कि उसका कलेजा फट रहा है और उसकी आत्मा शरीर से अलग हो रही हो। बहुत मुश्किल से उसने अपने आपको सँभाला था। वह रात दिन परमात्मा से यही दुआ करता कि उसकी बेटी सरिता अपने पति क्षितिज तथा ससुराल वालों के साथ खूब घुल मिलकर खुश तथा सुखी रहे, खूब फले फूले तथा अपने सद्कर्मों के द्वारा प्रशंसा की पात्र बने।
अचानक वह अतीत में चला जाता है। अभी वह बहुत ही छोटा था जब उसके पिता जी का देहांत हो गया था। घर पर जो थोड़ी बहुत पूंजी थी वह उनकी दवा-दारू पर खर्च हो गई थी। घर में और कोई बड़ा नहीं था। उसकी माँ के सामने घर-बार चलाने की विकट स्थिति पैदा हो गई थी। वह कुछ खास पढ़ी लिखी नहीं थी इसलिए उसने गुजारा चलाने के लिए दूसरों के घरों में काम करने तथा चारपाईयाँ बुनने का काम शुरू कर दिया। इस तरह उसने थोड़े बहुत पैसे इकट्ठे करके कपड़े सीने की एक पुरानी मशीन खरीद ली और घर में कपड़े सिल कर आमदनी करनी शुरू कर दी। कपड़े सीने से उसकी माँ को जो आमदनी प्राप्त होती थी उससे घर का काम संतोषजनक ढंग से चल जाता था।
इस बीच उसकी माँ उसे अपने हाथ से खाना खिलाती, स्कूल के लिए तैयार करती, वापिस आने पर वह पूछती कि उसकी क्लास में कौन-कौन से बच्चे हैं, पूछे जाने पर वह याद किया हुआ पाठ सुनाता है या नहीं, आदि-आदि। इस तरह उसकी माँ उसका पूरा ख्याल रखती। प्रकाशवती ने मोहनलाल को मैट्रिक पास कराने के बाद अपने बचत की कुछ पूंजी लगाकर घर में ही छोटी सी कपड़े की दुकान खोल दी। उसकी माँ उसे दुकानदारी के गुण सिखाती, ग्राहकों के साथ कैसे बात करनी है, भाव कैसे तय करने हैं आदि सिखाती। इस तरह उसकी माँ केवल उसकी माँ ही नहीं बल्कि उसके लिए एक पिता, गुरु, मित्र तथा बहन भी थी। जब भी उसे कोई परेशानी होती वह छोटे बच्चे की तरह अपनी माँ की गोद में लेट जाता।
समय आने पर उसकी माँ ने उसका विवाह मोहल्ले की शकुन्तला से कर दिया। एक दिन शकुन्तला एक कन्या को जन्म देकर परमात्मा को प्यारी हो गई। एक बार फिर प्रकाशवती तथा मोहनलाल पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन प्रकाशवती ने इस परीक्षा का भी मुकाबला भी दृढ़ निश्चय से करने का फैसला किया। उसने उस बेटी की भी उसी तरह देखभाल करनी शुरू कर दी जैसे अपने बेटे मोहनलाल की थी। वह मोहन की बेटी सविता की मालिश करती, नहलाती, दूध पिलाती, कपड़ों की सिलाई करते समय अपनी गोद में लेकर बैठती और जब वह सो जाती तो उसे चारपाई पर सुला देती।
बेटी के पैदा होने के बाद उसकी आर्थिक स्थिति में काफी बेहतरी हुई इसलिए वह अपनी बेटी को भागवन्ती कहता था। अब उसकी बेटी सरिता लगभग ढाई वर्ष की हो गई थी, जब वह तोतली ज़बान से प्यारी प्यारी बाते करती, इधर उधर चलती फिरती, भागती-दौड़ती, कभी-कभी प्रकाशवती की सिलाई की मशीन पकड़ती तो माँ बेटे को ऐसे लगता जैसे कि यह छोटी सरिता उनके वीरान घर में खुशियों के द्वार खोलती हुई आई है। कहते हैं कि कोई भी खुशी दुनिया में बहुत देर तक टिकी नहीं रह सकती यह बात बेचारे मोहनलाल के साथ हुई। एक रात प्रकाशवती को जोर की खाँसी उठी। हड्डियों का ढाँचा बनी प्रकाशवती खाँसते-खाँसते मोहनलाल और सरिता को अकेला छोड़ गई। मोहनलाल पर तो मानो बिजली गिर पड़ी। वह कभी यह बात मान ही नहीं सकता था कि उसकी माँ मर भी सकती है लेकिन यह हृदय विदारक कटु सत्य उसके सामने था। यह सब देखकर वह छोटे बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगा। उसे लगा जैसे उसका भगवान ही मर गया हो। इतने में उसकी बेटी सरिता उसके पास आई और अपने छोटे-छोटे, नर्म-नर्म प्यारे हाथों से अपने पिता के आँसू पोंछते हुए कहने लगी-‘‘पापा, लोओ मत, मैं हूँ न।’’ उस बालिका की तोतली ज़बान सुनकर मोहनलाल चुप हो गया। रात भर बाप-बेटी लाश के पास ही बैठे रहे और सुबह होने पर आस पास के लोगों को इस दुःखद समाचार को सुनाया। उसकी माँ का विधिवत ढंग से दाह-संस्कार कर दिया गया।
इसके बाद मोहनलाल ने अपना बाकी का जीवन अपनी बेटी को पालने-पोसने, पढ़ाने-लिखाने के लिए उसी तरह समर्पित कर दिया जैसे कि उसकी माँ ने इसके लिए किया था। उसके लिए जीने का मतलब सिर्फ उसकी बेटी ही बनकर रह गया था। वह अपनी बेटी की खुशी के लिए सब कुछ कर देना चाहता था। अपनी माँ से मिले संस्कार, प्यार, दुलार व लाड़ उसे लौटा देना चाहता था। वह अपनी बेटी के लिए नयी फ्राक, जूते, खिलौने लाता। जिन खिलौनों से खेलते-खेलते वह ऊब जाती या जो खिलौने टूट जाते उन्हें वह संभाल कर रखता। वह उसकी खुशी के लिए घोड़ा बनता, उसके साथ खेलता, भागता और उसे खुश करने के लिए तरह-तरह के पशुओं व पक्षियों की आवाजें निकालता। इससे उसकी बेटी बहुत खुश होती। ऐसे में उसे अगर कभी अपनी माँ की याद आती भी तो उसकी बेटी का अथाह प्यार उसे उदास न होने देता। कभी-कभी उसे लगता कि उसकी माँ की मृत्यु की असहनीय तकलीफ उसे तब महसूस होगी जब उसकी बेटी सरिता विवाह के बाद ससुराल चली जायेगी। समय अपनी गति से चलता रहा। सरिता बड़ी होती-होती विवाह योग्य आयु तक पहुँच गई और उसने उसका विवाह एक योग्य वर के साथ कर दिया।
आज मोहनलाल बहुत उदास है। उसे लग रहा है कि इस भरी दुनिया में अब वह बिलकुल अकेला रह गया है। एक बार फिर उसे अपनी माँ का प्यार-दुलार याद आ रहा है। वह कभी दीवार पर टँगी अपनी माँ तथा बेटी की फोटो को देखता है तथा कभी अपनी बेटी के उन खिलौनों को देखता है जिनसे वह खेला करती थी। माँ के दुलार और बेटी के स्नेह के वशीभूत वह एक गुड़िया को उठाकर सीने से लगा लेता है, जिससे उसकी बेटी ज्यादा खेला करती थी और फिर प्यार से कहता है-‘‘बेटे सरिता, आप तो पापा के साथ हमेशा रहोगे न? छोड़कर तो नहीं जाओगे?’’ उसकी आँखों में आँसुओं की बाढ़ आ जाती है।


975-बी/20, राजीव निवास,
शक्तिनगर, ग्रीन रोड,
रोहतक-124001

संगणक


कहानी / जुलाई-अक्टूबर 08
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डा0 मधु संधु



आजकल अभि दा में अतिरिक्त फुर्ती आ गई है। वह आधी रात के बाद सोते हैं और भोर से पहले ही अलार्म घड़ी टनटनाने लगती है और अभि दा के कमरे में रोशनी जगमगा उठती है। तभी माँ चाय का कप आकर रख जाती है। यह परीक्षाओं का दौर है। अभि दा का परीक्षा में प्रथम आने का संकल्प तीव्रतर है। पिछली परीक्षा में उनका तीसरा नम्बर आया था। बड़ा सदमा लगा था।
बीती रात अभि दा संगणक की किसी वेब साइट में देर तक उलझे रहे, फिर प्रोजेक्ट रिपोर्ट के लिए थोड़ी सी टाइप की। जब सोए तो लेटते ही गहरी निद्रा में खो गए। नींद में उन्हें लगा कि धीमें मंद स्वरों में गहन अंधकार में आवाजें रेंग रही हैं। अभि दा अचम्भित से फुसफुसाटें सुनने लगे। गणित की हृष्ट-पुष्ट पुस्तक ज़ार-ज़ार रो रही थी। कम्प्यूटर की पुस्तक से सिसक-सिसक कर कह रही थी, ‘‘दीदी ! मुझे अभि दा प्यार नहीं करते। मैं तो बस उनके गले पड़ी हूँ- जैसे नापसंद बीवी। वह मेरे पास आते हैं। मुझे स्पर्शते हैं। एक एक अक्षर पर आँख गढ़ाते हैं। सवाल करते हुए कागजों पर कागज भर देते हैं, पर मैं उनकी प्रिया नहीं हूँ। पता नहीं क्यों सब जान समझ कर भी मैं अपने को बहला-बहका, सहला-फुसला नहीं पाती।’’
कम्प्यूटर नोट बुक की वेदना अपनी थी। क्षीण सी आह भरते हुए उसने सोचा कि उसका तो उसी दिन अवमूल्यन हो गया था, जिस दिन घर में मल्टी-मीडिया संगणक (कम्प्यूटर) का प्रवेश हुआ था। वह साध्य से साधन बन गई थी। रानी से चेरी हो गई थी। प्रिया से अप्रिया बन बैठी थी। उसी दिन से अभि दा पहियों वाली कुर्सी पर बैठकर संगणक पर नाना खेल खेलते रहते। संगणक ने भी शुरू में कम नखरे नहीं दिखाए। कभी जरा सी डाट छूट जाने पर ई-मेल एड्रेस गलत हो जाता, कभी एक क्लिक गलत हो जाने पर पूरी फाइल डिलीट हो जाती। कभी नो का येस और येस का कैंसल दब जाता।
पास पड़ी मैगजीन ने इठलाते हुए कहा-‘‘जानते हो हमारे अभि दा कितने अच्छे हैं। उस दिन मैंने जरा सा उचक कर देखा तो अभि दा मेरा ही नाम सर्च में भर रहे थे। मेरे अगामी अंक को सबसे पहले पढ़ने के लिए। इतना प्यार करते हैं वह मुझे, यह तो उसी दिन पता चला।’’
टी. वी. ने रिलैक्सड स्वर में कहा-‘‘मुझे तो कोई शिकायत नहीं। ठीक है अभि दा मुझे पहले से कम समय देते हैं, पर मैं भी तो बुढ़ाने लगा हूँ। चलो इस बहाने थोड़ा आराम हो जाता है।’’
तभी एक खिलखिलाहट सुनाई दी। यह उसी पलंग की थी, जिस पर अभि दा लेटे हुए थे-‘‘हम तो पूरी गर्मियाँ गर्मी से छटपटाते रहते थे। कई बार तो भइया खिड़की भी खोल देते थे। लू और घूल-मिट्टी सब आती थी।जब से अभि दा ने संगणक लिया है, ए0 सी0 भी लग गया है। शीतल हवाओं में मन झूम-झूम उठता है। ऊपर से दरवाजे खिड़कियां भी बंद रहते हैं। है न मजे की बात। धूल मिट्टी से छुटकारा। हर समय साफ-सुथरे, तरो-ताजा बने रहो।’’
किसी के अंदर जलन का नाम मात्र नहीं था। सभी में मैत्री थी। कितने दिन हो गए संगणक, उसके सी0 पी0 यू0, की बोर्ड, स्पीकर्ज, स्कैनर, कुर्सी मेज को आए, पर सभी उनकी आवभगत अभी तक अतिथियों की तरह कर रहे थे। उनके अंदर शायद भारतीय संस्कृति के बीज थे, जहाँ अतिथि देवता सदृश्य होता है।
उपेक्षित पड़े स्टीरियो ने शिकायती स्वर में कहा-‘‘मैं सोचता था कि अभि दा पढाई में व्यस्त रहनें के कारण मुझे नकार रहे हैं, पर अब पता चला कि मैं तो पुराना पड़ गया हूँ। बीता हुआ कल हूँ। मैं वी0डी0ओ0 की सी0डी0 तो नहीं चला सकता।’’ ट्राली के नीचे तहाए पड़े पोंछन ने धीरे-धीरे सरकते स्टीरिओ पर चहल कदमी शुरू कर दी। उसे पूर्णतः आश्वस्त किया-‘‘तुम्हें कौन पुराना कहेगा। जरा दर्पण तो देखो कैसे चमक रहे हो। तुम्हारी आवाज समस्त इंद्र्रियों को झनझना कर रख देने की क्षमता लिए है।’’
नन्हें माउस ने अपनी पूँछ हिला, इठलाते, खिलखिलाते कहा, ‘‘अजी ! अभि दा मुझे मेरे गद्दे से नीचे टपका देते हैं तो सख्त मेज मुझे अच्छा नहीं लगता, पर मैं बुरा नहीं मनाता और उन्हें सहयोग देता जाता हूँ।’’ कुंजी पटल की खिलखिलाहट रुक ही नहीं रही थी। अभि दा का बार बार वर्ण भूलना और गलत-सलत नाब्ज दबाना- हँसी से उसके पेट में बल पड़ रहे थे।
दूर अलमारी में बैठी भाषा की पुस्तक से न रहा गया। वह कब तक चुप रहती। अंततः गुरु गम्भीर वाणी में बोली-‘‘मैं तो माँ हूँ उसकी। मैंनें उसे बोलना सिखाया है, समाज का सामना करने की सामथ्र्य दी है। मुझे तो उसका फलना फूलना ही भाता हैं। जैसे वह खुश रहे, पर उसे समय का घ्यान तो रखना ही चाहिए। हर सब्जेक्ट को सानुपात समय देना होगा, तभी उसका निस्तार होगा। समझाऊँगी उसे। हम सभी उसके साथी भी हैं और हितैषी भी। संगणक तो हमारा अपना है, प्यारा है। उसने हम सबको अपने में समों लिया है। अभि दा जब भी सर्च में कुछ भरते हैं तो कालेज सब्जेक्टस का ही कुछ होता है।’’
तभी मूक दर्शक, मूक श्रोता बनी अलार्म घड़ी कुछ ऐसे चिल्लाई कि सभी भयभीत होकर निर्जीवावस्था में चले गए। अभि दा ने अलार्म बंद किया और लाइट जला पढ़ने लगे। सुबह उनका पेपर जो था।


बी-14, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय,
अमृतसर-143005

Monday, March 30, 2009

हाइकु


हाइकु / जुलाई-अक्टूबर 08
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कुन्दन पाटिल



1- प्रेम का वास
सुख, शान्ति, समृद्धि
वही विराजी।

2- प्यार का होना
दिनचर्या बदला
संभाविक है।

3- रोशनी करें
अंधियारा भगाएँ
दीप जलाएँ।

4- भाग्य संवारें
सफलता को छुएँ
मेहनत से।

5- मिटाना होगा
बैर, विद्वेष हमें
प्रेम बढ़ेगा।

6- जीवन भर
मैं-मैं करता रहा
हाथ है खाली।

7- कुर्सी के लिए
अभिनय करता
आज का नेता।

8- मैं और मेरा
दायरा जीवन का
सिमट गया।

9- सुख-दुःख में
शामिल होना, कर्म
सम्मान यहीं।
10- शरीर यह
अमानत आत्मा की
क्यों इतराते?

11- कैसी दुश्मनी
मजाक जो उड़ाते
सच्चे प्रेम का।

12- भूकम्प त्रास्दी
सेवा समर्पण का
समय सही।

13- प्रेम सत्य है
सत्य ही अमर है
यही ज्ञान है।

14- रक्षा राष्ट्र की
करना हमें कर्म
निभाना धर्म।


129, नयापुरा,
मराठा समाज,
देवास (म0प्र0) 455001

दो गीत


गीत / जुलाई-अक्टूबर 08
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हितेश कुमार शर्मा




(1) अब भारत की बात करो
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छुआ छूत के बन्धन तोड़ो, मत स्वारथ की बात करो।
जनहित और देशहित सोचो, अब भारत की बात करो।।
अब भी बटे रहेंगे हम तो आक्रान्ता छा जायेंगे।
उग्रवाद, आतंक-नक्सली-मानवता खा जायेंगे।
हिन्दी हैं हम हिन्दू हैं हम, हैं केवल हिन्दुस्तानी।
सबके खूँ में मिला हुआ है गंगा-यमुना का पानी।
एक मंच पर सभी खड़े हों पैदा वह हालात करो।
जनहित और देशहित सोचो अब भारत की बात करो।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य कह समाज को मत बाँटो।
एक वृक्ष हिन्दुत्व हमारा शाखाओं को मत काटो।
सब समान हैं सबके अन्दर भारत भू की आत्मा है।
सकल विश्व का एक रचयिता परमपिता परमात्मा है।
सब में हो एकात्म-भाव, जाग्रत ऐसे जज्वात करो।
जनहित और देशहित सोचो अब भारत की बात करो।।
संविधान में परिवर्तन हो जात-पात के शब्द हटें।
आरक्षण या तुष्टिकरण के सभी विशेषण तुरत कटे।
सबका केवल मात्र नाम हो, जाति सूचक पूँछ न हो
एक भाव हो राष्ट्र प्रेम का, लम्बी छोटी मूँछ न हो।
स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर भेंट यही सौगात करो।
जनहित और देशहित सोचो अब भारत की बात करो।।


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(2) आओ दीपावली मनायें
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आओ दीपावली मनायें, हर मुंडेर पर दीप जलायें।
द्वेष, दम्भ, पाखण्ड सरीखे, मन के दुर्गुण दूर भगायें।।
संयम का हो दीप, स्नेह वर्तिका धर्य का तेल भरा हो।
अंधकार को दूर भगाता, हर आंगन में दीप धरा हो।
हर चेहरे पर चमक खुशी की, अंतर्मन में स्नेह खरा हो।
खुशियाँ खील, मिठाई बाँटे, सबको बढ़कर गले लगायें।
आओ दीपावली मनायें।।
सम्बोधन सम्मानयुक्त हों, अपनापन वाणी में छलके।
त्योहारों की परम्परागत प्रीति-रीति प्राणी में झलके।
नई नवल आशाओं के संग, उगे चन्द्रमा दिनकर ढलके।
धरती लगे ज्योति का सागर, आओ ऐसा इसे सजायें।
आओ दीपावली मनायें।।
सबके मन के अंधकार का, दीवाली के दीप हरें तम।
सबका मालिक एक भला फिर, आपस में क्यों बैर करें हम।
सबकी झोली भरे खुशी से, रहे कहीं भी जरा न ग़म।
हर मन की इच्छा पूरी हो, हर आंगन लक्ष्मी जी आयें।
आओ दीपावली मनायें।।
दीवाली से दीवाली तक, भरे रहें भण्डार सभी के।
लक्ष्मी मैया दूर भगा दें, आपद् और विपत सब ही के।
हर घर आंगन उजियारा हो, रहें नहीं चैबारे फीके।
धरती का शृंगार देखकर, चाँद सितारे भी शरमायें।
आओ दीपावली मनायें।।
तुमको शुभ हो, मुझको शुभ हो, दीपावली हम सबको शुभ हो।
आने वाला समय सुखद हो, कुछ भी कहीं न मित्र अशुभ हो।
माँ लक्ष्मी इस दीवाली पर, हर आंगन सुख ही सुख हो।
अपने और पराये सबको, पहुँचें दीपावली की सुकामनायें।
आओ दीपावली मनायें।।


गणपति काम्पलैक्स,
सिविल लाइन्स,
बिजनौर (उ0प्र0) पिन-246701

दो गीत


गीत / जुलाई-अक्टूबर 08
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हितेश कुमार शर्मा




(1) अब भारत की बात करो
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छुआ छूत के बन्धन तोड़ो, मत स्वारथ की बात करो।
जनहित और देशहित सोचो, अब भारत की बात करो।।
अब भी बटे रहेंगे हम तो आक्रान्ता छा जायेंगे।
उग्रवाद, आतंक-नक्सली-मानवता खा जायेंगे।
हिन्दी हैं हम हिन्दू हैं हम, हैं केवल हिन्दुस्तानी।
सबके खूँ में मिला हुआ है गंगा-यमुना का पानी।
एक मंच पर सभी खड़े हों पैदा वह हालात करो।
जनहित और देशहित सोचो अब भारत की बात करो।।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र, वैश्य कह समाज को मत बाँटो।
एक वृक्ष हिन्दुत्व हमारा शाखाओं को मत काटो।
सब समान हैं सबके अन्दर भारत भू की आत्मा है।
सकल विश्व का एक रचयिता परमपिता परमात्मा है।
सब में हो एकात्म-भाव, जाग्रत ऐसे जज्वात करो।
जनहित और देशहित सोचो अब भारत की बात करो।।
संविधान में परिवर्तन हो जात-पात के शब्द हटें।
आरक्षण या तुष्टिकरण के सभी विशेषण तुरत कटे।
सबका केवल मात्र नाम हो, जाति सूचक पूँछ न हो
एक भाव हो राष्ट्र प्रेम का, लम्बी छोटी मूँछ न हो।
स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर भेंट यही सौगात करो।
जनहित और देशहित सोचो अब भारत की बात करो।।


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(2) आओ दीपावली मनायें
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आओ दीपावली मनायें, हर मुंडेर पर दीप जलायें।
द्वेष, दम्भ, पाखण्ड सरीखे, मन के दुर्गुण दूर भगायें।।
संयम का हो दीप, स्नेह वर्तिका धर्य का तेल भरा हो।
अंधकार को दूर भगाता, हर आंगन में दीप धरा हो।
हर चेहरे पर चमक खुशी की, अंतर्मन में स्नेह खरा हो।
खुशियाँ खील, मिठाई बाँटे, सबको बढ़कर गले लगायें।
आओ दीपावली मनायें।।
सम्बोधन सम्मानयुक्त हों, अपनापन वाणी में छलके।
त्योहारों की परम्परागत प्रीति-रीति प्राणी में झलके।
नई नवल आशाओं के संग, उगे चन्द्रमा दिनकर ढलके।
धरती लगे ज्योति का सागर, आओ ऐसा इसे सजायें।
आओ दीपावली मनायें।।
सबके मन के अंधकार का, दीवाली के दीप हरें तम।
सबका मालिक एक भला फिर, आपस में क्यों बैर करें हम।
सबकी झोली भरे खुशी से, रहे कहीं भी जरा न ग़म।
हर मन की इच्छा पूरी हो, हर आंगन लक्ष्मी जी आयें।
आओ दीपावली मनायें।।
दीवाली से दीवाली तक, भरे रहें भण्डार सभी के।
लक्ष्मी मैया दूर भगा दें, आपद् और विपत सब ही के।
हर घर आंगन उजियारा हो, रहें नहीं चैबारे फीके।
धरती का शृंगार देखकर, चाँद सितारे भी शरमायें।
आओ दीपावली मनायें।।
तुमको शुभ हो, मुझको शुभ हो, दीपावली हम सबको शुभ हो।
आने वाला समय सुखद हो, कुछ भी कहीं न मित्र अशुभ हो।
माँ लक्ष्मी इस दीवाली पर, हर आंगन सुख ही सुख हो।
अपने और पराये सबको, पहुँचें दीपावली की सुकामनायें।
आओ दीपावली मनायें।।


गणपति काम्पलैक्स,
सिविल लाइन्स,
बिजनौर (उ0प्र0) पिन-246701

वह नन्हा


युवा कवि हेमंत का जन्म 23 मई 1977 को उज्जैन (म0प्र0) देश की सुविख्यात वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती संतोष श्रीवास्तव के पुत्र हैं। प्रारम्भिक शिक्षा आगरा से सम्पन्न करने के बाद मुम्बई से अपनी शिक्षा सॅफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में पूरी की। चित्रकला एवं गिटारवादन में विशेषज्ञता प्राप्त एवं प्रादेशिक स्तर पर नाटकों का मंचन भी करने वाले हेमन्त ने 15 वर्ष की उम्र से ही कविताएँ लिखना प्रारम्भ कर दिया था। हेमंत ने उर्दू, मराठी का ज्ञान रखने के साथ-साथ हिन्दी, अंग्रेजी में सिद्धहस्त रूप से कविता लेखन कार्य किया है। प्रतिभा के धानी हेमंत 05 अगस्त 2000 की शाम को एक दुर्घटना का शिकार होकर हम सब के बीच अपने परिपक्व विचार अपने कविता संग्रह ‘मेरे रहते’ के रूप में छोड़ गये हैं। ऐसे होनहार पुत्र, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व को इस रूप में विनम्र श्रद्धांजलि.......


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गीत / युवा स्वर / जुलाई-अक्टूबर 08
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हेमंत




आठ साल का वह नन्हा
उठता है मुँह अँधेरे।

फटी निकर, फटी बुशर्ट पहन
काली चाय के साथ, बासी रोटी निगल
निकल पड़ता है काम पे।

कापी, किताब, बस्ता
दूध का गिलास,
तोतला बचपन
बह गया है वक्त की बाढ़ में

अब उसके साथ है सूखा सफ़र
भूख, बदहाली का
साल दर साल पैदा हुए
दर्जन भर भाई बहनों का
उसने लंगूर की लम्बी पूँछ
सर्कस, चिड़ियाघर
झाड़ियों में छिपता खरगोश
फूलों पर मचलती तितली
और सड़कों में जमा पानी पर
तैरती कागज़ की नाव
सीने में छुपा रक्खी है।

वह मुब्तिला है होटल में
कप प्लेट धोने में
मुँह में भरते पानी के साथ
गुलाबजामुन और भजिये की
प्लेटें परोसने में

आठ साल का वी नन्हा
कितना इन्तजार करे ज़िन्दगी का
सुर्खाब के परों का, मीठे मचलते सपनों का
माँ की लोरी और पिता के दुलार का
स्कूल की घंटी का, खेल के मैदान का!

आठ साल का वह नन्हा
बन गया है बाल मजदूर।


75/2, जॅय अपार्टमेंट,
निकट लक्ष्मी नारायण मंदिर,
जे0बी0नगर, अंधरी(पूर्व),
मुम्बई-59

दो बाल कवितायें



बाल कविताएँ
/ जुलाई-अक्टूबर 08
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अंजू दुआ जैमिनी



(1) शिक्षा
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शिक्षा इंसान को पहचान दिलाती,
जीने का सही ढंग सिखाती।
भिन्न-भिन्न गुणों को प्रेम से,
डाल-डाल पर खिलना सिखाती।
विद्या को पाने विद्यार्थी,
विद्या के मन्दिर में आते।
माता-पिता की उंगली थामे,
गुरुजनों को शीश नवाते।
अध्यापकगण को शत-शत नमन,
भले-बुरे में भेद बतलाएँ।
राह का बन कर दीपक शिक्षा,
उजियारा चहुँ ओर कर जाएँ।
नेहरू, गाँधी, भगत, सुभाष,
प्रेरणादायक इनका इतिहास।
झांसी की रानी बलिदानी,
बहादुरी की कहे कहानी।
अज्ञानता का तिमिर हटाकर,
नित नई इक बात सिखाती।
छत्र-छाया में पलकर इसकी,
हर कली बन फूल महकाती।



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(2) प्रकृति की बारात
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चिड़ियों से चहचहाना सीखो,
भौरों से गुनगुनाना सीखो।
हरे-भरे बाग-बगीचे,
फूलों से महकाना सीखो।
नील गगन की विशालता से,
सबको गले लगाना सीखो।
गगन को चूमती पर्वत शिखाएँ,
चोटी पर चढ़ जाना सीखो।
चुग-चुग दाना खिलाए बच्चों को,
चिड़िया से पालना-पोसना सीखो।
वृक्ष की छाल,फूल-फल, जड़-पत्ते,
बिना मोल सब देना सीखो।
सूरज-चाँद सितारे न्यारे,
दूर भगाते जग के अंधियारे।
इनकी सहृयता की नहीं मिसाल,
रोशनी इनसे फैलाना सीखो।
कंक्रीट के जंगल जहाँ-तहाँ,
नंगी-बुची धरती रोती।
न काटो इन वृक्षों को,
सान्निध्य में इनके मुस्कुराना सीखो।



839 सेक्टर 21सी.,
फरीदाबाद- 121001

सूरज उगाना चाहता हूँ


गीत / जुलाई-अक्टूबर 08
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डा0 मोहन ‘आनन्द’




इस कुहासे को हटाना चाहता हूँ,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

छा गई बदली अंधेरे की यहाँ,
ढूंढते न मिल रहा है पथ कहाँ?
आँख पर पट्टी बंधी सी लग रही,
बात सुनकर भी लगे ज्यों अनकही।
आँख से पर्दा उठाना चाहता हूँ,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

खुद करें गलती मगर क्यों दोष दूजों पर मढ़ें,
बांधकर फंदा स्वयं फिर शूलियों पर जो चढ़े।
वक्त की करवट कहें या आदमी की भूल,
हो रहा मजबूर है क्यों चाटने को धूल।
आदमी को आदमी का कद दिखाना चाहता हूं,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूं।

चूक जायेगा समय तब, क्या समझ में आयेगा,
सूखने के बाद क्या पानी दिया हरयाएगा।
लुट चुके को भागने से क्या मिलेगा बताओ?
होश में आओ स्वयं मत आग खुद घर में लगाओ।
हो चुके बेहोश उनको होश लाना चाहता हूँ,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।

तुम बनो सूरज मिटा डालो अंधेरा,
बीत जाए रात काली हो सबेरा।
प्रलय की पहली किरण झंकार कर दो,
बुझ चुके हारे दिलों में प्यार भर दो।
शाख उजड़ी पर नई कोंपल उगाना चाहता हू,
इक नया सूरज उगाना चाहता हूँ।



सुन्दरम बंगला,
50 महाबली नगर,
कोलार रोड, भोपाल (म0प्र0)

कवरेज कम्पलीट


लघुकथा / जुलाई-अक्टूबर 08
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डा0 पूरन सिंह



रामप्रसाद बहुत ही स्वाभिमानी और ईमानदार व्यक्ति था। उसने जब ठाकुर जसवीर सिंह के घर बेगार (गुलामी) करने से मना किया तो ठाकुर साहब के अहंकार को ठेस पहुँची, लगा कि किसी ने सदियों से चली आ रही परम्परा को चकनाचूर किए जाने की नापाक कोशिश की हो। फिर क्या था ठाकुर साहब ने बंदूक उठायी और रामप्रसाद की झोपड़ी की तरफ कूच कर गए।
रामप्रसाद अपनी पत्नी और सवा साल के बच्चे के साथ घर पर ही था। ठाकुर साहब को घर आया देख वह संभला ही था कि ठाकुर साहब ने अपनी दोनाली बंदूक से गोली चला दी। देखते ही देखते रामप्रसाद और उसकी पत्नी भगवान को प्यारे हो गये। मासूम बच्चा मोनू को कुछ ज्ञात नहीं था कि उसके माँ-बाप को आततायी ठाकुर ने मार डाला है। वह कभी रामप्रसाद के मृतक शरीर को देखता तो कभी अपनी माँ को। गाँव में किसी की हिम्मत नहीं थी कि रामप्रसाद के बेटे मोनू को उठाता।
बच्चा एक घंटे तक यों ही तड़पता रहा। एक घंटे के पश्चात पुलिस पहुँच गई और आला आफिसर्स, मीडियाकर्मी क्यों पीछे रहते। आफिसर्स अपनी जाँच-पड़ताल में लग गए और मीडिया-कर्मियों का फोटो सेशन शुरू हो गया। एक महिला मीडियाकर्मी चाहती थी कि मोनू रोए लेकिन मासूम मोनू कभी अपनी माँ के मृत शरीर पर लेट जाता तो कभी अपने पिता के। उसके लिए तो यह एक खेल बन गया था। महिला मीडियाकर्मी ने बहुत चाहा कि बच्चा मोनू रोए लेकिन जब वह नहीं रोया तो उसे लगा कि उसका कवरेज अधूरा रहा जा रहा है। उसने अपने बालों में लगी पिन निकालकर बच्चे मोनू के चूतड़ में चुभो दी। बच्चा असहनीय पीड़ा से बिलबिलाने लगा और चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा था। कैमरे चमकने लगे थे, खुशी से नाचती उस महिलाकर्मी ने अपने कैमरामैन से सिर्फ इतना ही कहा था ’‘वाओ!! कवरेज कम्पलीट!!’’



240 फरीदपुरी,
वेस्ट पटेलनगर,
नई दिल्ली-08

उल्लू कौन?


लघुकथा / जुलाई-अक्टूबर 08
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विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी



आओ बच्चों एक किस्सा सुनाएँ। भोले बाप बेटे का किस्सा बताएँ। बात थोड़ी सी पुरानी है। मगर इसमें न राजा है न रानी है। एक बाप और उसका बेटा साथ-साथ बाजार जा रहे थे। अपने विचारों में खोए-खोए कुछ बुदबुदा रहे थे। इतने में ही बेटा एक फल के ठेले से टकरा गया। ठेले का सामान बिखर सड़क पर आ गया।
अपना नुकसान देख फल वाले को गुस्सा आया। उसने बेटे को उल्लू का पट्ठा कह बुलाया। यह सुन बाप का सिर भन्नाया। उसको तनिक ताव भी आया। बोला ‘मेरे बेटे ने गलती की है। मगर तुमने गाली मुझे क्यों दी? तुमने मेरे बेटे को उल्लू का पट्ठा कह बुलाया है। सीधा सा अर्थ है कि मुझे उल्लू बताया है। इसे मैं बर्दाश्त नहीं करूँगा। तुम्हें पकड़ कर दो थाप धरूँगा।’ यह कह कर बाप आगे बढ़ा। पकड़कर ठेलेवाले का गिरहबान सर पर चढ़ा। ठेलेवाले ने भी तैश खाया। दोनों हाथों से बाप को धक्का लगाया। बाप संभल नहीं पाया। एक ही पल में सड़क पर आया।
मुफ्त में तमाशा होने लगा। बाजार में मजमा जमने लगा। ट्रेफिक रुकता देख पुलिस वाला आया। आते ही ठेलेवाले को धमकाया। ट्रेफिक जाम करने का चालान करूँगा। अशान्ति करने पर अन्दर धरूँगा।
पुलिस की डाँट सुनकर ठेलेवाला वाला घबराया। तुरन्त ही समझौते का मार्ग अपनाया। बाप के सामने हाथ जोड़कर दयानीय भाव बनाया। उसको ज्ञानी व स्वयं को उल्लू बताया। ठेलेवाले की बात सुनकर बाप का सिर चकराया। ठेलेवाले के उल्लू बनने की बात पर विरोध जताया। बोला, ऐसे कैसे हो सकता है? ऐसे तो मेरा बेटा खो सकता है। मेरे बेटे को उल्लू का पट्ठा बता रहे हो। अब उल्लू स्वयं बनने जा रहे हो। भरे बाजार में मुझे लूटने जा रहे हो। मेरे बेटे को अपना बेटा बता रहे हो। मैं तेरी बातों में नहीं आऊँगा। अब तो उल्लू मैं ही कहलाऊँगा।

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2 तिलक नगर,
पाली (राजस्थान)

फोड़ा


लघुकथा / जुलाई-अक्टूबर 08 /
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कमल चोपड़ा



जमीन पर बिछी हुई बोरी पर लेटा हुआ मन्नू बार-बार करवटें बदल रहा था। पास ही झिलंगी सी चारपाई पर लेटा हुआ बापू थोड़ी-थोड़ी देर बाद दर्द से कराह उठता था। बापू के लिए यह बात समझ पाना मुश्किल नहीं था कि भूखा होने के कारण मन्नू को नींद नहीं आ रही है।
कई दिन से काम पर नहीं जा पाया था बापू। पीठ पर फोड़ा निकला हुआ था। उसका काम ही पीठ पर लादकर बोरी ढोने का था। काम बन्द तो आमदनी बन्द। पीठ से ज्यादा पेट में कोई फोड़ा टीसने लगा तो मजबूर होकर काम पर जाना पड़ा उसे....। अभी वह अनाज की एक भी बोरी ट्रक पर लाद नहीं पाया था कि पट्टे से पैर रपट जाने के कारण नीचे गिर पड़ा, जिससे उसकी टाँग की हड्डी टूट गई थी। मालिक ने बस इतना किया कि उसकी टाँग पर प्लास्टर चढ़वाकर उसे घर भिजवा दिया था।
रोज कुआँ खोदकर रोज पानी पीने वाला मामूली पल्लेदार था वह। पीठ पर फोड़ा था ही, ऊपर से टाँग की हड्डी और टूट गई। आमदनी बन्द, ऊपर से इलाज का खर्चा। दो साल पहले उसकी बीबी हैजे से न मरी होती तो लोगों के घरों का चैका बर्तन करके किसी तरह उन बाप-बेटे को संभाल लेती पर....।
फोड़े, भूख और टूटी हड्डी के दर्द को बर्दाश्त करने की कोशिश करते करते बाप की आँखों से पानी बहने लगा था। दिहाड़ीदार के हाथ-पाँव सलामत रहें तो ठीक वर्ना.... टूटी रीढ़ वाले कुत्ते से भी बदतर हालत हो जाती है उसकी। कोई उम्मीद, कोई हिफाजत, कोई सहारा कुछ भी नहीं।
हाथ बढ़ाकर बापू ने नीचे बोरी पर लेटे हुए मन्नू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-‘‘नींद नहीं आ रही? भूख लगी है ना?’’
एकदम से उठकर बैठ गया मन्नू-‘‘नहीं बापू, भूख तो लगी थी पर मैंने पेट भर के खूब सारा पानी पी लिया। देखो अब मेरा पेट तो भरा हुआ है।’’
तड़फकर रह गया बापू-‘ये छोटा सा बच्चा। अभी से बर्दाश्त और दरगुजर करना सीख गया है। इतनी सी उम्र में मजबूर होकर ‘हार’ जाना सीख गया है, बड़ा होकर क्या कर पायेगा? एक इसी से कुछ उम्मीदें थीं लेकिन यह भी।’ विवश होकर बाप कलपने लगा था। ‘गाँव में था तो प्रधान के खेतों पर पसीना बहाकर अन्न उपजाता था। तब भी यही हालत थी। गाँव से शहर आया। यहाँ अनाज की बोरियाँ ट्रकों में चढ़ाता उतारता है। अब भी यही हालत है। खेतों और गोदामों में रहने के बावजूद भूख। अब यहाँ से कहाँ जायें?’
‘‘बापू गोदाम वाले लाला की टाँग पर चोट लग जाये तो उसे तो खाने को मिलता रहेगा ना? उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा? बापू लोग तो कहते हैं जो बोता है वही काटता है, लेकिन बोता मजदूर है और काटकर खाता है लाला। बापू ऐसा क्यों नहीं होता, जो बोये वही काटे, वही खाये?’’

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1600/114, त्रिनगर,
दिल्ली-35