Wednesday, January 28, 2009

साहित्यकार हाशिए पर ?

साहित्यकार हाशिए पर ?

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‘स्पंदन’ का प्रवेशांक आपके हाथों में सुशोभित है, आशा है आगे भी पल्लवित पुष्पित होता रहेगा। साहित्यिक पत्रिकाओं की गौरवशाली, समृद्ध परम्परा के बीच कई स्थापित पत्रिकाओं के अस्तित्व को समाप्त होते देखा है; अनेक पत्रिकाओं को अस्तित्व में आते देखा है। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा होता है कि ‘साहित्य और संस्कृति की रचनाशीलता के रेखांकन’ की क्या आवश्यकता आन पड़ी, वह भी तब जबकि साहित्यिक पत्रिकाओं की व्यापक उपस्थिति है। साथ ही यह भी कि क्या ‘स्पंदन’ स्वाभाविक रूप से अपनी उपस्थिति सिद्ध कर पायेगी ? यहाँ साहित्य और संस्कृति की रचनाशीलता के रेखांकन के प्रवेशांक के माध्यम से कुछ बात दिल की रखना है -
प्रथम तो यह कि बड़े शहरों से प्रकाशित होती बड़ी-नामी पत्रिकायें नामी और स्थापित साहित्यकारों (रचनाकार नहीं) की ओर दौड़ती हैं। ऐसे में क्षेत्रीय स्तर के रचनाकार मात्र रचना करते ही रह जाते हैं और उनकी प्रतिभा एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रह जाती है। यह दो टूक स्वीकारोक्ति है कि ‘स्पंदन’ के द्वारा बुन्देलखण्ड की और देश के अन्य भागों की ऐसी रचनाशील प्रतिभा को प्रकाशन का अवसर प्रदान करना है जिन्हें नामी पत्रिकायें हेय दृष्टि से देखती हैं।

दूसरे विडम्बना यह है कि देश का हर दूसरा तीसरा व्यक्ति स्वयं को साहित्यकार बताता है, परन्तु असल में साहित्यकार है कौन अभी तक यह परिभाषित (मेरी समझ से) नहीं हो सका है। कभी-कभी फिल्मी और क्रिकेट सितारों की अपार लोकप्रियता देखकर स्थापित साहित्यकारों को मानसिक कष्ट होता है कि देश में साहित्यकार हाशिए पर क्यों है ? हाल ही में स्व. श्री हरिवंश राय ‘बच्चन’ की स्मृति में लखनऊ में आयोजित काव्य-गोष्ठी में प्रख्यात व्यंग्य कवि अशोक चक्रधर जी ‘बच्चन जी’ का विशालकाय चित्र देखकर विस्मय से स्वीकारते हैं कि उन्होंने पहली बार किसी साहित्यकार का इतना बड़ा चित्र देखा हैं। क्या ‘बच्चन जी’ का विशालकाय चित्र उनके महानायक पुत्र अमिताभ की प्रतिच्छाया नहीं कही जायेगी ? इसी स्थान पर आकर स्थापित रचनाकार (साहित्यकार नहीं) सोचें कि वे लोग हाशिए पर क्यों हैं ?
नामी रचनाकारों द्वारा स्वयं को बड़ा साहित्यकार सिद्ध करना, नवोदित रचनाकारों की उपेक्षा करना, छोटी और क्षेत्रीय साहित्यिक पत्रिकाओं को रचनात्मक सहयोग न देना, नये रचनाकारों की रचनाओं को बिना पढ़े कूड़ा-करकट घोषित करना, कहीं न कहीं रचनाधर्मिता के क्षेत्र में खेमेबन्दी को जन्म देता है। एक छोटा सा फिल्मी कलाकार ग्रामीण अंचलों में भी पहचाना जाता है पर देश के वर्तमान स्थापित साहित्यकारों को बड़े शहरों के अधिसंख्यक लोग भी नहीं जानते हैं। स्थापित और नामी रचनाकारों को न जानने और न पहचानने का कारण इन रचनाकारों का क्षेत्रीय स्तर की पत्रिकाओं में लेखन से बचते रहना है। जो दो एक स्थापित रचनाकारों के नाम क्षेत्रीय स्तर की पत्रिकाओं में आते भी हैं, वे किसी न किसी की जुगाड़ के सहारे, किसी न किसी के ‘थ्रू’। ऐसे में ज्यादातर लोगों की पहुँच से दूर इन रचनाकारों के सामने पहचान का, अस्तित्व का संकट पैदा होगा ही।

तीसरे यह कि क्षेत्रीय स्तर पर जो पत्रिकायें (स्वयंभू साहित्यकारों की भाषा में लघु पत्रिकायें) अस्तित्व में आई भी हैं उन्हें अपनी क्षेत्रीयता को त्याग कर अखिल भारतीय स्तर पर खड़ा होने की घुट्टी पिलाई जाती है; अन्य पत्रिकाओं से कुछ अलग कर दिखाने का उपदेश दिया जाता है, परिणामतः उनकी दशा धोबी के कुत्ते सरीखी हो जाती है। अखिल भारतीय स्तर पर पहचान बनाने की जद्दोजहद में वे क्षेत्रीय एवं नये रचनाकारों को विस्मृत कर देती हैं और स्थापित रचनाकारों का रचनात्मक सहयोग भी प्राप्त नहीं कर पाती हैं। स्पष्ट है कि ऐसे में पत्रिका के सामने अस्तित्व को मिटाने के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं होता है।
किसी भी रचनाकार अथवा पत्रिका का अस्तित्व पाठकों पर निर्भर करता है। एक रचनाकार अच्छे रचनाकार के रूप में पहचाना जाये; लोग उसे साहित्यकार समझें; उनकी रचनाओं को आत्मसात् करें; उसको ग्राम-अंचल तक भी लोग पहचानें, वही रचनाकार स्थापित है वर्ना हाशिए पर तो समस्त रचनाकार पड़े हैं। मात्र गालियों भरी रचना कर, किलष्टता का प्रयोग कर, अपने नाम के सहारे प्रकाशनों की संख्या बढ़ाकर, प्रायोजित पुरस्कार अथवा सम्मान पाकर कोई रचनाकार साहित्यकार नहीं हो जाता। उसका पाठक कहाँ है ? जन-जन के हृदयंगम हुई रचना और रचनाकार ही साहित्य और साहित्यकार है। कबीर का फक्कड़पन, सूरदास की भक्ति, मीराबाई के भजन, तुलसी की रामचरित मानस क्यों वर्षों बाद भी घर-घर में स्थान प्राप्त किये हैं, ग्रामीण जनों के भी हृदय में विराजमान है ? यदि रचनाकार यही समझ लें तो उसके भीतर छिपा साहित्यकार कभी भी हाशिए पर नहीं रहेगा; साहित्यिक पत्रिकाओं के ऊपर कभी भी अस्तित्व का संकट नहीं गहरायेगा। खैर .............. बात दिल की थी सो कह दी।
‘स्पंदन’ की कालावधि कितनी है, परिधि कितनी है यह तो पाठकों और रचनाकारों पर निर्भर है। हमारा प्रयास कर्म करना है; अपने लोगों को अपने लोगों के बीच तक पहुँचाना है। प्रख्यात हिन्दी गज़लकार दुष्यन्त कुमार के शब्दों में-
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
शेष भविष्य के गर्भ मे छिपा है। प्रतिक्रियाओं सुझावों की प्रतीक्षा रहेगी।

शुभकामनाओं सहित

सम्पादकीय सम्पर्क

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Tuesday, January 20, 2009

स्पंदन के बारे में

स्पंदन
साहित्य एवं संस्कृति की रचनाशीलता का
रेखांकन
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स्पंदन एक चौमासिक साहित्यिक पत्रिका है। इसके द्वारा नए रचनाकारों को अधिक्से अधिक स्थान देने का प्रयास किया जा रहा है। यदि कहें कि स्पंदन के सहारे से एक रचनात्मक आन्दोलन चलाने की पहल की गई है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

‘स्पंदन’ के द्वारा हमारा यह प्रयास है कि साहित्य एवं संस्कृति की सार्थक रचनाशीलता को सामने लाया जा सके। साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में उभरते चले आ रहे स्वयं भू मठाधीशों की एकछत्र सत्ता से साहित्य के पाठकों को क्षति ही पहुँची है। कुछ भी लिख देना साहित्य नहीं है, इसी प्रकार कुछ भी लिख देने वाला, साहित्यकार नहीं है। जन-जन तक रचनाधर्मियों की रचनाशीलता को पहुँचाने के हमारे प्रयास को आप (पाठकजन) भी सार्थक करें। स्पंदन स्वयं आप पढ़े, अपने परिवारजनों और मित्रों को पढ़ने को प्रोत्साहित करें। एक-एक के प्रयास से ही साहित्य एवं संस्कृति की रचनाशीलता का रेखांकन सार्थक सिद्ध होगा।

रचनाकारों से

  • रचनाकारों से निवेदन
  • स्पंदन साहित्य एवं संस्कृति की सार्थक रचनाशीलता के प्रकाशनार्थ आपका अपना मंच है। अपने रचनात्मक सहयोग से इसे मजबूती प्रदान करें।
  • साहित्य की समस्त विधाओं के साथ-साथ कला एवं संस्कृति से सम्बन्धित रचनायें भी प्रकाशित की जायेंगी।
  • रचना पर्याप्त हाशिया छोड़कर फुलस्केप कागज पर एक ओर टंकित/कम्प्यूटर मुद्रित अथवा सुलिखित होनी अपेक्षित है। हस्तलिखित स्थिति में रचना स्वच्छ, स्पष्ट, सुमच्य होनी चाहिये।
  • रचना की मूल प्रति प्रेषित करें, छाया प्रति अथवा कार्बन प्रति स्वीकार्य नहीं होगी।
  • पुस्तकों/पत्रिकाओं पर समीक्षात्मक आलेख आमंत्रित हैं। आलेख के साथ समीक्ष्य पुस्तक/पत्रिका की दो प्रतियां संलग्न करें। पुस्तकों/पत्रिकाओं की समीक्षा सम्भव हैं समीक्षार्थ दो प्रतियां भेजें।
  • अस्वीकृत रचनाओं की वापसी सम्भव नहीं है किन्तु पर्याप्त डाक टिकट लगे, पता लिखा लिफाफा संलग्न होने पर अस्वीकृत रचना वापस की जा सकेगी।
  • स्पंदन अपनी आरम्भिक अवस्था में है। अतः प्रकाशित रचनाओं पर कृपया मानदेय की अपेक्षा अभी न करें। रचना प्रकाशित होने पर पत्रिका प्रेषित की जायेगी। यथासम्भव अपना परिचय तथा पूरा पता अवश्य दें। ऐसा न होने पर पत्रिका भेजना सम्भव न होगा।
  • पत्रिका के सीमित आकार/पृष्ठों को ध्यान में रख कृपया लम्बी रचना भेजने से बचें।
  • रचनायें सम्पादकीय पते पर ही प्रेषित करें।

सम्पादक मंडल

संरक्षक
डॉ0 दुर्गा प्रसाद श्रीवास्तव
श्रीमती ऊषा सक्सेना
डॉ0 दिनेश चन्द्र द्विवेदी
श्री विनोद गौतम

प्रधान सम्पादक
डॉ0 ब्रजेश कुमार

सम्पादक
डॉ0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

प्रबंध संपादक
डॉ0 दुर्गेश कुमार सिंह
डॉ0 लखनलाल पाल

आवरण परिकल्पना
पुष्पांजलि राजे

उसने कहा था

उसने कहा था
चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’


बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गये हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बोली की मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चैड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुये, इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-सम्बन्ध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की उँगलियों के पोरों को चीथकर अपने ही को सताता हुआ बताते हैं और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं; तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लड्ढी वाले के लिये ठहरकर सब्र का समुद्र उमड़ाकर ‘बचो खालसाजी!’ ‘हटो माईजी !’ ‘ठहरना भाई !’ ‘आने दो लाला जी !’ ‘हटो बाछा !’ कहते हुये सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तखों, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल में राह खेते हैं। क्या मजाल है कि ‘जी’ और ‘साहब’ बिना सुने किसी को हटना पड़े ! यह बात नहीं कि इनकी जीभ चलती ही नहीं; चलती है, पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -

‘हठ जा जीणे जोगिए; हट जा करमावालिए, हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा, लम्बी उमराँ वालिए !’’ समष्टि में इनके अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्यों वाली है, पुत्रों को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिये के नीचे आना चाहती है ? .............. बच जा।
ऐसे बम्बूकार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चैक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिक्ख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिये दही लेने आया था, और यह रसोई के लिये बड़ियां ! दूकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
‘‘तेरे घर कहां हैं ?’’
‘‘मगरे में; - और तेरे ?’’
‘‘माझे में; - यहां कहां रहती है ?’’
‘‘अतर सिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।’’
‘‘मैं भी मामा के यहां आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।’’
इतने में दूकानदार निबटा और इनको सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुस्कराकर पूछा-‘‘तेरी कुड़माई हो
गई ? ’’ इस पर लड़की कुछ आंखें चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।

दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहां, दूध वाले के यहां, अकस्मात् दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, ‘‘तेरी कुड़माई हो गई ?’’ और उत्तर में वही धत् मिला। एक दिन जब लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिये पूछा तो लड़की, लड़के की सम्भावना के विरुद्ध बोली,-‘‘हां, हो गई।’’
‘‘कब ?’’
‘‘कल; देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ ‘साल’।’’
लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन-भर कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभी वाले के ठेले में दूध उँडेल दिया। सामने नहाकर आती हुई किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।

(2)


‘‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खन्दकों में बैठे-बैठे हड्डियां अकड़ गई। लुधियाना से दन गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुये हैं। गनीम कहीं दीखता नहीं,-घण्टे-दो-घण्टे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खन्दक हिल जाती हैं और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का ज़लज़ला सुना था, यहां दिन में पच्चीस ज़लज़ले होते हैं। जो कहीं खन्दक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुये हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।’’

‘‘लहना सिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खन्दक में बिता ही दिये। परसों ‘रिलीफ’ आ जायेगी, और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खाकर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में मखमल की सी हरी घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं पर दाम नहीं लेती। कहती है तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आये हो।’’
‘‘चार दिन तक पलक नहीं झँपी। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ाकर मार्च का हुक्म मिल जाये। फिर सात जर्मनों को अकेला मारकर न लौटूँ तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े-संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था-चार मील तक जर्मन नहीं छोड़ा था। पीछे जनरल साहब ने हट आने का कमान दिया, नहीं तो’’
‘‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते। क्यों ?’’ सूबेदार हजारा सिंह ने मुस्कराकर कहा-‘‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाई नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गये तो क्या होगा।’’
‘‘सूबेदार जी, सच है,’’ लहना सिंह बोला-‘‘पर करें क्या ? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं और खाई में दोनों तरफ से चम्बे की बावलियों के-से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाये, तो गर्मी आ जाये।’’
‘‘उदमी, उठ, सिगड़ी में कोयले डाल। वजीरा, तुम चार जने बाल्टियाँ लेकर खाई का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदला दे।’’ यह कहते हुये सूबेदार सारी खन्दक में चक्कर लगाने लगे।

वजीरा सिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भरकर खाई के बाहर फेंकता हुआ बोला-‘‘मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’’ उस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गये।
लहना सिंह ने दूसरी बाल्टी भरकर उसके हाथ में देकर कहा-‘‘अपनी बादी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।’’
‘‘हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमाव जमीन यहीं माँग लूंगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।
‘‘अच्छा अब बोधा सिंह कैसा है ?’’
‘‘अच्छा है।’’
‘‘जैसे मैं जनता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने दोनों कम्बल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है मौत है, और निमोनियां से मरने वालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।’’
‘‘मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरत सिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुये आंगन के आम के पेड़ की छाया होगी।’’
वज़ीरा सिंह ने त्योरी चढ़ाकर कर कहा-‘‘क्या मरने-मारने की बात लगाई
है ? मरे जर्मन और तुरक ! हां भाइयो, कैसे ........’’
सारी खन्दक गीत से गूंज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गये, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।

(3)


दो पहर रात गई। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधा सिंह खाली बिस्कुटों के तीन टिनों पर अपने कम्बल बिछाकर और लहना सिंह के दो कम्बल और एक बरानकोट ओढ़कर सो रहा है। लहना सिंह पहरे खड़ा हुआ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और एक बोधा सिंह के दुबले शरीर पर। बोधा सिंह कराहा।
‘‘क्यों बोधा भाई, क्या है ?’’
‘‘पानी पिला दो।’’
लहना सिंह ने कटोरा उसके मुँह में लगाकर पूछा-‘‘कहो कैसे हो ?’’
पानी पीकर बोधा बोला-कँपनी छूट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दांत बज रहे हैं।’’
‘‘अच्छा मेरी जरसी पहन लो।’’
‘‘और तुम ?’’
‘‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है, पसीना आ रहा है।’’
‘‘ना, मैं नहीं पहनता; चार दिन से तुम मेरे लिये .......’’
‘‘हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आई है। विलायत से मेंमे बुन-बुनकर भेज रही हैं। गुरू उनका भला करे।’’ यों कहकर लहना अपना कोट उतारकर जरसी उतारने लगा।
‘‘सच कहते हो।’’
‘‘और नहीं झूठ !’’ यों कहकर नाहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता-भर पहनकर पहरे पर जा खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
आधा घंटा बीता। इतने में खाई के मुँह से आवाज आई-‘सूबेदार हजारा
सिंह ?’’
‘‘कौन लपटन साहब ? हुकुम हुजूर !’’ कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके सामने हुआ।

‘‘देखो इसी समय धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई हैं। उसमें पचास से जियादह जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनमें जा मिलो। खन्दक छीनकर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।’’ ‘‘जो हुकुम।’’
चुपचाप सब तैयार हो गये। बोधा भी कम्बल उतारकर चलने लगा, तब लहना सिंह ने उसे रोका। लहना सिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहना सिंह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना नही चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेरकर खड़े हो गये और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्हांेंने लहना की ओर हाथ बढ़ाकर कहा-‘‘लो, तुम भी पियो।’’
आँख मारते-मारते लहना सिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपाकर बोला-‘‘लाओ साहब !’’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में कहाँ उड़ गये और उनकी जगह कैदियों से कटे हुये बाल कहाँ से आ गये ?
शायद शराब पिये हुये हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है। लहना सिंह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
‘‘क्यों साहब हम लोग हिन्दुस्तान कब जायेंगे?’’ ‘‘लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसन्द नहीं ?’’

‘‘नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ ? याद है पारसल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गये थे-हाँ-हाँ, वहीं जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मन्दिर में जल चढ़ाने को रह गया था ? बेशक पाजी कहीं का !’-सामने से वह नीलगाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थी। और आपकी एक गोली कन्धे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा आता हैं। क्यों साहब ! शिमले से तैयार होकर उस नीलगाय का सिर आ गया था न ? आपने कहा था कि रेजिमेंट की मैस में लगायेंगे। हाँ, पर मैंने वह विलायत भेज दिया !’-ऐसे बड़े-बड़े सींग ! दो-दो फुट के तो होंगे ?’’
‘‘हाँ लहना सिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया ?’’
‘‘पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ।’’-कहकर लहना सिंह खन्दक में घुसा। अब उसे सन्देह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिये।
अँधेरे में किसी सोने वाले से वह टकराया।
‘‘कौन ? वजीरा सिंह ?’’
‘‘हाँ क्यों लहना ? क्या कयामत आ गई ? जरा तो आँख लगने दी होती !’’

(4)


‘‘होश में आओ। कयामत आई और लपटन साहब की वर्दी पहनकर आई है।’’
‘‘क्या ?’’
‘‘लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये है। उनकी वर्दी पहनकर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साफ उर्दू बोलता हैंः पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।’’
‘‘तो अब ?’’
‘‘अब मारे गये। धोखा। सूबेदार होराँ कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा। उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आएँ। खन्दक की बात झूठ हैं। चले जाओ। खन्दक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।’’
‘हुकुम तो यह है कि यही ........’’
‘‘ऐसी तैसी हुकुम की ! मेरा हुकुम-जमादार लहना सिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।’’
‘‘पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।’’
‘‘आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिक्ख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।’’
लौटकर खाई के मुहाने पर लहना सिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खन्दक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार-सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी पर रखने वाले थे ........

बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बन्दूक को उठाकर लहना सिंह ने साहब की कोहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी लहना सिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा। और साहब ‘आँख ! मीन गौट्ट।’’ कहते हुये, चित हो गये। लहना सिंह ने तीनों गोले बीनकर खन्दक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफ और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
साहब की मूर्छा हटी। लहना सिंह हटकर बोला-‘क्यों लपटन साहब ! मिजाज कैसा है ? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिक्ख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती है और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आये ? हमारे लपटन साहब बिना डैम के पांच लफ्ज़ भी नहीं बोल सकते थे।’
लहना ने पतलून की जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानों जाड़े से बचने के लिये दोनों हाथ जेबों में डाले।
लहना सिंह कहता गया-‘चालाक तो बड़े हो, पर माझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा हैं उसे चकमा देने के लिये चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुये एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतों के बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चैधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पण्डित हैं। वेद पढ़-पढ़कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नही मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गौ हत्या बन्द कर देंगे। मण्डी के बनियों को बहकाता था कि डाकखाने से रुपया निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाकबाबू पील्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्ला जी की दाढ़ी मूँड़ दी थी और गाँव से बाहर निकलकर कहा था कि जो मेरे गांव में अब पैर रखा तो ..........

साहब की जेब से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिनी के दो फायरों ने साहब की कपाल क्रिया कर दी। धड़ाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया-‘क्या है ?’
लहना सिंह ने उसे यह कहकर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया ‘और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बन्दूकें लेकर तैयार हो गये। लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनों ओर पट्टियां बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्ठियों के कसने से लहू निकलना बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिक्खों की बन्दूकों की बाढ़ ने पहले धावे से रोका, दूसरे को रोका, पर यहाँ थे आठ (लहना सिंह तक तककर मार रहा था-वह खड़ा था, और सब लेटे हुये थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुस आते थे। थोड़े से मिनटों में वे ........
अचानक आवाज आई-‘‘वाह गुरूजी दी फतह ! वाह गुरूजी दा खालसा !!’’ धड़ाधड़ बन्दूकों से फ़ायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन चक्की के दो पाटों के बीच में आ गये। पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहना सिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
एक किलकारी और-अकाली सिक्खाँ दी फौज आई ! वाह गुरूजी दी
फतह ! वाह गुरूजी दा खालसा !! सत्श्री अकाल पुरुख !!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे या कराह रहे थे। सिक्खों में पन्द्रह के प्राण गये। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर-पार निकल गई। लहना सिंह की पसली में एक गोली लगी, उसने घाव को खन्दक की गीली मिट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कसकर कमरबन्द की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव-भारी घाव-लगा है।

लड़ाई के समय चाँद निकल आया था-ऐसा चाँद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ ‘क्षयी’ नाम सार्थक होता है और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरा सिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन-भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहना सिंह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मर जाते।
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाइ्र वालों ने सुन ली थी। उन्होंने टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं जो कोई डेढ़ घण्टे के अन्दर-अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जायेंगे, इसलिये मामूली पट्टी बाँधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गये और दूसरी में लाशें रखी गई। सूबेदार ने लहना सिंह की जांघ में पट्टी बँधवानी चाही, पर उसने यह कहकर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। बोधा सिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा-‘‘तुम्हें बोधा की कसम हैं, और सूबेदारनीजी की सौगन्ध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।’’
‘‘और तुम ?’’
‘‘मेरे लिये वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुर्दो के लिये भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ ? वजीरा सिंह मेरे पास है ही।’’
‘‘अच्छा, पर’’
‘‘बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला ! आप भी चढ़ जाओ। सुनिये तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्टी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था, वह मैंने कर दिया।
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा-‘‘तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा ? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना, उसने क्या कहा था ?’
‘‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना। गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया।-‘‘वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।

(5)

मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनायें एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं, समय की धुन्ध बिलकुल उन पर से हट जाती हैं।
लहना सिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दही वाले के यहाँ, सब्जी वाले के यहाँ, हर कहीं उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता हैं, तेरी कुड़माई हो गई ! तब ‘धत्’ कहकर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा-‘‘हाँ, कल हो गई, देखते नहीं, यह रेशम के फूलों वाला सालू ?’’ सुनते ही लहना सिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
‘‘वजीरा सिंह, पानी पिला दो।’’
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पच्चीस वर्ष बीत गये। आज लहना सिंह नं. 77 रैफल्स में जमादार हो गया। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न मालूम वह कभी मिली थी या नहीं। सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेण्ट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारा सिंह की चिट्ठी कि मैं और बोधा सिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुये हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहना सिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे तब सूबेदार बेड़े में से निकलकर आया। बोला-‘‘लहना ! सूबेदारनी तुझको जानती हैं, बुलाती हैं। जा, मिल आ।’’
लहना सिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं ? कब से ? रेजिमेण्ट के क्वार्टरों में कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जाकर ‘मत्था
टेकना !’ कहा। असीस सुनी। लहना सिंह चुप।
‘मुझे पहचाना ?’
‘‘नहीं।’’
‘‘तेरी कुड़माई हो गई-धत्-कल हो गई-देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू-अमृतसर में-’’
भावों की टकराहट से मूछाँ खुली। करवट बदली, पसली का घाव बह निकला।
‘वजीरा पानी पिला।’ ‘उसने कहा था।’

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स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है-‘‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गये। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घघरिया पलटन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदार जी के साथ चली जाती ? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।’’ सूबेदारनी रोने लगी। ‘‘अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग्य ! तुम्हें याद है, एक दिन टाँग वाले का घोड़ा दही वाले की दूकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ों की लातों में चले गये थे और मुझे उठाकर दूकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।’’
रोती-रोती सूबेरदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोछता बाहर आया।
‘वजीरा सिंह, पानी पिला’-उसने कहा था।’
लहना का सिर गोद में रखे वजीरा सिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध-घण्टा तक लहना चुप रहा, फिर बोला-‘‘कौन ! कीरत सिंह ?’’
वजीरा ने कुछ समझकर कहा-‘‘हाँ।’’
‘‘भइया, मुझें और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।’’
वजीरा ने वैसा किया।
‘‘हाँ अब ठीक है। पानी पिला दे। बस अबके हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यही बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।’’
वजीरा सिंह के आंसू टप-टप टपक रहे थे।

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कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा-फ्रांस और बेल्जियम, 68वीं सूची-मैदान में घावों से मरा-नं. 77 सिक्ख राइफल्स जमादार लहना सिंह।

(कहानी विविधा, सं - डाॅ। देवी शंकर अवस्थी, राजकमल प्रकाशन से साभार)

विद्यापति का आधुनिक युग को संदेश

विद्यापति का आधुनिक युग को संदेश
दुर्गाप्रसाद श्रीवास्तव

विद्यापति श्रृंगार के चतुर चितेरे के रूप में ख्यात हैं। उनके श्रृंगार-सरोवर में भक्ति के सरोज भी यत्र-तत्र खिल रहे हैं। भक्ति और श्रृंगार का ऐसा संगम अन्यत्र दुर्लभ है। श्रृंगार की उत्तुंग शिलाओं में लुकती-छिपती भक्ति की अन्तः सलिला जीवन-संध्या के तट पर आकर भागीरथी का जो रूप धारण कर लेती है, उसका पावन जल भक्ति और रीतिकाल के अनेक कवियों के काव्य-घटों में छलकता हुआ दिखाई पड़ता है। भक्ति और श्रृंगार की गंगा-यमुना के एक साथ दर्शन हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम विद्यापति के काव्य में ही होते हैं। ‘गीत गोविन्द’ संस्कृत की कृति है। अतएव भक्ति और श्रृंगार के समन्वय का उद्गम ‘पदावली’ में ही माना जायेगा। विद्यापति जैसा मानव मन का पारखी कवि शायद ही कोई मिले। पाठक को पता ही नहीं लगता कि वह श्रृंगार-सरिता में डूबते उतराते भक्ति के सुरम्य तट पर कब आकर खड़ा हो जाता है। श्रृंगार की माधवी-लताओं के बीच भक्ति की वल्लरी किस प्रकार लहलहाती रही, इसका आकलन अभी अधूरा है अर्थात् विद्यापति की भक्त्यात्मक चेतना का विकास अभी गवेषणीय है। उन्होंने वैभव और विलास की भूमि पर भक्ति का वट कैसे उगाया, यह रोचक अनुसंधेय विषय है। यह हमारा प्रतिपाद्य नहीं। इस अनुच्छेद में हमारा अभीष्ट इतना ही है कि विद्यापति के अधिकांश पाठक उन्हें भक्त या श्रृंगारी कवि के रूप में ही जानते हैं और यह सत्य भी है। उनका काव्य-प्रासाद वैभव-विलास की आधार-शिला पर खड़े होकर भक्ति और अध्यात्म की ऊँचाईयों का स्पर्श करने लगता है।

इस प्रकार आधुनिक भौतिकवादी युग में इसकी प्रासंगिकता पर प्रश्न सूचक चिन्ह लग जाता है। मानवीय भावनाओं की रमणीय अभिव्यक्ति होने से विद्यापति का काव्य अप्रांसगिक कभी नहीं हो सकता। कर्म की ऊँची चट्टान पर चढ़ते-चढ़ते व्यक्ति जब थक जाता है, तब वह इसी स्रोत के समीप आकर श्रम-परिहार करता है; आगे के कर्मों के लिये यहीं से नयी ऊर्जा प्राप्त करता है। भौतिकवादी युग में कविता की प्यास और भी अधिक बढ़ जाती है। मानव-भावों का नत्र्तन भी इसी प्रांगण में देखने को मिलता है। इस रूप में विद्यापति की कविता सदैव ताजी रहेगी। उसकी नित-नूतनता असंदिग्ध है। साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ सार्वभौम होता है। जो साहित्य केवल जातीय या युगीन परिस्थितियों के खाद्य से पोषित होता है, वह अधिक दिन तक जीवित नहीं रहता। विद्यापति के काव्य में एक ओर उनका समाज और युग बोल रहा है, तो दूसरी ओर सार्वभौम भावनाओं के स्वर फूट रहे हैं। ‘पदावली’ में चित्रित समाज उच्चवर्गीय है, तत्कालीन सामान्यजन के चित्रण का वहाँ अभाव है। उसे जनवादी काव्य कहना कठिन है। राजसी-सामंती काव्य के कोने में जनवादी भावना भी कुण्डली मारे बैठी है, इस ओर कम ही पाठकों का ध्यान गया है। लोक-चेतना या युग-बोध की क्षीण रेखाओं की ओर ध्यान देने वाले पाठक कम ही हैं। इस लघु लेख में विद्यापति के एक ऐसे ही पद की ओर संकेत मात्र करना हमारा अभीष्ट है। प्रवृत्ति-निवृत्ति, भोग-योग, प्रेय-श्रेय, लोक-परलोक, धरती-आकाश, व्यष्टि-समष्टि का समन्वय भारतीय साधना का वैशिष्ट्य रहा है। विद्यापति का काव्य भी इसी सामंजस्य का प्रतीक है। उनका राधा-कृष्ण सम्बन्धी श्रृंगार ईरानी प्रेम की औपवनिक ऐकान्तता का स्मरण कराता है, पर शिव-पार्वती के प्रेम में राम-सीता के भारतीय अनुराग की झलक मिलती है। इस प्रेम से कर्म-क्षेत्र का कण-कण भास्वर हो उठता है; तृण-तृण स्पन्दित होने लगता है। ईरानी प्रेम की औपवनिक ऐकान्तता का स्मरण कराता है, पर शिव-पार्वती के प्रेम में राम-सीता के भारतीय अनुराग की झलक मिलती है। इस प्रेम से कर्म-क्षेत्र का कण-कण भास्वर हो उठता है; तृण-तृण स्पन्दित होने लगता है।

सक्रियता चेतना तथा निष्क्रियता जड़ता कही जाती है। प्रथम की कुक्षि से सम्पन्नता और द्वितीय के गर्भ से विपन्नता का जन्म होता है। सम्मान का शिशु सम्पन्नता की गोद में ही खेलता है। विपन्नता के मंच पर असत्कार का ताण्डव होता है। इस सत्य का उद्घाटन पार्वती के शब्दों में द्रष्टव्य है:-
‘‘बेरि बेरि अरे सिव, मों तोय बोलों,
फिरसि करिय मन माय।
बिन संक रहह, भीख मांगिए पय,
गुन गौरव दुर जाय।
निरधन जन बोलि सब उपहासए,
नहि आदर-अनुकंपा।
तोहे सिव, आक-धतुर-फुल पाओल,
हरि पाओल फुल चंदा
खटंग काटि हर हर जे बनाबिय,
त्रिसुल तोड़िय करु फार।
बसहा धुरंधर हर लए जोतिए,
पाटए सुरसरि धार।।
भन विद्यापति, सुनहु महेसर,
इ लागि कएलि तुअ सेबा।
एनए जे बर, से बर होअल,
ओतए जाएब जनि देबा।।’’
(विद्यापति: संपादक - डॉ0 मनोहर लाल गौड़, पद 14)

विद्यापति का यह संदेश तत्कालीन वैभव-विलासोद्भूत जड़ता को दूर करने वाला ही नहीं, अपितु निवृत्ति को प्रवृत्ति की ओर मोड़ने वाला है। कोरा वैराग्य-तप जीवन का सत्य नहीं। जीवन का एक पक्ष योग है, तो दूसरा भोग। एक चेतन है, तो दूसरा जड़; एक निष्क्रिय है, तो दूसरा सक्रिय। एक को पुरुष कहते हैं, तो दूसरे को प्रकृति। वेदांत इन्हें ब्रह्म और माया के अभिधान प्रदान करता है। शिव-पार्वती इन्हीं पक्षों के द्योतक हैं। शिव निवृत्ति के प्रतीक हैं तथा पार्वती प्रवृत्ति की द्योतिका हैं। वे शिव के लिये कर्म की प्रेरणा-स्रोत हैं। भारतीय प्रेम कर्म का प्रेरक रहा है। पत्नी अपने पति के अस्तित्व को अपनी श्रृंगार-मंजूषा में बन्द नहीं रखना चाहती। भारतीय दाम्पत्य प्रेम की ज्योति से लोक-मंगल का कोना-कोना आलोकित हो उठता है। उक्त पद में इसी प्रेम का प्रदीप प्रज्वलित किया गया है। विद्यापति के युग से लेकर आज तक इसकी शिखा निष्कंप भाव से जागरित है आगे भी इसी प्रकार जलती रहेगी। निष्क्रिय तप, वैराग्य एवं अध्यात्म का विरोध आधुनिक बोध के नाम से अभिहित किया जाता है। मध्यकाल में आधुनिक चेतना की अभिव्यक्ति विद्यापति की असामान्य प्रतिभा की द्योतिका कही जा सकती है। भिक्षा-वृत्ति और अकर्मण्यता की निन्दा जैसे आज की जाती है, वैसे ही मध्यकाल में भी की गई। विद्यापति के बाद रहीम ने भी ऐसी ही बात कही-‘रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ माँगन जायँ।’विद्यापति इस कटु सत्य से परिचित थे कि सभी गुण कांचनाश्रित होते हैं-‘सर्वेः गुणाः का×चनमाश्रयन्ति।’ जो लोग आधुनिक युग को अर्थ-युग कहते हैं, उन्हें विद्यापति के इस पद को अवश्य देखना चाहिये। आर्थिक युग का स्वर इस पद में पहले से ही मुखर है। ऐसा लगता है कि कवि की प्रतिभा ने इस युग के दर्शन 600 वर्ष पूर्व कर लिये थे। प्रगतिवादी या माक्र्सवादी कवि अपने काव्य के बीज यहाँ ढूँढ़ सकते हैं। उन्हें यहाँ भी पूँजीवाद की गंध आ सकती है, क्योंकि वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा वर्ग की प्रभुता एवं पूंजी का समान वितरणादि प्रगतिवादी विशेषताओं का उल्लेख इस पद में नहीं हो सका है। उन्हें प्रगतिवाद की दो विशेषतायें तो मिल ही जायेंगी-भिक्षा-वैराग्य का विरोध तथा श्रम का महत्व। श्रम का महत्व कृषि-प्रधान भारतीय संस्कृति के अनुकूल है। ऐसा प्रतीत होता है कि कवि की उर्वरा कल्पना की भूमि में भारतीय संस्कारों के बीज काव्य-रूप में स्वतः अंकुरित हो उठे हैं। दरबारी वातावरण की श्रृंखला में जकड़ी हुई प्रतिभा का इतना जनवादी होना विस्मयकारी प्रतीत होता है।

पार्वती का ‘कान्तासम्यित उपदेश’ है कि शिव खटंग को काट कर हल बनायें, त्रिशूल को तोड़कर फार (हल का फल) बना लें और अपने वाहन वृषभ पर इस हल को रखकर भूमि का कर्षण करें (जोतें) तथा जटाओं में प्रवहमान सुरसरि की धारा से उसका सिंचन करें। इसी कामना-पूर्ति के लिये उन्होंने ने पति-सेवा की है। अ-कर्मण्यता से इस बार जो हुआ सो हुआ अर्थात् लोक बिगड़ा, पर वे परलोक नहीं बिगड़ने देंगी। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि कर्म से लोक-परलोक दोनों बनते हैं और अ-कर्म से दोनों बिगड़ जाते हैं।
इस प्रकार विद्यापति कर्मठता पर सर्वाधिक बल देते हैं। यहाँ परोक्षतः गीता का संदेश ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ प्रतिध्वनित है। तुलसी भी इसी मत के पोषक हैं-‘करम प्रधान बिस्व करि राखा।’ सरदार पूर्ण सिंह ने ‘मजदूरी और प्रेम’ शीर्षक निबन्ध में निठल्ले पादड़ियों, पुजारियों और मौलवियों की खिल्ली उड़ाई है और मजदूरों में परमात्मा के दर्शन करने को कहा है। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी अपनी एक कविता में भजन गाने, माला फेरने तथा नेत्र बन्द कर ईश्वर का ध्यान करने की आलोचना की है तथा भगवान के दर्शन श्रमिक में प्राप्त करने की प्रेरणा दी है।

शिव-पार्वती का प्रेम कर्म से पलायन का संदेश नहीं देता। यह कर्मोन्मुख है। शिव को अपने रूप में देखने वाले कृषक से बढ़कर शिव का भक्त कौन हो सकता है ? कृषक जीवन के ऐसे रम्याद्भुत चित्र लोक-गीतों में मिलते हैं। रामनरेश त्रिपाठी ने ‘कविता-कौमुदी (भाग-1)’ में ऐसे कई लोक गीतों का संग्रह किया है, जिसमें राम खेतों को जोत कर संध्या-काल घर लौटते हैं, सीता बैलों का जुआ खोलती हैं, बैलों के लिये सानी करनी हैं। गुप्त जी इससे भी आगे बढ़ जाते हैं:-
‘‘अंचल-पट कटि में खोंस, कछोटा मारे,
सीता माता थीं आज नई धज धारे।
अंकुर-हितकर थे कलश-पयोधर पावन,
जन-मातृ-गर्वमय कुशल वदन भव-भावन।’’ (साकेत, अष्टम सर्ग, पृ. 221)
पर्णकुटी के वृक्षों को सींचने वाली सीता जड़ी भूत पदार्थों तक में कर्म की प्रेरणा जागरित कर सकती हैं, मनुष्यों की बात ही क्या है ?1
लोक-हित की वेदी पर वैयक्तिक कुशल-क्षेम का बलिदान तथा दुःखियों के प्रति सहानुभूति आधुनिक प्रेमिकाओं की प्रमुख विशेषतायें हैं। गुप्त जी की उर्मिला तथा हरिऔध की राधा में ऐसी ही भावनायें मिलती हैं। ‘हरिऔध’ की राधा अपने प्रियतम को लोक मंगलोन्मुख कर्म की वैसी ही प्रेरणा देती हुई दिखाई पड़ती हैं, जैसी विद्यापति की पार्वती ने शिव को दी है-
‘प्यारे जीवें जग-हित करें गेह चाहे न आवें।’ (प्रिय-प्रवास)

विद्यापति की पार्वती का कर्म-प्रेरक रूप ‘प्रसाद’ की ‘श्रद्धा’ में प्रतिबिम्बित प्रतीत होता है:
‘‘एक तुम, यह विस्मृत भू-खण्ड
प्रकृति वैभव से भरा अमंद;
कर्म का भोग, भोग का कर्म
यही जड़ का चेतन आनंद।’’
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‘‘बनो संसृति के मूल रहस्य
तुम्हीं से फैलेगी यह बेल;
विश्व भर सौरभ से भर जाय,
सुमन के खेलो सुन्दर खेल।’’ (कामायनी, श्रद्धा सर्ग)
‘सुमन के खेल’ रचनात्मक कर्मों के प्रतीक हैं। श्रद्धा मनु को रचनात्मक कर्म करने की प्रेरणा देती है। इन्हीं कार्यों से सृष्टि रूपी लता विकसित होती है। कर्मों के संपादन से ही सृष्टि का विकास संभव है।(2)
इस प्रकार विद्यापति आधुनिक कवियों के साथ बैठे हुये दिखायी पड़ते हैं। भारत कृषि-कर्म से ही सम्पन्न हो सकता है। मनुष्य को अपनी शक्ति कृषि-सम्बन्धी श्रम में ही लगानी चाहिये। कर्म ही पूजा है - विद्यापति निठल्ले योगियों, साधुओं एवं सन्यासियों को कर्म की प्रेरणा देते हैं। साहित्यकार के जिस दायित्व की आज कल अधिक चर्चा की जाती है, वह विद्यापति के एक विशिष्ट पद में पहले से विद्यमान है। वे अपने पाठकों को काम की कुत्सित-अकुत्सित गलियो में घुमा-फिराकर लोक-मंगलाभिमुख कर्म की भूमि में ले आते हैं।

27 हजारीपुरा, उरई (उ0 प्र0)