Monday, February 2, 2009

गज़ल शिल्प ज्ञान-1

ज्ञान ======= मार्च - जून 06

गज़ल शिल्प ज्ञान-1
नासिर अली ‘नदीम’
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माननीय नदीम साहब ‘ग़ज़ल सृजन कला प्रसार केन्द्र, जालौन’ के माध्यम से नवोदित एवं उदीयमान हिन्दी ग़ज़लकारों के लिये ‘निःशुल्क ग़ज़ल-शिल्प ज्ञान कार्यक्रम’ का संचालन कर रहे हैं। उनके इस सद् प्रयास को श्रृँखलाबद्ध रूप से यथायोग्य रचनाकारों/व्यक्तियों तक पहुँचाने का ‘स्पंदन’ का एक छोटा सा प्रयास - - संपादक
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वैसे तो ‘शाइरी’ या ‘कविताई’ एक कठिन और दुस्साध्य कला है, परन्तु प्रकृति ने जिनके अंदर इस कला के बीज स्वयं ही रोप दिये हों, उनके लिये उन्हें अंकुरित और विकसित करना कोई कठिन कार्य नहीं है। शाइरी-कला अर्थात् ‘अरूज़’ अपने आप में एक पूर्ण विज्ञान है। यह विज्ञान, भाषा-विज्ञान एवं स्वर-विज्ञान (गायन कला) को मिलाकर बना है। अतः शाइरी-कला के नियमों को भी पूर्ण मनोयोग और धैर्य के साथ पढ़ने और समझने की आवश्यकता होती है। वैसे शाइरी के नियम समझना बहुत कठिन भी नहीं है, बस कुछ परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता होती है। जिन्हें अपने अंदर कवित्व का अंश पर्याप्त मात्रा में विद्यमान प्रतीत होता हो और उचित प्रयास के बाद शाइरी कला के नियम समझना जिन्हें रुचिकर लगे, यह प्रस्तुति उन्हीं के लिये है। शेरगोई और ग़ज़ल-सृजन के नियमों पर चर्चा करने से पूर्व यह आवश्यक है कि पहले शाइरी से सम्बन्धित कुछ आवश्यक (प्राथमिक) बातों की जानकारी कर ली जाये।
‘शेर’ - शाइरी के नियमों में बँधी हुई दो पंक्तियों की ऐसी काव्य-रचना को शेर कहते हैं, जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो। ‘शेर’ का शाब्दिक अर्थ है - ‘जानना’ अथवा ‘किसी तथ्य से अवगत होना।’ उदाहरण -
‘हो गई है पीर-पर्वत सी, पिघलनी चाहिये,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।’ (दुष्यन्त कुमार)
‘मिसरा’ - जिन दो पंक्तियों से मिलकर ‘शेर’ बनता है, उसमें से प्रत्येक पंक्ति को ‘मिसरा’ कहते हैं। ‘शेर’ की प्रथम पंक्ति को ‘मिसरा-ए-ऊला (प्रथम मिसरा) तथा द्वितीय पंक्ति को ‘मिसरा-ए-सानी’ (द्वितीय मिसरा) कहते हैं।
‘क़ाफ़िया’ - अन्त्यानुप्रास अथवा तुक को ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। इसके प्रयोग से ‘शेर’ में अत्यधिक लालित्य उत्पन्न हो जाता है। ‘क़ाफ़िया’ का स्वर परिवर्तनशील नहीं होता (उच्चारण समान रहता है) शब्द परिवर्तन अवश्य होता है।
उदाहरण -‘हो सकी किससे यहाँ मेरे लिये तदवीर कुछ,
सोचता था बदले शायद मेरी तकदीर कुछ।
वो खुदा से कम न थे मेरे लिये पहले कभी,
अजनबी से देखते हैं अब मेरी तस्वीर कुछ।
अब तो लगते हैं फसाने मेरे कदमों के निशां,
रास्तों से बात करते हैं मेरे राहगीर कुछ।’ (चीखते सन्नाटे-पृथ्वी नाथ पाण्डेय)
यहाँ ‘तदवीर, तकदीर, तस्वीर, राहगीर’ शब्द क़ाफ़िया कहे जायेंगे।
‘रद़ीफ़’ - ‘शेर’ में क़ाफ़िया के बाद आने वाले शब्द अथवा शब्दावली को ‘रदीफ़’ कहते हैं। ‘रदीफ़’ का शाब्दिक अर्थ होता है - ‘पीछे चलने वाली’। ‘क़ाफ़िया’ के बाद ‘रदीफ़’ के प्रयोग से ‘शेर’ का सौन्दर्य और अधिक बढ़ जाता है, अन्यथा शेर में ‘रदीफ़’ का होना भी आवश्यक नहीं है। रदीफ़ रहित ग़ज़ल या शेरों को ‘गैर मुरद्दफ’ कहते हैं। (काफिया के उदाहरणार्थ शेरों में ‘कुछ’ शब्द रदीफ़ कहा जायेगा)
‘मतला’ - ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मतला’ कहते हैं, जिसके दोनों मिसरों में क़ाफ़िया होता है। यदि दोनों मिसरों में क़ाफ़िया न हो तो प्रथम शेर होने के बाद भी ‘शेर’ को मतला नहीं कहा जा सकता। एक ग़ज़ल में एक से अधिक मतले भी हो सकते हैं, जिन्हें ‘हुस्ने-मतला’ कहा जाता है। (काफिया में उदाहरणार्थ शेरों में प्रथम शेर मतला कहलायेगा, इसके दोनों मिसरों में क़ाफ़िया क्रमशः तदबीर, तकदीर है)
‘मक्ता’ - ग़ज़ल के अन्तिम ‘शेर’ को ‘मक्ता’ कहते हैं, इसमें शाइर अपना उपनाम सम्मिलित करता है (उपनाम को उर्दू भाषा में ‘तखल्लुस’ कहते हैं) यदि ग़ज़ल के अन्तिम शेर में शाइर का उपनाम सम्मिलित न हो तो उसे भी सामान्य ‘शेर’ ही माना जायेगा।
उदाहरण - ‘कितना बदनसीब है ‘ज़फर’ दफ़न के लिये,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।’
(यहाँ ‘जफर’ तख़ल्लुस है)
‘बह्र’ - लय और संगीतात्मकता की दृष्टि से जिस सूत्र (छन्द) के आधार पर शेर की रचना की जाती है, उस सूत्र को ‘बह्र’ कहते हैं। ‘बह्रें’ अनेक प्रकार की होती हैं।
(अभी इतना ही, अगले अंक में कुछ और जानकारी)
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41/1, नारोभास्कर, जालौन (उ. प्र.) 285123

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